कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उप्र के दौरे के दौरान एक ऐसे मुद्दे को
छेड़ दिया है जिस पर आमतौर पर राजनेता बात तो करते हैं लेकिन काम नहीं
करते। राहुल ने सवाल उठाया कि देश में दलित नेतृत्व क्यों तैयार नहीं हो
सका? दलित समुदायों के बीच से नेतृत्व खड़ा करने की राहुल गांधी की चिंता
उतनी ही आवश्यक है जितनी युवा नेतृत्व तैयार करने की फिक्र। युवा नेतृत्व
तैयार करने की चिंता में राहुल ने अपने कीमती साल संगठन को दिए हैं। यहां
राहुल से ही प्रतिप्रश्न हो सकता है कि उन्होंने या उनकी पार्टी ने दलित
नेतृत्व खड़ा करने के लिए क्या किया? समाजवादी पार्टी के आजम खान ने यह सवाल
किया भी लेकिन यह सवाल केवल राहुल गांधी, कांग्रेस से ही नहीं भाजपा, सपा,
बसपा सहित सभी राजनीतिक दलों से होना चाहिए। राजनीतिज्ञों की चिंता का
विषय केवल दलित नेतृत्व खड़ा करना ही नहीं बल्कि सभी वर्गों और समुदायों का
बेहतर नेतृत्व तैयार करना भी होना चाहिए। देश की राजधानी दिल्ली सहित पांच
राज्यों में अगले दो माहों में विधानसभा चुनाव होना है और अगले साल आम
चुनाव होंगे। इसलिए नेतृत्व के विकल्पों
की बात करने के लिए यह एकदम उपयुक्त समय है। हालांकि चुनावी मौसम में
नेतृत्व की बात होती है और फिर मौसमी बातों की तरह राजनेताओं चिंतन की
प्रक्रिया से गायब हो जाती है। बेहतर नेतृत्व वह समझा जाता है जो अपनी
दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेता तैयार करे और समय आने पर उनके अधिकार सौंप
दे। आज लगभग सभी राजनीतिक दल अपने भीतर कॉडर की समस्या से जूझ रहे है।
पैराशूट से उतरे नेता बरसों से मैदानी सेवा कर रहे कार्यकर्ताओं पर भारी
पड़ते जा रहे हैं और राजनीतिक विरासत को संभालने को लालायित नेता पुत्र
अपने क्षेत्र में अन्य नेतृत्व के विकसित होने की संभावनओं को लील रहे
हैं। हर बार यह बात की जाती है कि राजनीति करने की कोई योग्यता नहीं होती
लेकिन राजनीति में जगह बनाने के लिए सारी अनिवार्यताओं पर पारिवारिक
पृष्ठभूमि भारी पड़ती है। ऐसे में स्वाभाविक नेतृत्व विकसित होने की
संभावनाएं और क्षीण होती जाती है। यही बात दलित नेतृत्व पर भी लागू होती है
और उन तबकों के नेतृत्व पर भी जिनके हित की बात तो सभी करते हैं लेकिन
आजादी के बाद से अब तक वे वंचित ही रहे। आरक्षण के जरिए जगह पक्की की जा
सकती है लेकिन सफलता तो व्यक्तिगत कौशल पर भी ही निर्भर करती है। कोई किसी
को कुर्सी उपहार में दे सकता है लेकिन उसके दायित्वों का निर्वहन तो
व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर है। ऐसे में सभी राजनीतिक दलों को अपने भीतर
हर तरह के नेतृत्व को विकसित होने की संभावनाओं को बरकरार रखना चाहिए।
खासकर कमजोर और वंचित वर्गों की नेतृत्व में भागीदारी सुनिश्चित की जानी
चाहिए ताकि उनके बात सही मंच पर सही तरीके से पहुंच चुके। वे केवल संसाधनों
और अवसरों की कमी के कारण पीछे न रह जाएं। राहुल स्वयं यह पहल करे तो सभी
दलों के लिए यह कदम उठाना मजबूरी बन जाएगी।
(फोटो साभार)
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