केजरीवाल जीतें या हारें, ये तमाचे हमारी भी गालों पर हैं। उसी तरह जैसे तमाम गंदी गालियां हमारी आत्मा में हर रोज चुभते हुए कांटे हैं। वह स्याही और वह कालिख हमारे अपने चेहरों पर है। उसी तरह जैसे 30 जनवरी 1948 को एक पिस्तौल से दागी गई गोली हमारे दिल को जख्मी कर गई थी। ईश्वर से बार बार प्रार्थना है कि हर बार सही निशाना लगाने वाले हत्यारे अब हर बार अपना निशाना चूकें और इस देश में चिड़ियां और तितलियां तक महसूस करें कि यहां किसी पेड़ पर निर्भय घोसला बनाया जा सकता है। इसके फूलों पर बैठ कर गीत गाए जा सकते हैं। यहां हमारे जैसे निहत्थे लोगों का भी बसेरा हो सकता है। प्रार्थना है कि हम कह सकें, यह हमारा भी देश है। कोई भी चुनाव जीते या हारे, यह प्रार्थना स्थगित नहीं होती।
प्रख्यात कथाकार उदय प्रकाश ने अरविंद केजरीवाल पर दिल्ली में हुए हमले पर यह प्रतिक्रिया अपनी फेसबुक पोस्ट के माध्यम से दी है। उदय प्रकाश की प्रार्थना में हर उस भारतीय की प्रार्थना शामिल है जिसके हाथ दुआ के लिए तो उठते हैं लेकिन हमले के लिए नहीं उठ सकते। जो हक भी याचक की तरह मांगता है, हाथ फैला कर। इस प्रसंग ने कई और मुद्दों पर विचार के लिए मजबूर कर दिया है। आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल पर हमले की सभी ने दलगत भावना से परे हट कर निंदा की है। अच्छा लगता कि जो कुछ और राजनीतिक बयान आए वे भी कठोरता से ऐसे हमलों को खारिज करते। यह बात अलग है कि सोशल मीडिया पर तमाम शिष्टताओं को खूंटी पर टांग लोगों ने कई अनर्गल टिप्पणियां भी की। लोकतंत्र में जनता का ऐसे धैर्य चूकना ही डराता है। लोकतंत्र में राजनीति आम जनता के मत और धारणाओं पर ही निर्भर करती है। राजनेताओं के क्रियाकलाप और बयानों की धूरी है, जनता का रूख। यही कारण है नेता वही वादे करते हैं जो जनता को रोमांचित करे। वे वही बोलते हैं जो जनता को उत्तेजित करे। नेताओं के वादों और दिखाए गए स्वप्नों में खोई जनता के पास नाराजगी जताने का एक ही उपाय है उसका मताधिकार। लेकिन इस उपाय का इस्तेमाल करने की जगह वह हाथ उठाने लगे तो क्या इस कथित फौरी न्याय के तरीके से डरा नहीं जाना चाहिए?
देश की राजनीति में आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल कितनी दूर तक चल पाएंगे यह भविष्यवाणी करना मेरा उद्देश्य नहीं है लेकिन यह तो माना ही जाना चाहिए कि आम आदमी पार्टी के तरीकों ने देश के शांत राजनीतिक सतह पर कंकर मार कर हिलोर उठाई हैं और यह भी मानना होगा कि यह कंकर अच्छा खासा बड़ा है। आखिरी उन्होंने देश में लालबत्ती संस्कृति और सुरक्षा घेरे में रहने की राजनीति को तोड़ने की पहल की है। देश की दोनों बड़ी पार्टियों को अपनी राजनीतिक के तरीकों पर विचार करना पड़ा, लोकतंत्र की बेहतरी के लिए केजरीवाल का इतना योगदान ही रेखांकन योग्य है।
इस हमले पर अपनी प्रतिक्रियाओं में कई लोगों ने सवाल उठाए हैं और उसमें मेरी भी आवाज जोड़ लीजिए कि क्या कोई अगर अपना वादा पूरा नहीं करता है तो हमें उसे सरेराह पीटना चाहिए? आखिर इस देश में ऐसी कितनी पार्टियां या सरकारें हुई हैं जिन्होंने जनता से किए सारे वादे समय पर पूरे किए हैं? पूछा जा रहा है कि क्या कभी जनता ने उन लोगों पर हाथ उठाया जो पहले उनके वादे पूरे नहीं कर पाए हैं? यह बात अलग है कि आम आदमी पार्टी से कम समय में ज्यादा सपने दिखाए थे और वह उन्हें पूरे नहीं कर सकी। अपने काम के पक्ष में केजरीवाल और टीम के अलग तर्क हैं। केजरीवाल और उनके राजनीतिक तौर-तरीकों से असहमति जताई जा सकती है, लेकिन उन पर हमलों को जायज नहीं ठहराया जा सकता।
यहां जवाहर लाल नेहरू का एक प्रसंग याद आ रहा है। आजादी के बाद एक नाराज व्यक्ति ने उनकी राह रोक कर पूछ लिया कि बहुत बातें करते थे, आजादी के बाद क्या मिला? नेहरू ने मुस्कुरा कर स्नेह से कहा-‘तुम अपने प्रधानमंत्री से इस तरह बात कर पा रहे हो, यही लोकतंत्र की देन है। क्या तुम वायसराय से ऐसे सवाल कर पाते?’ यही केजरीवाल और अन्य नेताओं की राजनीति के तरीके का अंतर है। अरविंद सुलभ है तो हर तरह की प्रतिक्रिया दी जा सकती है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें मुक्का मारने वाले या थप्पड़ जड़ने वाले आप के ही पूर्व कार्यकर्ता थे या यह प्रायोजित स्टंट था। महत्वपूर्ण यह है कि ऐसा विरोध प्रदर्शन बढ़ता जा रहा है। मेरी चिंता इन हमलों से ज्यादा इस बात की है कि बैलेट का प्रयोग करने की बजाए जनता ‘बुलेट’ के उपयोग जैसे तरीके क्यों आजमा रही है। क्षणिक आक्रोश व्यक्त कर सालों खामोशी से शोषण, दुर्भावना, भ्रष्ट आचरण और तानाशाही, भेदभाव झेलने की आदत अनेक सदियों से होते हुए इस युग तक आ पहुंची है। सबसे पहले अगर कुछ बदलना है तो यही आदत बदलना होगी। हमें हक को हक की तरह मांगना और नाराजी को लोकतांत्रिक तरीकों से जताने का ढंग सीखना होगा। आखिर,गंभीर लोकतंत्र में मतदाताओं की ऐसी अधीरता की कोई गुंजाईश नहीं होती है।
प्रख्यात कथाकार उदय प्रकाश ने अरविंद केजरीवाल पर दिल्ली में हुए हमले पर यह प्रतिक्रिया अपनी फेसबुक पोस्ट के माध्यम से दी है। उदय प्रकाश की प्रार्थना में हर उस भारतीय की प्रार्थना शामिल है जिसके हाथ दुआ के लिए तो उठते हैं लेकिन हमले के लिए नहीं उठ सकते। जो हक भी याचक की तरह मांगता है, हाथ फैला कर। इस प्रसंग ने कई और मुद्दों पर विचार के लिए मजबूर कर दिया है। आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल पर हमले की सभी ने दलगत भावना से परे हट कर निंदा की है। अच्छा लगता कि जो कुछ और राजनीतिक बयान आए वे भी कठोरता से ऐसे हमलों को खारिज करते। यह बात अलग है कि सोशल मीडिया पर तमाम शिष्टताओं को खूंटी पर टांग लोगों ने कई अनर्गल टिप्पणियां भी की। लोकतंत्र में जनता का ऐसे धैर्य चूकना ही डराता है। लोकतंत्र में राजनीति आम जनता के मत और धारणाओं पर ही निर्भर करती है। राजनेताओं के क्रियाकलाप और बयानों की धूरी है, जनता का रूख। यही कारण है नेता वही वादे करते हैं जो जनता को रोमांचित करे। वे वही बोलते हैं जो जनता को उत्तेजित करे। नेताओं के वादों और दिखाए गए स्वप्नों में खोई जनता के पास नाराजगी जताने का एक ही उपाय है उसका मताधिकार। लेकिन इस उपाय का इस्तेमाल करने की जगह वह हाथ उठाने लगे तो क्या इस कथित फौरी न्याय के तरीके से डरा नहीं जाना चाहिए?
देश की राजनीति में आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल कितनी दूर तक चल पाएंगे यह भविष्यवाणी करना मेरा उद्देश्य नहीं है लेकिन यह तो माना ही जाना चाहिए कि आम आदमी पार्टी के तरीकों ने देश के शांत राजनीतिक सतह पर कंकर मार कर हिलोर उठाई हैं और यह भी मानना होगा कि यह कंकर अच्छा खासा बड़ा है। आखिरी उन्होंने देश में लालबत्ती संस्कृति और सुरक्षा घेरे में रहने की राजनीति को तोड़ने की पहल की है। देश की दोनों बड़ी पार्टियों को अपनी राजनीतिक के तरीकों पर विचार करना पड़ा, लोकतंत्र की बेहतरी के लिए केजरीवाल का इतना योगदान ही रेखांकन योग्य है।
इस हमले पर अपनी प्रतिक्रियाओं में कई लोगों ने सवाल उठाए हैं और उसमें मेरी भी आवाज जोड़ लीजिए कि क्या कोई अगर अपना वादा पूरा नहीं करता है तो हमें उसे सरेराह पीटना चाहिए? आखिर इस देश में ऐसी कितनी पार्टियां या सरकारें हुई हैं जिन्होंने जनता से किए सारे वादे समय पर पूरे किए हैं? पूछा जा रहा है कि क्या कभी जनता ने उन लोगों पर हाथ उठाया जो पहले उनके वादे पूरे नहीं कर पाए हैं? यह बात अलग है कि आम आदमी पार्टी से कम समय में ज्यादा सपने दिखाए थे और वह उन्हें पूरे नहीं कर सकी। अपने काम के पक्ष में केजरीवाल और टीम के अलग तर्क हैं। केजरीवाल और उनके राजनीतिक तौर-तरीकों से असहमति जताई जा सकती है, लेकिन उन पर हमलों को जायज नहीं ठहराया जा सकता।
यहां जवाहर लाल नेहरू का एक प्रसंग याद आ रहा है। आजादी के बाद एक नाराज व्यक्ति ने उनकी राह रोक कर पूछ लिया कि बहुत बातें करते थे, आजादी के बाद क्या मिला? नेहरू ने मुस्कुरा कर स्नेह से कहा-‘तुम अपने प्रधानमंत्री से इस तरह बात कर पा रहे हो, यही लोकतंत्र की देन है। क्या तुम वायसराय से ऐसे सवाल कर पाते?’ यही केजरीवाल और अन्य नेताओं की राजनीति के तरीके का अंतर है। अरविंद सुलभ है तो हर तरह की प्रतिक्रिया दी जा सकती है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें मुक्का मारने वाले या थप्पड़ जड़ने वाले आप के ही पूर्व कार्यकर्ता थे या यह प्रायोजित स्टंट था। महत्वपूर्ण यह है कि ऐसा विरोध प्रदर्शन बढ़ता जा रहा है। मेरी चिंता इन हमलों से ज्यादा इस बात की है कि बैलेट का प्रयोग करने की बजाए जनता ‘बुलेट’ के उपयोग जैसे तरीके क्यों आजमा रही है। क्षणिक आक्रोश व्यक्त कर सालों खामोशी से शोषण, दुर्भावना, भ्रष्ट आचरण और तानाशाही, भेदभाव झेलने की आदत अनेक सदियों से होते हुए इस युग तक आ पहुंची है। सबसे पहले अगर कुछ बदलना है तो यही आदत बदलना होगी। हमें हक को हक की तरह मांगना और नाराजी को लोकतांत्रिक तरीकों से जताने का ढंग सीखना होगा। आखिर,गंभीर लोकतंत्र में मतदाताओं की ऐसी अधीरता की कोई गुंजाईश नहीं होती है।