Thursday, November 10, 2022

विजयदान देथा: बहुओं के बीच बैठे, बातें सुनी और रच दी कथाओं की फुलवाड़ी

विजयदान देथा को जानते हैं आप? जो नहीं जानते हैं वे शाहरूख-रानी मुखजी अभिनीत फिल्‍म ‘पहेली’ व हबीब तनवीर के विख्‍यात नाटक ‘चरणदास चोर’ के कथाकार के रूप में विजयदान देथा से परिचय का सूत्र जोड़ सकते हैं. प्रशंसकों के बीच बिज्‍जी के रूप में मशहूर विजयदान देथा के रचना संसार को जानना शुरू करेंगे तो पाएंगे कि रवींद्रनाथ टैगोर के बाद बिज्जी भारतीय उपमहाद्वीप के एकमात्र लेखक हैं, जिनका नाम 2011 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नामित हुआ था. ऐसे कथाकार जो सबकुछ समेट कर अपने गांव में सिमट आया और फिर ख्‍याति ने ऐसा विस्‍तार लिया कि हर शख्‍स ने बिज्‍जी की रचनाओं के किरदारों में अपना कोई तार जुड़ा पाया.

रतलाम के प्रसिद्ध कवि देवव्रत जोशी ने अपनी एक कविता में एक ऐसी गीत लिखने की इच्‍छा जताई थी जिसे लोक गीत की तरह याद रखा जाए, लेखक को भुलाते हुए. ऐसी ही मछुआरों की कहानी का जिक्र विजयदान देथा भी किया करते थे. जिसमें अर्जेंटिना के मछुआरे चिली के सुविख्‍यात कवि पाब्‍लो नेरूदा का गीत गाते थे. मछुआरों को पता नहीं था कि गीत का लेखक कौन है. इसी तरह लोक को जीने और लोक को फिर नया रूप देने वाले बिज्‍जी की रचनाओं ने संसार की सारी सीमाओं को बौना साबित किया है. उन्‍हें जितना पढ़ा गया, उससे ज्‍यादा सुना गया. उनकी कथाएं याद रखी गईं, लेखक का विस्‍मृत करते हुए. लोक कथाएं उनकी कहानियों में फिर फिर जिंदा हो उठीं. तभी तो एक संकुचित कहे जाने वाले साहित्‍य समाज में एक भाषा (पंजाबी) की लेखिका अमृता प्रीतम दूसरी भाषा (राजस्‍थान की मारवाड़ी) के कथाकार बिज्‍जी के चरित्रों में अपना सच पाती हैं.

1 सितंबर 1926 के जन्मे विजयदान देथा का 87 वर्ष की उम्र में 10 नवंबर 2013 को देहांत हुआ था. लगभग 800 कहानियां लिखने वाले बिज्‍जी का रचना संसार ‘बातां री फुलवारी’, ‘उजाले के मुसाहिब’, ‘दोहरी जिंदगी’, ‘सपन प्रिया’, ‘महामिलन’, ‘त्रिवेणी’ में समाहित है. ‘समाज और साहित्य’, ‘गांधी के तीन हत्यारे’ आदि उनकी आलोचना पुस्तके हैं. रचनाधर्मिता का सम्‍मान करते हुए उन्‍हें पद्मश्री और साहित्य अकादमी सहित अन्‍य पुरस्कार प्रदान किए गए हैं.

बिज्जी के दादा जुगतीदान देथा राजस्थानी की डिंगल काव्य-धारा के सुप्रसिद्ध कवि थे. वहीं पिता सबलदान देथा पुश्तैनी चारणी काव्य-परंपरा के निपुण रचनाकार थे. छठी कक्षा में लिखी गई कविता बिज्‍जी के लेखकीय जीवन का आरंभ थी. जोधपुर के दरबार हाई स्कूल में रोज नई शरारतें बिज्‍जी की पहचान बन गई. हेड मास्‍टर ने पिटाई के लिए छड़ी उठाई तो बिज्‍जी ने उसे पकड़ कर रोक दिया. फलस्वरूप नवीं कक्षा में यह स्कूल छोड़ना पड़ा. वे राजस्‍थान में कहीं प्रवेश नहीं ले सकते थे तो पंजाब बोर्ड से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर उच्च शिक्षा के लिए जोधपुर लौटे. जसवंत कॉलेज में शिक्षा के दौरान सन् 1947 में उनका ‘उषा’ नामक प्रथम काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ. संदर्भ बताते हैं कि यह काव्य संग्रह एक रचनात्मक शरारत ही था. बिज्जी ने अपनी सहपाठिन उषा पाठक को संबोधित करते हुए इस काव्‍य संग्रह में सूर्योदय एवं संध्या का चित्रण करने वाली कविताएं लिखी थीं.

शरतचंद्र की एक किताब को 60-70 बार पढ़ा 

जसवंत कॉलेज में अध्‍ययन के दौरान बिज्‍जी ने पहली बार शरत साहित्य पढ़ा. शरतचंद्र को पढ़ते हुए बिज्जी का जीवन बदल गया. अपने साक्षात्‍कार में बिज्‍जी ने कहा है कि उन्‍होंने शरतचंद्र की रचनाओं को 70-70 बार तक पढ़ा है. उन्‍हीं के शब्‍दों में वे शरत साहित्‍य का पारायण करते थे और हर बार उस पुस्‍तक को पढ़ कर नई प्रेरणा मिलती.

सन् 1959 में उन्होंने हिंदी छोड़कर राजस्थानी में लिखने का संकल्प लिया और अपने गांव बोरुंदा लौट आए. ‘बातां री फुलवाड़ी’ शीर्षक से लोक-कथाओं के पुनर्सृजन की उनकी यात्रा यहीं से आरंभ हुई. संवाद में वर्ष 2020 में प्रकाशित साक्षात्‍कार में प्रेम कुमार कई पहलुओं पर बात रखते हैं. इस साक्षात्‍कार में बिज्‍जी ने बताया कि जयपुर में उद्योग विभाग के तत्‍कालीन निदेशक त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी ने आठ हज़ार का ऋण मंजूर करवाया. उसी से गांव में प्रेस लगाई. बिजली नहीं थी. एक बड़ा-सा व्हील कबाड़ा–पट्टा लगाकर प्रेस मशीन चलाई. सन् 1962 की दीपावली पर ‘बातां री फुलवाड़ी’ का पहला भाग निकला. उस वक्त उन्‍होंने लिखने के मामले में मशीन से मुकाबला किया. सत्रह कम्पोजिटर और वे अकेले लेखक. सवेरे तीन बजे जागते. कम्पोजिटर नौ बजे तक आते तब तक वे बीस-पच्चीस पेज लिख लिया करते थे. होड़ लगी रहती कि कंपोजिंग पहले खत्म हो या बिज्‍जी का लिखना. लिखना पूरे दिन लगा रहता. दो गेली प्रूफ, फिर पेज प्रूफ, मशीन प्रूफ.

न लिखने से पहले सोचा, न लिखकर पढ़ा और न लिखकर कुछ काटा

बकौल बिज्जी न लिखने से पहले सोचा, न लिखकर पढ़ा और न लिखकर कुछ काटा. इधर छापे की मशीन थी, उधर कलम. मशीन के साथ मन से होड़ करते हुए सन् 1981 तक ‘बातां री फुलवाड़ी’ के चौदह भाग पूर्ण हुए. हर भाग में पांच-छह सौ पृष्ठ. आर्थिक कठिनाइयों की वजह से प्रेस बेचनी पड़ी. अगर न बेचनी पड़ती तो ‘बातां री फुलवाड़ी’ के तीस-चालीस भाग निकल जाते. इन्हीं 14 भागों में से एक ‘बातां री फुलवाड़ी’ के दसवें भाग पर 1974 में बिज्जी को राजस्थानी भाषा का पहला साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ.

‘बातां री फुलवाड़ी’ असल में राजस्‍थान की लोक कथाओं की पुनर्प्रस्‍तुति हैं. बिज्‍जी ने ताजगी के साथ गांवों में व्‍याप्‍त कथाओं को प्रस्‍तुत किया है. वे गांव-गांव, भटककर कथाओं को एकत्रित करते थे. वे गांवों और समारोह में ऐसी जगह जाते जहां महिलाएं इकट्ठी होती थीं. उनके बीच बैठ कर उनसे लोक कथाएं और उनकी बातें सुना करते थे. वे कहते थे एक महिला जब बहू बन कर दूसरे गांव आती है तो अपने साथ मायके की कथाएं, बातें, संस्‍कृति ले आती हैं. इस तरह वे महिलाओं के माध्‍यम से मारवाड़ की लुप्त हो रही लोक कथाओं को नया जीवन देने में कामयाब हुए हैं.इतना कि पंजाबी की लेखिका अमृता प्रीतम ने मुक्‍त कंठ से उनकी प्रशंसा की.

‘समकालीन भारतीय-साहित्य’ के बाईसवें अंक में गगन गिल के साथ साक्षात्कार में अमृता प्रीतम ने कहा था कि राजस्थान के लेखक हैं विजयदान देथा ‘बिज्जी’ लोक-कहानियों की सूरत में कहानी बयान करते हैं और बीच में कहीं एक स्तर पर वह ऐसी बात कह जाते हैं कि कहानी का सारा आयाम ही बदल जाता है. वह एकदम आज की कहानी हो जाती है. यह उनके पास बहुत खूबसूरत क्राफ्ट है, और यह सिर्फ क्राफ्ट ही नहीं है. इसके पीछे एक पूरी विचारधारा है, जो पुरानी बात कहते हुए भी उस कहानी को शाश्वत कर देती है- सारे समयों के लिए सच! अमृत प्रीतम ने कहा था कि अगर जबान की और स्थान की सरहद पर पांव रखकर लांघ जाऊं, तो सभी मेरे अपने हैं, जिन्होंने उस सच को छुआ है. मुझे आयन रैंड के किरदार कभी नहीं भूलेंगे. मुझे कजान जाकिस के किरदार नहीं भूल सकते. बहुत जगहों पर विजयदान देथा (बिज्जी) के भी नहीं.

अमृता प्रीतम से मिली प्रशंसा ने दिया निराश बिज्‍जी को संबल 

इस प्रशंसा के बाद 17 दिसंबर 1985 को बिज्‍जी ने अमृता प्रीतम को एक पत्र लिखा था. ‘नवनीत’ में प्रकाशित इस पत्र में बिज्‍जी ने अमृता प्रीतम के आभार जताया है. वे लिखते हैं, आदरणीय अमृता प्रीतम, एक बार आकाशवाणी जयपुर के समारोह में मित्रों ने आग्रहपूर्वक आपके भाषण की टेप सुनाई. आपने मेरे लिए शुरुआत में कुछ पंक्तियां कहीं थीं. मैंने सोचा शिष्टाचार के नाते आपने मेरी प्रशंसा कर दी है. किसी प्रांत की धरती पर सांस लेते समय वहां के किसी एक साहित्यकार का बखान करना शिष्टाचार का तकाजा है. मैंने उसे भी गंभीरतापूर्वक नहीं लिया. हाड़-मांस व रक्त-मज्जा से बना है मेरा पुतला, लाख लेखक की मर्यादा का निबाह करूं, अपनी प्रशंसा से खुशी तो होती ही है, पर उसका प्रदर्शन करने, उसे भुनाने का मन नहीं करता. किंतु ‘गगन गिल के साथ साक्षात्कार पढ़कर तो आश्चर्य-चकित रह गया. ऐसा लगा कि मेरी मुर्दा देह में पांखें उग आई हों. गांव से जोधपुर बस में जा रहा था. बहुत ही उदास व गमगीन. आर्थिक संकट के पाटों से कुचला हुआ. ऐसा हताश मैं कभी नहीं हुआ था. हालांकि तीस-पैंतीस साल से आर्थिक संकट का ऐसा ही ढर्रा चल रहा है. पर इस बार कुछ बोझ असह्य-सा हो उठा था.

बिज्‍जी लिखते हैं, दूसरे साहित्यकारों व कलाकारों की विपदा से तुलना करके अपनी विपदा को अधिक विषम समझना, मुझे अपराध-सा महसूस होता है, पर इतना ज़रूर कह सकता हूं कि सृजन की भयावह राह पर मुझे भी कम सहन नहीं करना पड़ा. मैंने एक-एक अक्षर को विपदाओं की कोख से जन्म दिया है. किसी पर एहसान नहीं है, मेरे जीवन का अर्थ यही था, मैं इसके अलावा कुछ भी अन्य कर सकने के लिए अक्षम था. अपना रोना भी अच्छा नहीं लगता. यही तो सृजन की उर्वरा कोख है. पर उस दिन मायूसी नितांत असह्य होती जा रही थी. संकट की उस त्रासदी में आपकी पंक्तियों ने जैसे मेरे अंतस को अमृत से सराबोर कर दिया हो. दूसरे ही पल सारा क्लेश हवा हो गया. लगा कि हवा मेरी ही उड़ान का अनुकरण कर रही है. मुर्दे में प्राण फूंकने का मायना अच्छी तरह समझ में आया. यह अप्रत्याशित जीवन-दान मैं कभी बिसर नहीं सकूंगा. सूखते पौधे पर जैसे बादल ही फूट पड़ा हो. अभेद्य अंधकार से भरा अंतस अविलंंब जगमगा उठा. आप से मिलने के लिये मन बार-बार अबोध बच्चे की नाईं मचल उठा. यदि दो दिन बाद ही बीमार न हो गया होता तो अब तक आपसे मिलने का उत्साह साकार हो गया होता. पत्र न लिखकर स्वयं उपस्थित होता.

जैसे मिल गया सौ हाथियों जितना बल

अपने पत्र में बिज्‍जी ने साहित्‍य की राजनीति पर लिखा था कि हिंदी के अधिकांश बड़े लेखक नितांत व्यवसायी हैं. जब तक मुनाफे का सौदा नहीं होता, वे किसी साथी लेखक की प्रशंसा नहीं कर सकते. अपनी ही देह में दुबके रहते हैं. अपने सृजन की तुलना में उन्हें सारी दुनिया ही छोटी नजर आती है. उन्हें दोष नहीं देता, उनके संस्कार ही ऐसे हैं. अपने स्वार्थ के अलावा उन्हें चांद-सूरज भी नज़र नहीं आते. फिर भी इने-गिने सामान्य लेखकों ने, (नामवरी की दृष्टि से सामान्य) मर्मज्ञ पाठकों ने मुझे अपने हृदय में उछाह से स्थान दिया है, और वही मेरी एकमात्र अखूट पूंजी है. सूखे तृषित गले को आपने अपने स्तन से जो अमृत-पान कराया है- उसकी शुभ-सूचना तो आपके पास पहुंचा दूं- यत्किंचित कृतज्ञता तो प्रकट कर दूं. मेरे लिए आपकी यह सहज आत्मीय सराहना सर्वोच्च पुरस्कार है. जिससे मुझमें सौ हाथियों जितना बल संचरित हो गया. मेरा यह निश्छल आभार आपको अंगीकार करना ही होगा. शायद मुलाकात के समय मेरी वाणी इतनी मुखर नहीं हो पाती.

लिखने का आनंद कभी नहीं मिला

समझा जा सकता है कि मशीन की तरह लिखने वाले विजयदान देथा ने कथा के मर्म और संवेदना को कहीं भी मुरझाने नहीं दिया. यह एक लेखक का सबसे बड़ा तप है. जब अपने साक्षात्‍कार में प्रेम कुमार ने उनसे लेखन के सुख के बारे में पूछा तो उन्‍होंने कहा कि लिखने में आनंद कभी नहीं मिला. लिखना सांस लेने की तरह चलता रहा. जैसे मोर का नाच, कोयल की कूक, सांस-पांव की गति सहज है – उसी तरह मेरे लिए लिखना सहज है. लिखते-लिखते धीरे-धीरे मैं ‘ग्रो’ करता गया. लिखने के बजाय पढ़ने से, दूसरों की रचनाएं पढ़ने से अधिक सुख मिलता है. कभी ऐसा नहीं सोचा कि लिखे बगैर मर जाता तो क्या होता पर ऐसा कई बार लगा कि इस कृति को बिना पढ़े मर जाता तो सद्गति न होती. चेखव, शरत, रवींद्र, उपनिषद आदि में कितनी पीढ़ियों का कैसा-कैसा अनुभव घुला है. लिखकर ऐसा महसूस नहीं होता.

बिज्‍जी यानी विजयदान देथा को पढ़ते हुए उनके जीवन संघर्ष के इन पहलुओं को याद रखते हैं तो पठन सुख में श्रद्धा का भाव स्‍वत: सम्मिलित हो जाता है.


(न्‍यूज 18 में 10 नवंबर को प्रकाशित ब्‍लॉग।)

Monday, November 7, 2022

चंद्रकांत देवताले: खून की जांच करो अपने, कहीं ठंडा तो नहीं हुआ

 वह औरत


आकाश और पृथ्वी के बीच

कब से कपड़े पछीट रही है,


पछीट रही है शताब्दियों से

धूप के तार पर सुखा रही है,

वह औरत आकाश और धूप और हवा से

वंचित घुप्प गुफा में

कितना आटा गूंध रही है?


एक औरत का धड़

भीड़ में भटक रहा है

उसके हाथ अपना चेहरा ढूंढ रहे हैं

उसके पांव

जाने कब से

सबसे

अपना पता पूछ रहे हैं. (औरत) 


इस कविता से इसके लेखक कवि चंद्रकांत देवताले के समूचे कृतित्‍व को समझा जा सकता है. उनके संवेदना के स्‍तर को जाना जा सकता है. आज उन देवताले जी की जयंती है. उनका जन्‍म 7 नवम्बर 1936 को जौलखेड़ा बैतूल में हुआ था. सेवानिवृत्ति के बाद वे उज्‍जैन में ही बस गए थे. उज्‍जैन में ही 14 अगस्त 2017 को उनका निधन हुआ. किसी के प्रिय कवि, किसी के प्रिय प्रोफेसर, किसी के लिए बेहतरीन इंसान, जाने कितनी छवियां हैं जिनके बहाने देवताले जी किसी एक दिन नहीं कभी भी एक अनूठी याद बन स्‍मृत हो जाते हैं. आज भी उन्‍हें याद करने के कई बहाने हैं.


पूरे देश के साहित्‍यकारों की क्‍या कहिए, मालवा खासकर, इंदौर, रतलाम, उज्‍जैन, भोपाल के साहित्‍यकारों के पास चंद्रकांत देवताले के साथ की अपनी यादें हैं. उनके अपने खास किस्‍से हैं. ये वे किस्‍से हैं जो हमें एक कवि के कोमल मन का साक्षात्‍कार ही नहीं करवाते हैं बल्कि हमें एक कवि ह्रदय इंसान के साथ होने के गर्व से भी भरते हैं. रतलाम कॉलेज में पढ़े कई विद्यार्थी उन्‍हें आज भी अपने प्रोफेसर के रूप में याद करते हैं तो साहित्‍यप्रेमी उनकी रचनाशीलता के किस्‍से सुनाते हैं.


रतलाम में हुए कार्यक्रमों में मुझे उनके साथ कुछ पल बिताने का मौका भी मिला है. जब वे मंच पर होते और रचना पाठ करते तो खास अंदाज में सुनाई गई कविताओं का पाठक पर विशेष प्रभाव होता था. उन्‍हें रतलाम छोड़े अर्सा हो गया था. ‘रतलाम उत्‍सव’ के लिए वे रतलाम में आए हुए थे. उस दोपहर रचना पाठ के बाद मैं उनकी काव्‍य आभा से मुग्‍ध था तभी सुनाई दिया- ‘गुजराती स्‍कूल के सामने कचौरी की दुकान है या नहीं? वहां ले चल. माणक चौक भी जाएंगे’.


तब मेरे सामने तस्‍वीर का दूसरा पहलू था.अपने आसपास के मित्रों, प्रशंसकों के घेरे को तोड़ कर कुछ समय बाद वे मेरी बाइक पर सवार थे. उनकी जानी पहचानी दुकान पर खड़े थे हम. वे कचौरियों का स्‍वाद ले रहे थे और मैं उनके संग का आनंद.


उनके व्‍यक्तित्‍व का एक पहलू वरिष्‍ठ कवि प्रोफेसर आशुतोष दुबे की याद से उभरता है. आशुतोष दुबे लिखते हैं, बहुत साल पहले की बात है. किसी प्रसंग में चंद्रकांत देवताले जी के साथ देवास जाना था बस से. समय तय हुआ जब हम दोनों को बस स्टैंड पर मिलना था. मुझे कुछ देर हो गई. देवताले जी एक पेड़ के नीचे अपनी काइनेटिक होंडा लिए खड़े थे.

मैंने कहा- आपको इंतज़ार करना पड़ा.

उन्होंने जवाब दिया- नहीं. मैंने अपने से कहा, मैं किसी का इंतजार नहीं कर रहा हूं. न कोई आने वाला है न मुझे कहीं जाना है. मैं यहां पेड़ के नीचे इस छांह में खड़ा होने के लिए आया हूं. इस छांह को, इस दोपहर को और यहां की चहल पहल को इंजॉय कर रहा हूं.


क्‍या ही बेहतरीन जीवन प्रबंधन है. इस सुलझे सूत्र के बिना जीवन के मकड़जाल से अप्रभावी रहना संभव नहीं है. उज्‍जैन के कवि नीलोत्‍पल अकसर ही देवताले जी को याद करते हुए उनके व्‍यक्तित्‍व के जाने-अनजाने रंगों से हमें रूबरू करवाते रहते हैं.


नीलोत्‍पल लिखते हैं, देवताले जी के साथ कुछ साल रहने का अवसर मिला. कई बार ऐसा होता था कि मैं किसी बात पर देवताले जी से असहमत हो जाता, वे चिकोटी की तरह भरकर कहते, ‘देख तू नहीं मान रहा पर यह सच है ज्वार माता की कसम’. यह इतना प्रिय वचन होता कि मैं उन्हें सहमति का स्वर देता. यह सहमति मुझे अपनी असहमति से ज़्यादा प्रिय थी. यह मानवीय और उद्दात्त से भरे क्षणों में हम एक-दूसरे को निथारते रहते. कभी वे बाजरे की भी कसम खाया करते, यह उनके शगल में था. प्रकृति में भरोसा भी दिलाता था यह आप्तवचन.


ऐसे कितने ही अनुभव है जिनके माध्‍यम से हम कवि चंद्रकांत देवताले को जानते हैं और ऐसी कितनी ही रचनाएं हैं जिनके जरिए श्रेष्‍ठ मानव के रूप में वे हमसे मुखातिब होते हैं. हमेशा अपनी उपस्थिति से किसी को परेशान नहीं करते हुए, प्रकृति को आत्‍मसात करते हुए, इंसानों के भावों को उकेरते हुए. कभी कभी तो लगता है, स्‍त्री जीवन के मनोभावों के कपास और संघर्ष के पात को समझना हो तो मां, बेटी, प्रेम को इंगित करते हुए लिखी गई देवताले जी की कविताओं को पढ़ लेना ही काफी है. कविता को जीने वाले और जीवन को रचने वाले देवताले जी को याद करना, उनकी रचनाओं से गुजरता वास्‍तव में हमारे श्रेष्‍ठ होने के मार्ग का अनिवार्य कदम है. आप भी पढ़िए उनकी कुछ पंक्तियां :


अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही

तो मत करो कुछ ऐसा

कि जो किसी तरह सोए हैं

उनकी नींद हराम हो जाए

हो सके तो बनो पहरुए

दुःस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें

गाओ कुछ शांत मद्धिम

नींद और पके उनकी जिससे

सोए हुए बच्चे तो नन्हे फरिश्ते ही होते हैं

और सोई स्त्रियों के चेहरों पर

हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम

और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो

नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी

दुश्मनी का कोई निशान

अगर नींद नहीं आ रही हो तो

हंसो थोड़ा, झांको शब्दों के भीतर

खून की जांच करो अपने

कहीं ठंडा तो नहीं हुआ. (अगर तुम्‍हें नींद नहीं आ रही है)



वसंत जो पृथ्वी की आंख है

जिससे वह सपने देखती है

मैं पृथ्वी का देखा हुआ सपना कहना चाहता हूं.



सीता ने कहा था- फट जा धरती

ना जाने कब से चल रही है ये कहानी

फिर भी रुकी नहीं है दुनिया

बाई दरद ले!

सुन बहते पानी की आवाज

हां! ऐसे ही देख ऊपर हरी पत्तियां

सुन ले उसके रोने की आवाज़

जो अभी होने को है

जिंदा हो जाएगी तेरी देह

झरने लगेगा दूध दो नन्हें होंठों के लिए. (बाई दरद ले)



सोई हुई है जैसे उजड़कर गिरी सूखे पेड़ की टहनी

अब पड़ी पसर कर


नींद में हँसते देखना उसे मेरा एक सपना यह भी

पर वह तो

माथे की सिलवटें तक नहीं मिटा पाती

सोकर भी. (एक सपना यह भी) 


‘नींबू मांगकर’ कविता में वे लिखते हैं:


बेहद कोफ़्त होती है इन दिनों

इस कॉलोनी में रहते हुए

जहां हर कोई एक-दूसरे को

जासूस कुत्ते की तरह सूंघता है

अपने-अपने घरों में बैठे लोग

वहीं से कभी-कभार

टेलीफोन के जरिए अड़ोस-पड़ोस

की तलाशी लेते रहते हैं

पर चेहरे पर एक मुस्कान चिपकी रहती है

जो एक-दूसरे को कह देती है-

“हम स्वस्थ हैं और सानंद

और यह भी की तुम्हें पहचानते हैं, ख़ुश रहो”,


यहां तक भी ठीक है

पर अजीब लगता है कि

घरु ज़रूरतों के मामले में

सब के सब आत्मनिर्भर और

बढ़िया प्रबंधक हो गए है

पुरानी बस्ती में कोई दिन नहीं जाता था

की बड़ी फज़र की कुंडी नहीं खटखटाई जाती

और कोई बच्चा हाथ में कटोरी लिए नहीं कहता-

‘बुआ, मां ने चाय-पत्ती मंगाई है’

किसी के यहां आटा खुट जाता

और कभी ऐन छौंक से पहले

प्याज, लहसुन या अदरक की गांठ की मांग होती


होने पर बराबर दी जाती

चाहे कुढ़ते-बड़बड़ करते हुए

पर यह कुढ़न दूसरे या तीसरे दिन ही

आत्मीय आवाज़ में बदल जाती

जब जाना पड़ता कहते हुए

भाभी! देख थोड़ी देर पहले ही खत्म हुआ दूध

और फिर आ गए हैं चाय पीने वाले


रोज़मर्रा की ऐसी मांगा-टूंगी की फेहरिस्त में

और भी कई चीज़ें शामिल रहतीं

जैसे तुलसी के पत्ते या कढ़ी-नीम

बेसन-बड़े भगोने, बाम की शीशी

और वक़्त पड़ने पर दस-बीस रुपए भी

और इनके साथ ही

आपसी सुख-दुःख भी बंटता रहता

जो इस पृथ्वी का दिया होता प्राकृतिक

और दुनिया के हत्यारों का भी


पर इस कॉलोनी में लगता है

सभी घरों में अपने-अपने बाजार हैं

और बैंकें भी

पर नींबू शायद ही मिले

हां! नींबू एक सुबह मैं इसी को मांगने दो-तीन घर गया

पद्मा जी, निर्मला जी, आशा जी के घर तो होने ही थे

नींबू क्योंकि इसके पेड़ भी है उनके यहां

पर हर जगह से ‘नहीं है’ का टका-सा जवाब मिला

मैंने फोन भी किए

दीपा जी ने तो यहां तक कह दिया

‘क्यों मांगते हैं आप मुझसे नींबू’

मै क्या जवाब देता

बुदबुदाया- इतने घर और एक नींबू तक नहीं. 


उज्जैन फोन लगाकर

कमा को बताया यह वाकया

वहीं से वह बड़बड़ाई

वहां मांगा-देही का रिवाज नहीं

समझाया था पहले ही

फिर भी तुम बाज नहीं आए आदत से अपनी

वहां इंदौर में नींबू मांगकर तुमने

यहां उज्जैन में मेरी नाक कटवा ही दी

हंसी आई मुझे अपनी नाक पर हाथ फेरते

जो कायम मुकम्मल थी और साबूत भी.

(देवताले जी की जयंती पर 7 नवंबर 2022 को न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग) 

Wednesday, November 2, 2022

जॉर्ज बर्नार्ड शॉ: खुद को दूसरा महात्‍मा कहा तो गुरुदेव को लिखा स्टूपेंद्रनाथ बेगोर

 
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ भारतीय पाठकों के लिए नया नाम नहीं है. महात्‍मा गांधी के प्रति सम्‍मान हो, गुरुदेव रवींद्रनाथ के प्रतीक चरित्र को अपने एक नाटक में ‘स्टूपेंद्रनाथ बेगोर’ का नाम देना हो या मुंबई यात्रा के दौरान ब्रिटिश सरकार की आलोचना करना. बर्नार्ड शॉ का भारत से कई-कई रूपों में जुड़ाव  है. ऐसे समय में जब साहित्‍य में पुरस्‍कारों को लेकर तमाम तरह के आरोप-प्रत्‍यारोप लगते रहते हैं तब यह जानकार अचरज ही होगा कि बर्नार्ड शॉ ने नोबल पुरस्‍कार स्‍वीकार करने का जवाब देने में सात दिनों का समय ले लिया था. अन्‍यथा तो नाइटहुड की उपाधि सहित कई पुरस्‍कार वे लेने से इंकार कर चुके थे.


बर्नार्ड शॉ के समूचे जीवन को देखा जाए तो उनका ही एक कथन उन्‍हीं पर लागू होता प्रतीत होता है. यह कथन है, ‘सफलता का रहस्य है बड़ी संख्या में लोगों को नाराज करना.’ कठोर शब्‍दों के कारण बर्नार्ड शॉ से लोग नाराज हुए या नहीं यह अलग बात है मगर बेबाकी से लिखने और जीने के अंदाज ने समूची दुनिया को उनका मुरीद बना दिया है. जब हम जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के बारे में जानना शुरू करते हैं तो सबसे पहले यही तथ्‍य सामने आता है कि  ‘सेंट जॉन’, ‘मेन एंड सुपरमेन’, ‘आर्म्‍स एंड मेन’ के लेखक शॉ दुनिया के पहले ऐसे सर्जक थे जिन्‍हें नोबल और ऑस्‍कर पुरस्‍कार मिले हैं.


ऐसे जॉर्ज बर्नार्ड शॉ को हम नाटककार व उपन्‍यासकार, राजनीतिज्ञ मानवतावादी लेखक के रूप में जानते हैं. उनका जन्‍म आयरलैंड के डबलिन में 26 जुलाई 1856 को हुआ था. साहित्यिक रूचियों के चलते में इंग्लैंड आ गए थे और वहीं के हो कर रह गए. उनके लेखन में तंज और अपमानजनक शब्‍दों का प्रयोग जीवन की पथरीली राहों का प्रभाव हो सकता है. जैसे कि लेखन के बारे में उन्‍होंने अपनी इसी शैली में कहा है:


“जीवन यापन के लिए साहित्य को अपनाने का कारण यह था कि पाठक अपने लेखक को देखते नहीं हैं. इसलिए उसके पहनावे से जज नहीं करते हैं. व्यापारी, डॉक्टर, वकील या कलाकार बनने के लिए साफ व उनके लिए तय कपड़े पहनने पड़ते और अपने घुटने और कोहनियों से काम लेना छोड़ना पड़ता. साहित्य ही एक ऐसा सभ्य पेशा है जिसकी अपनी कोई पोशाक नहीं है, इसीलिए मैंने इस पेशे को चुना है.”


1880 के बाद से लेकर उनके देहांत तक और बाद में भी बर्नार्ड शॉ के विचारों ने इंग्‍लैंड ही नहीं पूरी दुनिया की राजनीति व जीवन को प्रभावित किया है. उनका निधन 2 नवंबर 1950 को हुआ था. 94 वर्ष के अपने लंबे जीवन में उन्होंने साठ से अधिक नाटक लिखे. इन नाटकों में मैन एंड सुपरमैन (1902), पाइग्मेलियन (1913) और सेंट जॉन (1923) प्रमुख शामिल हैं. सेंट जॉन के लिए शॉ को 1925 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. जबकि नोबेल मिलने के 13 साल बाद 1939 में फिल्‍म ‘पाइग्मेलियन’ का स्‍क्रीन प्‍ले लिखने के लिए ऑस्‍कर अवॉर्ड मिला. ऑस्कर हासिल करते वक़्त उनकी उम्र 82 साल थी.


सम्‍मान और पुरस्‍कारों को नकारने वाले बर्नार्ड शॉ ने नोबल पुरस्‍कार भी आसानी से नहीं लिया था. किस्‍सा कुछ यूं है कि नोबल पुरस्कार को पचीस वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में 1925 में समारोह हुआ. उस वर्ष का पुरस्कार बर्नार्ड शॉ को दिया गया था. उनसे तीन वर्ष पहले ही आयरलैंड के प्रसिद्ध कवि और नाटककार डब्‍ल्‍यूबी यीट्स को यह पुरस्कार मिल चुका था. इसलिए आयरलैंड के रचानाकार को इतनी जल्‍दी नोबल देने पर कटाक्ष किए गए थे. जब बर्नार्ड शॉ के पास पुरस्कार की सूचना भेजी गई तो उन्‍होंने एक सप्ताह तक स्वीडिश एकेडमी को जवाब ही नहीं भेजा. कयास लगाए गए कि बर्नार्ड शॉ यह पुरस्‍कार नहीं लेंगे. कुछ अखबारों ने जवाब देने में देरी करने पर बर्नार्ड शॉ की आलोचना भी की. हालांकि, बर्नार्ड शॉ ने, मुझे और कीर्ति की आवश्‍यकता नहीं है, कहते हुए पुरस्‍कार ग्रहण किया और उससे प्राप्‍त धन को स्‍वीकार न करते हुए स्वीडन और ब्रिटेन के बीच साहित्यिक साझेदारी के प्रोत्साहन के लिए रख दिया था. इसी तरह, ऑस्‍कर को भी उन्‍होंने स्‍वयं का अपमान कहा था.


बर्नार्ड शॉ का यह तीखा व्‍यवहार कई लोगों के साथ देखा गया. वे आमतौर पर खतों के जवाब देना पसंद नहीं करते थे, क्‍योंकि उनका मानना था कि अधिकांश पत्र किसी सम्‍मान, किसी कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आते थे. विवियन इलियट ने अपनी पुस्‍तक ‘डियर मिस्‍टर शॉ’ में लिखा है कि 94 वर्ष के जीवनकाल में शॉ को ढ़ाई लाख से ज्‍यादा पत्र मिले हैं. पत्रों के जवाब के मामले में उनके कुछ खास नियम थे जैसे, वे लंबे पत्र नहीं पढ़ते थे. वे अपने प्रकाशित विचारों पर खत में बात नहीं करते थे. वे किसी लेखक की अप्रकाशित पांडुलिपी नहीं पढ़ते थे, न किसी को लेखन के बारे में सलाह देते थे.


जहां तक भारत से संबंध की बात है तो बर्नार्ड शॉ अहिंसा के अग्रदूत महात्‍मा गांधी के अनन्‍य प्रशंसकों में से एक थे. जब शॉ से गांधी के प्रभाव के बारे में पूछा गया तो उन्‍होंने तपाक से उत्‍तर दिया था, ‘क्‍या आप किसी से हिमालय के प्रभाव के बारे में पूछेंगे?’ 1933 में समुद्री यात्रा के दौरान जॉर्ज बर्नार्ड शॉ अपनी पत्‍नी के साथ मुंबई आए थे. इस छोटी यात्रा के दौरान वे गांधी जी से मिल नहीं सके थे क्‍योंकि उस समय गांधी जी यरवदा जेल में कैद थे. बाद में शॉ की लंदन में गांधी से मुलाकात हुई थी. गांधी जी की इस यात्रा के दौरान बर्नार्ड शॉ ने स्‍वयं को दूसरा महात्‍मा कहा था.


बर्नार्ड शॉ और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के रिश्‍ते की शुरुआत भी शॉ के कटु व्‍यवहार से हुई थी. गुरुदेव के गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद से प्रख्‍यात कवि डब्‍ल्‍यू.बी. यीट्स बेहद प्रभावित हुए जबकि शुरुआत में गुरुदेव को लेकर शॉ की राय ठीक नहीं थी. उन्‍होंने वर्ष 1919 में उन्होंने अपनी एक नाटिका के कवि चरित्र को ‘स्टूपेंद्रनाथ बेगोर’ का नाम दिया था. संदर्भ बताते हैं कि टैगोर के पुत्र रतींद्रनाथ ने ‘ऑन द एजेस ऑफ़ टाइम’ में शॉ के साथ हुई मुलाकात का जिक्र करते हुए लिखा था, “एक शाम हम सभी सिन्क्लेयर द्वारा दिए गए रात्रिभोज में आमंत्रित थे. पिताजी गुरुदेव बर्नाड शॉ के पास बैठे थे. सभी लोगों को इस बात की हैरत थी कि शॉ एकदम चुपचाप बैठे थे. सारी बातचीत पिताजी को ही करनी पड़ रही थी. उनसे हमारी अगली मुलाक़ात क्वींस हॉल में हुई. संगीत सभा के अंत में जब हम हॉल से बाहर निकल रहे थे तो किसी ने अचानक पिताजी का हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर घुमाते हुए कहा, “क्या आपको मेरी याद है? मैं बर्नाड शॉ हूं.”


इन दो मुलाकातों के बाद शॉ में टैगोर के प्रति मैत्री भाव पैदा हो गया और दोनों के बीच कई सालों तक पत्रों के आदान-प्रदान का सिलसिला चला.


ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्‍टन चर्चिल को लेकर बर्नार्ड शॉ का एक व्‍यंग्‍य संवाद खासा चर्चित हुआ था. कहा जाता है कि बर्नार्ड शॉ ने पीएम चर्चिल अपने एक नाटक के शो के दो टिकट भेजते हुए पर कहा था कि आप अपने एक मित्र के साथ आमंत्रित हैं, यदि आपका कोई मित्र हो. यह चर्चिल के अपनी राजनीतिक कार्यपद्धति के साथ अकेला होने पर तंज था. चर्चिल ने भी मजेदार जवाब लिख भेजा कि वे पहले शो में नहीं आ सकते हैं, दूसरे शो में आएंगे यदि दूसरे शो तक नाटक चला तो.


हम अक्‍सर अंग्रेजी वर्णमाल और ग्रामर को लेकर मजाक बनाते हैं कि यहां जरा से हेरफेर में शब्‍द का अर्थ बदल जाता है मगर उच्‍चारण में बहुत बारीक अंतर को समझना मुश्किल होता है. जैसे, अंग्रेजी में दो देयर, दो एडवाइज, दो टू हैं. बहुत कम लोगों को पता होगा कि अंग्रेजी को इस चक्‍कर से बचाने के लिए बर्नार्ड शॉ ने एक वर्णमाला की पैरवी की थी. इस शॉ वर्णमाला में 40 अक्षर हैं. इस वर्णमाला में रोमन में अंग्रेजी की वर्तनी (स्पेलिंग) की उलझन का समाधान है. इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए बर्नार्ड शॉ ने अपनी वसीयत में धन की व्यवस्था की थी. उनका जोर था कि वर्णमाला में अक्षरों को ध्‍वन्यात्मक होना चाहिए. ये वर्ण लैटिन वर्णमाला से अलग हो ताकि भ्रम की स्थिति न बने.


बर्नार्ड शॉ ने मृत्‍यु के 16 साल पहले शाकाहार को अपना लिया था. बाद में उन्‍होंने शाकाहार की पैरवी करते हुए मांसाहारियों के लिए कटु शब्‍दों का इस्‍तेमाल किया. यहां तक कि बीमार होने पर डॉक्‍टरों ने मांस सूप लेने को कहा तो उन्‍होंने इस सलाह का भी मखौल उड़ाया और कहा कि मेरी अंतिम यात्रा में पशुओं, मुर्गों, बकरी को शामिल करना और उनके गले में पट्टी बांधना कि अपनी जान बचाने के लिए इस इंसान ने हमारी जान नहीं ली. हालांकि, तथ्‍य यह भी है कि उन्‍होंने लाखों लोगों की जान लेने वाले हिटलर, मुसोलिनी जैसे तानाशाहों को सही भी करार दिया था.


शॉ के जीवन के ऐसे तमाम पहलुओं पर भारी है उनके विचार और लेखन. कुछ विचार यूं हैं:


  • कभी सुअरों के साथ कुश्ती मत लड़िए. आप गंदे भी होते हैं और इस लड़ाई का मजा भी सुअर को ही आता है.

  • दुनिया की सबसे बड़ी समस्या यह है कि मूर्ख और कट्टरपंथी खुद को लेकर एकदम दृढ़ होते हैं और बु्द्धिमान लोग संदेह से भरे होते हैं.

  • तुम चीजें देखते हो; और कहते हो, ‘क्यों?’ लेकिन मैं उन चीजों के सपने देखता हूं जो कभी थीं ही नहीं; और कहता हूं ‘क्यों नहीं?

  • सफलता कभी गलती ना करने में नहीं होती है बल्कि एक ही गलती दोबारा ना करने में निहित होती है.

  • कभी भी किसी बच्चे को वो किताब पढ़ने को मत दीजिये जो आप खुद नहीं पढेंगे.

  • जानवर मेरे दोस्त हैं और मैं अपने दोस्तों को नहीं खाता.

  • जो अपना दिमाग नहीं बदल सकते वे कुछ भी नहीं बदल सकते.

  • आज अध्‍ययन करना सब जानते हैं, पर क्‍या अध्‍ययन करना चाहिए यह कोई नहीं जानता.

  • जब आदमी बाघ का शिकार करता है तो उसे खेल कहता है; जब बाघ इंसान का शिकार करना चाहता है तो इंसान इसे क्रूरता कहता है.

  • सत्ता व्यक्ति को भ्रष्ट नहीं बनाती, हालांकि, यदि मूर्ख सत्ता में आ जाते हैं तो वे सत्ता को भ्रष्ट बना देते हैं.

  • स्वतंत्रता का अर्थ जिम्मेदारी है. इसीलिए ज्यादातर लोग इससे डरते हैं.

  • जिस आदमी के दांत में दर्द होता है, वो सोचता है कि हर कोई जिसके दांत सही हैं, खुश है. गरीबी से त्रस्‍त व्‍यक्ति अमीरों के बारे में यही गलती करता है.

  • एक सज्जन व्यक्ति वह है जो दुनिया से जितना लेता है उससे अधिक देता है.

  • बहुत कम लोग साल में दो-तीन बार से ज्यादा सोचते हैं; मैंने हफ्ते में एक-दो बार सोच कर खुद की एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा बना ली है. 
(शॉ की पुण्‍यतिथि 2 नवंबर 2022 को न्‍यूज 18 में प्रकाशित) 

Tuesday, October 25, 2022

जिंदगी नोट्स: यूं होता है तो होता क्‍यूं है?


ऐसा क्‍यों होता है कि कुछ लोग बेहद निकट होते है। इतने निकट कि जिनके बिना एक दूसरे के अस्तित्‍व पर शक होता है। वो गाना है न, देखे बिना करार न था, टाइप।

फिर एक दिन वे गुम हो जाते हैं। कपूर जैसे। कभी गंध छूट जाती है पीछे, कभी सोचना पड़ता है उनके बारे में। 

सोचो तो अचरज होता है, अच्‍छा वे भी थे!

लगता है, जिस तरह हम याद करते हैं, साथ के रूप में, सुख-दु:ख के साझेदार के रूप में, गुजरे लम्‍हों के भागीदार के रूप में, याद उन्‍हें भी तो आती होगी? क्‍या वे भी ठिठकते है किसी पल यह सोच कर कि कुछ पीछे छूट तो नहीं गया?

सोचता हूं, किसी रात उनकी भी तो नींद टूटती होगी। यूं ही। तब क्‍या वे भी सोचते होंगे अपनी पोटली में क्‍या रख लाए और क्‍या छोड़ आए?

जैसे, बही खाते मिलाते हैं, जैसे हम जांचते रहते हैं अपने दोषों को, क्‍या वे भी कभी जांचते होंगे?

सोचते होंगे तो क्‍या मिलने को, बतियाने को बेकरार न होते होंगे?  

क्‍या पीछे छूट गई सुवास उन्‍हें बार-बार बाग खिलाने को मजबूर नहीं करती होगी?

जैसा सोचता हूं मैं, जानता हूं, वैसा सोचते हैं कई लोग। फिर वे ही क्‍यों नहीं सोचते वैसा, जैसा दूसरे सोचते हैं उनके बारे में?

ऐसा क्‍यों होता है कि लौट आना हर बार चले जाने से ज्‍यादा मुश्किल होता है? 

जो जाने की हिम्‍मत रखते हैं, वे लौट आने का रास्‍ता क्‍यों नहीं जानते हैं?

लगता था कि जिनके बिना एक कदम भी चल नहीं पाएंगे हम और अब सोचें तो अनुभव होता है कितने मील दूर चले आए हैं। क्‍या वे न सोचते होंगे ऐसा?  

और जब-जब टूटने लगता है ऐसी किसी भी बात से विश्‍वास तब ऐसा क्‍यों होता है कि कोई एक पंक्ति, कोई एक बात, कोई एक घटना, कोई एक व्‍यक्ति फिर से उम्‍मीद का एक दीया जला जाता है। और चुपचाप जली लौ भीतर उजास फैलाने लगती है।

रूकते-रूकते हम फिर चलने लगते हैं। गिरते-गिरते संभलने लगते हैं।

फिर भी लगता है, संभलते-संभलते पुराने सहारे क्‍यों विस्‍मृत होने लगते हैं? एक फोन नंबर डायल करने जितनी दूरी भी तय क्यों नहीं हो पाती है?


Tuesday, October 18, 2022

पहली मुलाकात में अज्ञेय को देख निराला क्‍यों बोले, जरा सीधे खड़े हो जाओ


पग-पग विष पान किया, हारे नहीं बने महाप्राण निराला’ पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के समूचे जीवन वृत को एक वाक्‍य में कहना हो तो यही पंक्ति सूझेगी. छायावादी कविता के एक स्‍तंभ निराला केवल कविताओं के लिए याद किए जाएं तो यह उनके साथ अन्‍याय होगा. उन्‍होंने हिंदी कविता को छंदमुक्‍त करने का ऐतिहासिक कार्य तो किया लेकिन गद्य को पढ़ेंगे तो जानेंगे कि अपने समय को किस तरह उन्‍होंने देखा और किस आशावाद के साथ साहित्‍य में रच दिया. तकलीफें जिनका स्‍वभाव न बदल सकीं. जीवन का विष पान करते रहे मगर दुनिया को देते रहे.


15 अक्‍टूबर उन्‍हीं निराला की पुण्‍यतिथि है. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में 21 फरवरी 1899 में हुआ था. जीवन का उत्तरार्द्ध इलाहाबाद में बीता. जहां 15 अक्टूबर 1961 को उन्‍होंने देह त्‍यागी. माता ने पुत्र-प्राप्ति की कामना से सूर्य का व्रत किया था और संयोग से उनका जन्म भी रविवार को हुआ था, अतः उनका नाम सूर्यकुमार रखा गया. इनकी मां तीन वर्ष की आयु में ही उन्हें असहाय छोड़कर परलोक सिधार गई. परिस्थितियों के कारण निराला नवीं कक्षा से आगे शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके. स्वाध्याय के बल पर ही उन्होंने बांग्‍ला, संस्कृत और अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया.


तेरह-चौदह वर्ष की आयु में निराला का विवाह मनोहरा देवी से हुआ, परंतु दाम्पत्य सुख का भाग्‍य नहीं था. सन् 1918 में फैली महामारी में पत्‍नी का देहांत हो गया. उस समय उनकी दो संतान थीं. एक पुत्री और दूसरा पुत्र. थोड़े दिनों बाद पुत्र की भी मृत्यु हो गई. बेटी सरोज 19 वर्ष की अवस्था में सन् 1935 में चल बसी. स्वजनों की मृत्यु विशेषतः पुत्री वियोग के आघात ने उन्हें फक्कड़ और दार्शनिक बना दिया. बेटी के निधन पर लिखा गया ‘सरोज स्‍मृति’ हिंदी का सर्वश्रेष्‍ठ शोक गीत माना गया है. यही समय निराला के लेखन में दिशा परिवर्तन का प्रस्‍थान बिंदु भी माना जाता है.


निराला स्वभाव से उन्मुक्त और किसी भी प्रकार का प्रतिबंध न मानने वाले कवि थे. अतः उन्होंने काव्य के लिए छंद को आवश्यक नहीं माना. विरोध सहते हुए भी उन्होंने मुक्त छंद का प्रयोग किया. हिंदी कविता को छंद मुक्त करने का श्रेय निराला को ही है. जिस समय हिंदी लेखक समाज मात्रिक और वर्णिक छंद रच रहे थे तब निराला ने काव्‍य को छंद मुक्‍त्‍ किया. बिना छंद को साधे छंद मुक्ति कहां संभव हो सकती थी भला?

लेकिन निराला महाप्राण क्‍यों हुए यह जानना है तो आपको उनका गद्य भी पढ़ना चाहिए. उन्होंने कविता के अलावा काफी कुछ लिखा है- कहानी, उपन्यास, आत्मकथात्मक गद्य, निबंध. निराला ने गद्य को जीवन संग्राम की भाषा कहा था. और उनके लेखों, संपादकीय टिप्पणियों और उपन्यासों में जाति-व्यवस्था, किसान आंदोलन, स्त्रियों की दशा आदि पर उनके विचारों को पढ़ कर निराला को जाना जा सकता है. टैगोर, गांधी, नेहरू से असहमति जताना हो साहित्‍यकारों की आलोचना निराला का अंदाज ही निराला था.


कैसा था यह अंदाज यह साहित्‍यकारों के संस्‍मरणों से समझा जा सकता है. अज्ञेय अपने संस्मरण ‘वसंत का अग्रदूत’ में लिखते हैं, ‘मैं निराला के पहले दर्शन के लिए इलाहाबाद में पंडित वाचस्पति पाठक के घर जा रहा था तो देहरी पर ही एक सींकिया पहलवान के दर्शन हो गए जिसने मेरा रास्ता रोकते हुए एक टेढ़ी उंगली मेरी ओर उठाकर पूछा, ”आपने निरालाजी के बारे में ‘विश्वभारती’ पत्रिका में बड़ी अनर्गल बातें लिख दी हैं.” यों ‘रिपोर्टें’ सही थीं. ‘विश्वभारती’ पत्रिका में मेरा एक लंबा लेख छपा था. आज यह मानने में भी मुझे कोई संकोच नहीं है कि उसमें निराला के साथ घोर अन्याय किया गया था. अब यह भी एक रोचक व्यंजना-भरा संयोग ही है कि सींकिया पहलवान से पार पाकर मैं भीतर पहुंचा तो देखा कि एक चौकी के निकट आमने-सामने निराला और ‘उग्र’ बैठे थे.


उग्रजी से मिलना पहले भी हो चुका था; मेरे नमस्कार को सिर हिलाकर स्वीकार करते हुए उन्होंने निराला से कहा, ”यह अज्ञेय है.”


निराला ने एक बार सिर से पैर तक मुझे देखा. मेरे नमस्कार के जवाब में केवल कहा, ”बैठो.”

मैं बैठने ही जा रहा था कि एक बार फिर उन्होंने कहा, ”जरा सीधे खड़े हो जाओ.”

मुझे कुछ आश्चर्य तो हुआ, लेकिन मैं फिर सीधा खड़ा हो गया. निराला भी उठे और मेरे सामने आ खड़े हुए. एक बार फिर उन्होंने सिर से पैर तक मुझे देखा, मानो तौला और फिर बोले, ”ठीक है.” फिर बैठते हुए उन्होंने मुझे भी बैठने को कहा. मैं बैठ गया तो मानो स्वगत-से स्वर में उन्होंने कहा, ”डौल तो रामबिलास जैसा ही है.”


रामविलास (डॉ. रामविलास शर्मा) पर उनके गहरे स्नेह की बात मैं जानता था, इसलिए उनकी बात का अर्थ मैंने यही लगाया कि और किसी क्षेत्र में न सही, एक क्षेत्र में तो निरालाजी का अनुमोदन मुझे मिल गया है. मैंने यह भी अनुमान किया कि मेरे लेख की ‘रिपोर्टें’ अभी उन तक नहीं पहुंची या पहुंचाई नहीं गई हैं.


शिवमंगल सिंह सुमन के साथ निराला से हुई भेंट का जिक्र करते हुए अज्ञेय लिखते हैं कि दोनों के मन में यह ग्‍लानि थी कि निराला अपने लिए जो भोजन बना रहे थे वह सारा का सारा उन्होंने हमारे सामने परोस दिया और अब दिन-भर भूखे रहेंगे. लेकिन में यह भी जानता था कि हमारा कुछ भी कहना व्यर्थ होगा- निराला का आतिथ्य ऐसा ही जालिम आतिथ्य है. सुमन ने कहा, निरालाजी, आप नहीं खाएंगे तो हम भी नहीं खाएंगे.”


निरालाजी ने एक हाथ सुमन की गर्दन की ओर बढ़ाते हुए कहा, “खाओगे कैसे नहीं? हम गुद्दी पकड़कर खिलाएंगे.”

सुमन ने फिर हठ करते हुए कहा, “लेकिन, निरालाजी, यह तो आपका भोजन था. अब आप क्या उपवास करेंगे?’ निराला ने स्थिर दृष्टि से सुमन की ओर देखते हुए कहा, “तो भले आदमी, किसी से मिलने जाओ तो समय असमय का विचार भी तो करना होता है.” और फिर थोड़ा घुड़ककर बोले “अब आए हो तो भुगतो.”


अज्ञेय लिखते हैं, हम दोनों ने कटहल की वह भुजिया किसी तरह गले से नीचे उतारी. बहुत स्वादिष्ट बनी थी, लेकिन उस समय स्वाद का विचार करने की हालत हमारी नहीं थी.जब हम लोग बाहर निकले तो सुमन ने खिन्न स्वर में कहा, “भाई, यह तो बड़ा अन्याय हो गया.”


अज्ञेय ने कहा, “इसीलिए मैं कल से कह रहा था कि सवेरे जल्दी चलना है, लेकिन आपको तो सिंगार-पट्टी से और कोल्ड क्रीम में फुरसत मिले तब तो.”

निराला के निराले आतिथ्‍य के बारे में महादेवी वर्मा ने लिखा है, ऐसे अवसरों की कमी नहीं जब वे अकस्मात् पहुंच कर कहने लगते थे कि इक्के पर कुछ लकड़ियां, थोड़ा घी आदि रखवा दो. अतिथि आए हैं, घर में सामान नहीं है. उनके अतिथि यहां भोजन करने आ जाएं, सुनकर उनकी दृष्टि में बालकों जैसा विस्मय छलक आता है. जो अपना घर समझकर आए हैं, उनसे यह कैसे कह दें कि उन्हें भोजन के लिए दूसरे घर जाना होगा. भोजन बनाने से लेकर जूठे बर्तन मांजने तक का काम वे अपने अतिथि देवता के लिए सहर्ष करते हैं.


संवेदनशीलता ऐसी कि सुमित्रानंदन पंत दिल्ली में टाइफाइड ज्वर से पीड़ित थे. इसी बीच किसी समाचार पत्र ने उनके स्वर्गवास की झूठी खबर छाप डाली. निराला जी यह समाचार जान कर लड़खड़ा कर सोफे पर बैठ गए. महादेवी लिखती हैं, उनकी झुकी पलकों से घुटनों पर चूने वाली आंसू की बूंदें बीच-बीच में ऐसे चमक जाती थीं मानो प्रतिमा से झड़े जूही के फूल हों. यह सुनकर कि मैंने ठीक समाचार जानने के लिए तार दिया है, वे व्यथित प्रतीक्षा की मुद्रा में तब तक बैठे रहे जब तक रात में मेरा फाटक बंद होने का समय न आ गया.


सबेरे चार बजे फाटक खटखटा कर जब उन्होंने तार के उत्तर के संबंध में पूछा तब महादेवी को पता चला कि वे रात भर पार्क में खुले आकाश के नीचे ओस से भीगी दूब पर बैठे सवेरे की प्रतीक्षा करते रहे हैं.


एक बार निराला ने गेरू मंगवाया तो महादेवी कारण पूछ बैठीं. उन्‍होंने जवाब दिया ‘अब हम सन्यास लेंगे.’ महादेवी कहती हैं, इस निर्मम युग ने इस महान कलाकार के पास ऐसा क्या छोड़ा है जिसे स्वयं छोड़कर यह त्याग का आत्मतोष भी प्राप्त कर सके. तभी वसंत ने परिहास की मुद्रा में कहा, ‘तब तो आपको भिक्षा मांगने की आवश्यकता पड़ेगी.’


खेद, अनुताप या पश्चात्ताप की एक भी लहर से रहित विनोद की एक प्रशांत धारा पर तैरता हुआ निराला का उत्तर आया, ‘भिक्षा में मिला तो अब भी खाते हैं.’


धनाभाव निराला के जीवन का विशिष्‍ट कष्‍ट कहा जाना चाहिए. वे फक्‍कड़ स्‍वभाव के थे, जो मिलता था वह औरों को देने में पल का समय न लगाते. क्‍या कोई जान पाएगा कि पैसा कमाने के लिए अनुवाद करने वाले, बिना नाम औरों के लेख सुधारने वाले निराला के मन में जीवन के ये कड़वे अनुभव तिल भर भी कड़वाहट नहीं भर पाए थे. बल्कि उनकी रचनाधर्मिता से साहित्‍य समृद्ध ही हुआ है. तभी तो महादेवी वर्मा ने लिखा है, जिसकी निधियों से साहित्य का कोश समृद्ध है उसने ‘भिक्षाटन’ कर जीवन-निर्वाह किया है, इस कटु सत्य पर, आने वाला युग विश्वास कर सकेगा, यह कहना कठिन है.


(न्‍यूज 18 हिंदी ब्‍लॉग में प्रकाशित)