रतलाम के प्रसिद्ध कवि देवव्रत जोशी ने अपनी एक कविता में एक ऐसी गीत लिखने की इच्छा जताई थी जिसे लोक गीत की तरह याद रखा जाए, लेखक को भुलाते हुए. ऐसी ही मछुआरों की कहानी का जिक्र विजयदान देथा भी किया करते थे. जिसमें अर्जेंटिना के मछुआरे चिली के सुविख्यात कवि पाब्लो नेरूदा का गीत गाते थे. मछुआरों को पता नहीं था कि गीत का लेखक कौन है. इसी तरह लोक को जीने और लोक को फिर नया रूप देने वाले बिज्जी की रचनाओं ने संसार की सारी सीमाओं को बौना साबित किया है. उन्हें जितना पढ़ा गया, उससे ज्यादा सुना गया. उनकी कथाएं याद रखी गईं, लेखक का विस्मृत करते हुए. लोक कथाएं उनकी कहानियों में फिर फिर जिंदा हो उठीं. तभी तो एक संकुचित कहे जाने वाले साहित्य समाज में एक भाषा (पंजाबी) की लेखिका अमृता प्रीतम दूसरी भाषा (राजस्थान की मारवाड़ी) के कथाकार बिज्जी के चरित्रों में अपना सच पाती हैं.
1 सितंबर 1926 के जन्मे विजयदान देथा का 87 वर्ष की उम्र में 10 नवंबर 2013 को देहांत हुआ था. लगभग 800 कहानियां लिखने वाले बिज्जी का रचना संसार ‘बातां री फुलवारी’, ‘उजाले के मुसाहिब’, ‘दोहरी जिंदगी’, ‘सपन प्रिया’, ‘महामिलन’, ‘त्रिवेणी’ में समाहित है. ‘समाज और साहित्य’, ‘गांधी के तीन हत्यारे’ आदि उनकी आलोचना पुस्तके हैं. रचनाधर्मिता का सम्मान करते हुए उन्हें पद्मश्री और साहित्य अकादमी सहित अन्य पुरस्कार प्रदान किए गए हैं.
बिज्जी के दादा जुगतीदान देथा राजस्थानी की डिंगल काव्य-धारा के सुप्रसिद्ध कवि थे. वहीं पिता सबलदान देथा पुश्तैनी चारणी काव्य-परंपरा के निपुण रचनाकार थे. छठी कक्षा में लिखी गई कविता बिज्जी के लेखकीय जीवन का आरंभ थी. जोधपुर के दरबार हाई स्कूल में रोज नई शरारतें बिज्जी की पहचान बन गई. हेड मास्टर ने पिटाई के लिए छड़ी उठाई तो बिज्जी ने उसे पकड़ कर रोक दिया. फलस्वरूप नवीं कक्षा में यह स्कूल छोड़ना पड़ा. वे राजस्थान में कहीं प्रवेश नहीं ले सकते थे तो पंजाब बोर्ड से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर उच्च शिक्षा के लिए जोधपुर लौटे. जसवंत कॉलेज में शिक्षा के दौरान सन् 1947 में उनका ‘उषा’ नामक प्रथम काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ. संदर्भ बताते हैं कि यह काव्य संग्रह एक रचनात्मक शरारत ही था. बिज्जी ने अपनी सहपाठिन उषा पाठक को संबोधित करते हुए इस काव्य संग्रह में सूर्योदय एवं संध्या का चित्रण करने वाली कविताएं लिखी थीं.
शरतचंद्र की एक किताब को 60-70 बार पढ़ा
जसवंत कॉलेज में अध्ययन के दौरान बिज्जी ने पहली बार शरत साहित्य पढ़ा. शरतचंद्र को पढ़ते हुए बिज्जी का जीवन बदल गया. अपने साक्षात्कार में बिज्जी ने कहा है कि उन्होंने शरतचंद्र की रचनाओं को 70-70 बार तक पढ़ा है. उन्हीं के शब्दों में वे शरत साहित्य का पारायण करते थे और हर बार उस पुस्तक को पढ़ कर नई प्रेरणा मिलती.
सन् 1959 में उन्होंने हिंदी छोड़कर राजस्थानी में लिखने का संकल्प लिया और अपने गांव बोरुंदा लौट आए. ‘बातां री फुलवाड़ी’ शीर्षक से लोक-कथाओं के पुनर्सृजन की उनकी यात्रा यहीं से आरंभ हुई. संवाद में वर्ष 2020 में प्रकाशित साक्षात्कार में प्रेम कुमार कई पहलुओं पर बात रखते हैं. इस साक्षात्कार में बिज्जी ने बताया कि जयपुर में उद्योग विभाग के तत्कालीन निदेशक त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी ने आठ हज़ार का ऋण मंजूर करवाया. उसी से गांव में प्रेस लगाई. बिजली नहीं थी. एक बड़ा-सा व्हील कबाड़ा–पट्टा लगाकर प्रेस मशीन चलाई. सन् 1962 की दीपावली पर ‘बातां री फुलवाड़ी’ का पहला भाग निकला. उस वक्त उन्होंने लिखने के मामले में मशीन से मुकाबला किया. सत्रह कम्पोजिटर और वे अकेले लेखक. सवेरे तीन बजे जागते. कम्पोजिटर नौ बजे तक आते तब तक वे बीस-पच्चीस पेज लिख लिया करते थे. होड़ लगी रहती कि कंपोजिंग पहले खत्म हो या बिज्जी का लिखना. लिखना पूरे दिन लगा रहता. दो गेली प्रूफ, फिर पेज प्रूफ, मशीन प्रूफ.
न लिखने से पहले सोचा, न लिखकर पढ़ा और न लिखकर कुछ काटा
बकौल बिज्जी न लिखने से पहले सोचा, न लिखकर पढ़ा और न लिखकर कुछ काटा. इधर छापे की मशीन थी, उधर कलम. मशीन के साथ मन से होड़ करते हुए सन् 1981 तक ‘बातां री फुलवाड़ी’ के चौदह भाग पूर्ण हुए. हर भाग में पांच-छह सौ पृष्ठ. आर्थिक कठिनाइयों की वजह से प्रेस बेचनी पड़ी. अगर न बेचनी पड़ती तो ‘बातां री फुलवाड़ी’ के तीस-चालीस भाग निकल जाते. इन्हीं 14 भागों में से एक ‘बातां री फुलवाड़ी’ के दसवें भाग पर 1974 में बिज्जी को राजस्थानी भाषा का पहला साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ.
‘बातां री फुलवाड़ी’ असल में राजस्थान की लोक कथाओं की पुनर्प्रस्तुति हैं. बिज्जी ने ताजगी के साथ गांवों में व्याप्त कथाओं को प्रस्तुत किया है. वे गांव-गांव, भटककर कथाओं को एकत्रित करते थे. वे गांवों और समारोह में ऐसी जगह जाते जहां महिलाएं इकट्ठी होती थीं. उनके बीच बैठ कर उनसे लोक कथाएं और उनकी बातें सुना करते थे. वे कहते थे एक महिला जब बहू बन कर दूसरे गांव आती है तो अपने साथ मायके की कथाएं, बातें, संस्कृति ले आती हैं. इस तरह वे महिलाओं के माध्यम से मारवाड़ की लुप्त हो रही लोक कथाओं को नया जीवन देने में कामयाब हुए हैं.इतना कि पंजाबी की लेखिका अमृता प्रीतम ने मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा की.
‘समकालीन भारतीय-साहित्य’ के बाईसवें अंक में गगन गिल के साथ साक्षात्कार में अमृता प्रीतम ने कहा था कि राजस्थान के लेखक हैं विजयदान देथा ‘बिज्जी’ लोक-कहानियों की सूरत में कहानी बयान करते हैं और बीच में कहीं एक स्तर पर वह ऐसी बात कह जाते हैं कि कहानी का सारा आयाम ही बदल जाता है. वह एकदम आज की कहानी हो जाती है. यह उनके पास बहुत खूबसूरत क्राफ्ट है, और यह सिर्फ क्राफ्ट ही नहीं है. इसके पीछे एक पूरी विचारधारा है, जो पुरानी बात कहते हुए भी उस कहानी को शाश्वत कर देती है- सारे समयों के लिए सच! अमृत प्रीतम ने कहा था कि अगर जबान की और स्थान की सरहद पर पांव रखकर लांघ जाऊं, तो सभी मेरे अपने हैं, जिन्होंने उस सच को छुआ है. मुझे आयन रैंड के किरदार कभी नहीं भूलेंगे. मुझे कजान जाकिस के किरदार नहीं भूल सकते. बहुत जगहों पर विजयदान देथा (बिज्जी) के भी नहीं.
अमृता प्रीतम से मिली प्रशंसा ने दिया निराश बिज्जी को संबल
इस प्रशंसा के बाद 17 दिसंबर 1985 को बिज्जी ने अमृता प्रीतम को एक पत्र लिखा था. ‘नवनीत’ में प्रकाशित इस पत्र में बिज्जी ने अमृता प्रीतम के आभार जताया है. वे लिखते हैं, आदरणीय अमृता प्रीतम, एक बार आकाशवाणी जयपुर के समारोह में मित्रों ने आग्रहपूर्वक आपके भाषण की टेप सुनाई. आपने मेरे लिए शुरुआत में कुछ पंक्तियां कहीं थीं. मैंने सोचा शिष्टाचार के नाते आपने मेरी प्रशंसा कर दी है. किसी प्रांत की धरती पर सांस लेते समय वहां के किसी एक साहित्यकार का बखान करना शिष्टाचार का तकाजा है. मैंने उसे भी गंभीरतापूर्वक नहीं लिया. हाड़-मांस व रक्त-मज्जा से बना है मेरा पुतला, लाख लेखक की मर्यादा का निबाह करूं, अपनी प्रशंसा से खुशी तो होती ही है, पर उसका प्रदर्शन करने, उसे भुनाने का मन नहीं करता. किंतु ‘गगन गिल के साथ साक्षात्कार पढ़कर तो आश्चर्य-चकित रह गया. ऐसा लगा कि मेरी मुर्दा देह में पांखें उग आई हों. गांव से जोधपुर बस में जा रहा था. बहुत ही उदास व गमगीन. आर्थिक संकट के पाटों से कुचला हुआ. ऐसा हताश मैं कभी नहीं हुआ था. हालांकि तीस-पैंतीस साल से आर्थिक संकट का ऐसा ही ढर्रा चल रहा है. पर इस बार कुछ बोझ असह्य-सा हो उठा था.
बिज्जी लिखते हैं, दूसरे साहित्यकारों व कलाकारों की विपदा से तुलना करके अपनी विपदा को अधिक विषम समझना, मुझे अपराध-सा महसूस होता है, पर इतना ज़रूर कह सकता हूं कि सृजन की भयावह राह पर मुझे भी कम सहन नहीं करना पड़ा. मैंने एक-एक अक्षर को विपदाओं की कोख से जन्म दिया है. किसी पर एहसान नहीं है, मेरे जीवन का अर्थ यही था, मैं इसके अलावा कुछ भी अन्य कर सकने के लिए अक्षम था. अपना रोना भी अच्छा नहीं लगता. यही तो सृजन की उर्वरा कोख है. पर उस दिन मायूसी नितांत असह्य होती जा रही थी. संकट की उस त्रासदी में आपकी पंक्तियों ने जैसे मेरे अंतस को अमृत से सराबोर कर दिया हो. दूसरे ही पल सारा क्लेश हवा हो गया. लगा कि हवा मेरी ही उड़ान का अनुकरण कर रही है. मुर्दे में प्राण फूंकने का मायना अच्छी तरह समझ में आया. यह अप्रत्याशित जीवन-दान मैं कभी बिसर नहीं सकूंगा. सूखते पौधे पर जैसे बादल ही फूट पड़ा हो. अभेद्य अंधकार से भरा अंतस अविलंंब जगमगा उठा. आप से मिलने के लिये मन बार-बार अबोध बच्चे की नाईं मचल उठा. यदि दो दिन बाद ही बीमार न हो गया होता तो अब तक आपसे मिलने का उत्साह साकार हो गया होता. पत्र न लिखकर स्वयं उपस्थित होता.
जैसे मिल गया सौ हाथियों जितना बल
अपने पत्र में बिज्जी ने साहित्य की राजनीति पर लिखा था कि हिंदी के अधिकांश बड़े लेखक नितांत व्यवसायी हैं. जब तक मुनाफे का सौदा नहीं होता, वे किसी साथी लेखक की प्रशंसा नहीं कर सकते. अपनी ही देह में दुबके रहते हैं. अपने सृजन की तुलना में उन्हें सारी दुनिया ही छोटी नजर आती है. उन्हें दोष नहीं देता, उनके संस्कार ही ऐसे हैं. अपने स्वार्थ के अलावा उन्हें चांद-सूरज भी नज़र नहीं आते. फिर भी इने-गिने सामान्य लेखकों ने, (नामवरी की दृष्टि से सामान्य) मर्मज्ञ पाठकों ने मुझे अपने हृदय में उछाह से स्थान दिया है, और वही मेरी एकमात्र अखूट पूंजी है. सूखे तृषित गले को आपने अपने स्तन से जो अमृत-पान कराया है- उसकी शुभ-सूचना तो आपके पास पहुंचा दूं- यत्किंचित कृतज्ञता तो प्रकट कर दूं. मेरे लिए आपकी यह सहज आत्मीय सराहना सर्वोच्च पुरस्कार है. जिससे मुझमें सौ हाथियों जितना बल संचरित हो गया. मेरा यह निश्छल आभार आपको अंगीकार करना ही होगा. शायद मुलाकात के समय मेरी वाणी इतनी मुखर नहीं हो पाती.
लिखने का आनंद कभी नहीं मिला
समझा जा सकता है कि मशीन की तरह लिखने वाले विजयदान देथा ने कथा के मर्म और संवेदना को कहीं भी मुरझाने नहीं दिया. यह एक लेखक का सबसे बड़ा तप है. जब अपने साक्षात्कार में प्रेम कुमार ने उनसे लेखन के सुख के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि लिखने में आनंद कभी नहीं मिला. लिखना सांस लेने की तरह चलता रहा. जैसे मोर का नाच, कोयल की कूक, सांस-पांव की गति सहज है – उसी तरह मेरे लिए लिखना सहज है. लिखते-लिखते धीरे-धीरे मैं ‘ग्रो’ करता गया. लिखने के बजाय पढ़ने से, दूसरों की रचनाएं पढ़ने से अधिक सुख मिलता है. कभी ऐसा नहीं सोचा कि लिखे बगैर मर जाता तो क्या होता पर ऐसा कई बार लगा कि इस कृति को बिना पढ़े मर जाता तो सद्गति न होती. चेखव, शरत, रवींद्र, उपनिषद आदि में कितनी पीढ़ियों का कैसा-कैसा अनुभव घुला है. लिखकर ऐसा महसूस नहीं होता.
बिज्जी यानी विजयदान देथा को पढ़ते हुए उनके जीवन संघर्ष के इन पहलुओं को याद रखते हैं तो पठन सुख में श्रद्धा का भाव स्वत: सम्मिलित हो जाता है.
(न्यूज 18 में 10 नवंबर को प्रकाशित ब्लॉग।)
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