आखिरकार, अदालत ने भी दिल्ली गैंगरेप के आरोपियों को दोषी ठहरा दिया और सजा की बारी आ गई है। दोषियों को फांसी मिले या उम्र कैद या कुछ राहत मिल जाए लेकिन यह सवाल अब तक बकाया है कि क्या इस घटना से समाज ने कोई सबक लिया? क्या ये सजा निर्भया के साथ हुए अमानवीय कृत्य जैसी घटनाओं को रोक पाएगी? उम्मीदें कई हैं लेकिन आशंकाएं नाउम्मीद कर देती हैं। आंकड़े इस निराशा को गहरा करते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो बलात्कार और छेड़छाड़ की घटनाओं में कमी आती लेकिन ये तो लगातार बढ़ रही हैं। अब तो छेड़छाड़ का विरोध भी भारी पड़ रहा है। गुरुवार को भोपाल के पास नसरूल्लागंज में पड़ोसी युवक द्वारा लगातार छेड़छाड़ के बाद दुष्कर्म का प्रयास करने 21 वर्षीय युवती ने खुद को बचाने के लिए आत्मदाह कर लिया। युवती गंभीर अवस्था में भोपाल रेफर की गई है। एसडीएम के समक्ष हुए बयान में युवती ने युवक पर लगातार परेशान करने और दुष्कर्म का प्रयास करने की बात कही है। ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ रही है। निर्भया की आखिरी ख़्वाहिश बताते हुए उसकी मां कहती है कि उसने बोला था सजा क्या उन्हें तो जिÞंदा जला देना चाहिए। अगर उन्हें फांसी की सजा हो जाती है तो शायद उसकी आखिरी इच्छा पूरी हो जाए। ऐसे में एक सजा से क्या सामाजिक बुनावट में कोई बदलाव आएगा? तो क्या निर्भया के अपराधियों को सजा मिलने से हिंदुस्तान के हालात बदलेंगे? क्योंकि ऐसे मामलों में सजा के प्रावधान तो कई थे। जैसे, कात्यायन ने कहा है कि बलात्कारी को मृत्युदण्ड दिया जाए। नारदस्मृति में बलात्कारी को शारीरिक दंड देने का प्रावधान है। कौटिल्य के मुताबिक दोषी की संपत्तिहरण करके कटाअग्नि में जलाने का दंड दिया जाना चाहिए। याज्ञवल्क्य सम्पत्तिहरण कर प्राणदंड देने को उचित बताते हैं। मनुस्मृति में एक हजार पण का अर्थदंड, निर्वासन, ललाट पर चिह्न अंकित कर समाज से बहिष्कृत करने का दंड निर्धारित करती है। तो क्या आज सख्त सजा से बदलाव की आस नहीं की जा सकती? निर्भया की मां उम्मीद करती है कि अगर दोषियों को सही मायने में सजा मिल जाती है, तो फर्क जरूर पड़ेगा। अपराधियों को फांसी दिए जाने का जनता में बढ़िया संदेश जाएगा। एक बार ऐसा करने से पहले लोगों के मन में ख़्याल तो जरूर आएगा कि हम करेंगे तो फंसेंगे। लगता तो नहीं है कि हिंदुस्तान बदल रहा है लेकिन बदलाव की थोड़ी सी झलक दिखती है। पहले बदनामी के डर से दुष्कृत्य पीड़िता को चुप रखा जाता था।अब इतना तो बदलाव हुआ है कि लोग आगे आने लगे हैं, कार्रवाई तुरंत होने लगी है, अभियुक्त पकड़े जाने लगे हैं और उन्हें समय से सजा दी जा रही है। असल में त्वरित न्याय प्रक्रिया भी कानून के सख्ती से पालन और अपराधों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उम्मीद की जाना चाहिए कि इस फैसले के बाद भी ऐसा ही होगा।
Friday, September 13, 2013
एक फैसले से समाज के बदल जाने की उम्मीद
आखिरकार, अदालत ने भी दिल्ली गैंगरेप के आरोपियों को दोषी ठहरा दिया और सजा की बारी आ गई है। दोषियों को फांसी मिले या उम्र कैद या कुछ राहत मिल जाए लेकिन यह सवाल अब तक बकाया है कि क्या इस घटना से समाज ने कोई सबक लिया? क्या ये सजा निर्भया के साथ हुए अमानवीय कृत्य जैसी घटनाओं को रोक पाएगी? उम्मीदें कई हैं लेकिन आशंकाएं नाउम्मीद कर देती हैं। आंकड़े इस निराशा को गहरा करते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो बलात्कार और छेड़छाड़ की घटनाओं में कमी आती लेकिन ये तो लगातार बढ़ रही हैं। अब तो छेड़छाड़ का विरोध भी भारी पड़ रहा है। गुरुवार को भोपाल के पास नसरूल्लागंज में पड़ोसी युवक द्वारा लगातार छेड़छाड़ के बाद दुष्कर्म का प्रयास करने 21 वर्षीय युवती ने खुद को बचाने के लिए आत्मदाह कर लिया। युवती गंभीर अवस्था में भोपाल रेफर की गई है। एसडीएम के समक्ष हुए बयान में युवती ने युवक पर लगातार परेशान करने और दुष्कर्म का प्रयास करने की बात कही है। ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ रही है। निर्भया की आखिरी ख़्वाहिश बताते हुए उसकी मां कहती है कि उसने बोला था सजा क्या उन्हें तो जिÞंदा जला देना चाहिए। अगर उन्हें फांसी की सजा हो जाती है तो शायद उसकी आखिरी इच्छा पूरी हो जाए। ऐसे में एक सजा से क्या सामाजिक बुनावट में कोई बदलाव आएगा? तो क्या निर्भया के अपराधियों को सजा मिलने से हिंदुस्तान के हालात बदलेंगे? क्योंकि ऐसे मामलों में सजा के प्रावधान तो कई थे। जैसे, कात्यायन ने कहा है कि बलात्कारी को मृत्युदण्ड दिया जाए। नारदस्मृति में बलात्कारी को शारीरिक दंड देने का प्रावधान है। कौटिल्य के मुताबिक दोषी की संपत्तिहरण करके कटाअग्नि में जलाने का दंड दिया जाना चाहिए। याज्ञवल्क्य सम्पत्तिहरण कर प्राणदंड देने को उचित बताते हैं। मनुस्मृति में एक हजार पण का अर्थदंड, निर्वासन, ललाट पर चिह्न अंकित कर समाज से बहिष्कृत करने का दंड निर्धारित करती है। तो क्या आज सख्त सजा से बदलाव की आस नहीं की जा सकती? निर्भया की मां उम्मीद करती है कि अगर दोषियों को सही मायने में सजा मिल जाती है, तो फर्क जरूर पड़ेगा। अपराधियों को फांसी दिए जाने का जनता में बढ़िया संदेश जाएगा। एक बार ऐसा करने से पहले लोगों के मन में ख़्याल तो जरूर आएगा कि हम करेंगे तो फंसेंगे। लगता तो नहीं है कि हिंदुस्तान बदल रहा है लेकिन बदलाव की थोड़ी सी झलक दिखती है। पहले बदनामी के डर से दुष्कृत्य पीड़िता को चुप रखा जाता था।अब इतना तो बदलाव हुआ है कि लोग आगे आने लगे हैं, कार्रवाई तुरंत होने लगी है, अभियुक्त पकड़े जाने लगे हैं और उन्हें समय से सजा दी जा रही है। असल में त्वरित न्याय प्रक्रिया भी कानून के सख्ती से पालन और अपराधों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उम्मीद की जाना चाहिए कि इस फैसले के बाद भी ऐसा ही होगा।
Monday, August 26, 2013
और लगेंगी पाबंदियां, कड़े होंगे पहरे
और नहीं बस अब और नहीं... ऐसा हमें कितनी बार कहना होगा और कितनी बार ऐसे ही चुप हर जाना होगा? यह सवाल केवल सरकार या प्रशासन से ही नहीं समाज से भी है। कुछ महीने पहले जब दिल्ली में निर्भया के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था, तो पूरा देश उबल पड़ा था। औरतों की सुरक्षा के सवाल पर हजारों युवा दिल्ली के राष्ट्रपति भवन के द्वार पर कई दिन तक जमे रहे थे। समाज में औरतों के दर्जे और पुरुषों की मानसिकता पर भी बहुत सारी बहसें चली थीं। ऐसे कानून बनाने की मांग भी उठी थी, जिससे बलात्कार के दोषियों को कड़ी सजा दी जा सके। लेकिन हुआ क्या? ऐसे मामलों की बाढ़ आ गई जैसे। हर तरफ से ऐसी ही मामलों की सूचनाएं। कहीं बेटियां घर में शिकार हुई तो कही सड़क पर भद्दी टिप्पणियों ने शर्मसार किया।
महिलाओं के साथ हिंसा और उत्पीड़न पुलिस के रोजनामचे में दर्ज होने वाले सामान्य अपराध से अलग है। यह सामाजिक पतन का गवाह है। पिछले दो दिन की खबरों पर ही गौर करिए। उत्तरी दिल्ली के कांझावाला में घर में 15 वर्षीय लड़की के साथ उसका 55 वर्षीय पिता दुष्कर्म करता रहा। पति-पत्नी का तलाक हो चुका है और बेटी पिता के साथ रहती थी। दूसरी घटना मुंबई कि जहां शुक्रवार देर शाम एक महिला पर हमला किया गया। वह महिला लोकल से जा रही थी तभी कुछ बदमाशों ने महिला पर तेजाब फेंकने की धमकी दी। साफ है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए सिर्फ कानून पर्याप्त नहीं है। यह ठीक है कि मुंबई पुलिस ने मुस्तैदी दिखाते हुए एक अपराधी को कुछ घंटे के भीतर ही पकड़ लिया, लेकिन सवाल है कि शाम छह-सात बजे जब वहशी ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं तब वह कहां होती है? क्या ऐसे मामलों में समाज मूक दर्शक ही बना रहेगा या पुलिस की तरह घटना के बाद पहुंच कर विरोध ही जताता रहेगा? जब सड़क पर या स्टेशन पर किसी महिला का अपमान होता है तब वहां खड़े लोग तमाशबीन क्यों बने रहते हैं? उसी समय विरोध और प्रतिकार का साहस कहां गया?
बलात्कार की घटनाओं को लेकर सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी जैसे तर्क बेमानी लगते हैं। असल में ऐसी घटनाओं के लिए पुरुषों की वह मानसिकता भी जिम्मेदार है, जो महिलाओं को न तो उनकी पारंपरिक घरेलू भूमिका से बाहर निकलते देखना चाहती है और न ही उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता को स्वीकार कर पा रही है। ऐसी घटनाओं का बुरा परिणाम यह होगा कि अन्य लड़कियों पर परिवार द्वारा तमाम तरह की पाबंदियां लाद दी जाएंगी। जैसे, अकेले घर से जाओ, शाम को मत निकलो, नौकरी मत करो, कॉलेज मत जाओ आदि। ऐसा हो भी रहा है। दिल्ली के निर्भया बलात्कार कांड के बाद जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आई थीं, उसी तरह की प्रतिक्रियाएं मुंबई की घटना के बाद भी आने लगी हैं। यह पूछा जा रहा हैं कि सांझ ढलने के बाद उस सुनसान इलाके में वह लड़की गई ही क्यों थी? घटना के बाद सोशल मीडिया हो या अनौपचारिक बातचीत माता-पिताओं ने बेटी की सुरक्षा को लेकर डर जाहिर करते हुए तमाम तरह के प्रतिबंध की पैरवी की। यह प्रतिबंध प्यार से लागू किए जाएं या डरा कर लेकिन वास्तविक रूप में उसी पुरूषवादी सोच को बढ़ावा देंगी कि महिलाओं को घर के काम करने चाहिए। वह पढ़े क्यों और बाहर काम करने क्यों निकले? काम करने के लिए पुरूष है। हालांकि बलात्कार के आंकड़े और घटनाएं कुछ और ही कहानी कहती हैं। आंकड़े बताते हैं कि सुनसान जगहों पर ही नहीं, बेटी हो या प्रौढ़ महिलाएं, वे अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। दुष्कर्म ज्यादातर घरों में होता है और अपराधी कोई रिश्तेदार या परिचित होता है। दरअसल, औरतों के साथ शारीरिक हिंसा और यौन उत्पीड़न के पीछे जो मानसिकता काम करती है, वह किसी सुनसान जगह या अवसर की तलाश में नहीं रहती। वह मानसिकता तो सरेराह, सभी के बीच महिलाओं को प्रताड़ित करती है। उसके निजत्व पर कब्जा जमा कर गुलाम बनाए रखने में यकीन करती है। हमें यह मानना होगा कि यह हमारे ही समाज की एक विकृति है और जब तक हम इसे दुरूस्त नहीं कर लेते आगे बढ़ती पत्नी, बहन या सहकर्मी तथा एक तरफा प्रेम प्रस्ताव अस्वीकार करती युवती पर हमले होते रहेंगे। यह सच स्वीकार नहीं कर लेते, तब तक हम इससे मुक्ति का रास्ता भी खोज नहीं पाएंगे। समाज को इस मानसिकता से मुक्त करवाना केवल कानून व्यवस्था का मामला नहीं है। सजग व तत्पर पुलिस और सख्त कानून दोनों बहुत आवश्यक हैं लेकिन हमें पूरे समाज की सोच को बदलने की मुहिम भी छेड़ना होगी। यह दोतरफा लड़ाई है। इसके कानूनी पक्ष को मजबूत करने के लिए जरूरी है कि बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामलों का निपटारा जल्दी हो। दूसरी तरफ, सामाजिक सुधारों के प्रति हमारा आग्रह ज्यादा प्रबल हो। यह हमारे समाज की विडंबना है कि 21 वीं सदी में भी नरेंद्र दाभोलकर को अंध विश्वास का विरोध करने के लिए जान गंवानी पड़ती है और महिलाओं को कुछ कुत्सित सोच वाले पुरूषों के कारण चार दीवारों में कैद होना पड़ता है। एक बार फिर उम्मीद युवाओं से ही है। वे ही इस मामले में ऐसी पहल कर सकते हैं जिसके कारण राजनीति हो या प्रशासन या समाज सभी को अपना रूख बदलना पड़े।
महिलाओं के साथ हिंसा और उत्पीड़न पुलिस के रोजनामचे में दर्ज होने वाले सामान्य अपराध से अलग है। यह सामाजिक पतन का गवाह है। पिछले दो दिन की खबरों पर ही गौर करिए। उत्तरी दिल्ली के कांझावाला में घर में 15 वर्षीय लड़की के साथ उसका 55 वर्षीय पिता दुष्कर्म करता रहा। पति-पत्नी का तलाक हो चुका है और बेटी पिता के साथ रहती थी। दूसरी घटना मुंबई कि जहां शुक्रवार देर शाम एक महिला पर हमला किया गया। वह महिला लोकल से जा रही थी तभी कुछ बदमाशों ने महिला पर तेजाब फेंकने की धमकी दी। साफ है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए सिर्फ कानून पर्याप्त नहीं है। यह ठीक है कि मुंबई पुलिस ने मुस्तैदी दिखाते हुए एक अपराधी को कुछ घंटे के भीतर ही पकड़ लिया, लेकिन सवाल है कि शाम छह-सात बजे जब वहशी ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं तब वह कहां होती है? क्या ऐसे मामलों में समाज मूक दर्शक ही बना रहेगा या पुलिस की तरह घटना के बाद पहुंच कर विरोध ही जताता रहेगा? जब सड़क पर या स्टेशन पर किसी महिला का अपमान होता है तब वहां खड़े लोग तमाशबीन क्यों बने रहते हैं? उसी समय विरोध और प्रतिकार का साहस कहां गया?
बलात्कार की घटनाओं को लेकर सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी जैसे तर्क बेमानी लगते हैं। असल में ऐसी घटनाओं के लिए पुरुषों की वह मानसिकता भी जिम्मेदार है, जो महिलाओं को न तो उनकी पारंपरिक घरेलू भूमिका से बाहर निकलते देखना चाहती है और न ही उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता को स्वीकार कर पा रही है। ऐसी घटनाओं का बुरा परिणाम यह होगा कि अन्य लड़कियों पर परिवार द्वारा तमाम तरह की पाबंदियां लाद दी जाएंगी। जैसे, अकेले घर से जाओ, शाम को मत निकलो, नौकरी मत करो, कॉलेज मत जाओ आदि। ऐसा हो भी रहा है। दिल्ली के निर्भया बलात्कार कांड के बाद जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आई थीं, उसी तरह की प्रतिक्रियाएं मुंबई की घटना के बाद भी आने लगी हैं। यह पूछा जा रहा हैं कि सांझ ढलने के बाद उस सुनसान इलाके में वह लड़की गई ही क्यों थी? घटना के बाद सोशल मीडिया हो या अनौपचारिक बातचीत माता-पिताओं ने बेटी की सुरक्षा को लेकर डर जाहिर करते हुए तमाम तरह के प्रतिबंध की पैरवी की। यह प्रतिबंध प्यार से लागू किए जाएं या डरा कर लेकिन वास्तविक रूप में उसी पुरूषवादी सोच को बढ़ावा देंगी कि महिलाओं को घर के काम करने चाहिए। वह पढ़े क्यों और बाहर काम करने क्यों निकले? काम करने के लिए पुरूष है। हालांकि बलात्कार के आंकड़े और घटनाएं कुछ और ही कहानी कहती हैं। आंकड़े बताते हैं कि सुनसान जगहों पर ही नहीं, बेटी हो या प्रौढ़ महिलाएं, वे अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। दुष्कर्म ज्यादातर घरों में होता है और अपराधी कोई रिश्तेदार या परिचित होता है। दरअसल, औरतों के साथ शारीरिक हिंसा और यौन उत्पीड़न के पीछे जो मानसिकता काम करती है, वह किसी सुनसान जगह या अवसर की तलाश में नहीं रहती। वह मानसिकता तो सरेराह, सभी के बीच महिलाओं को प्रताड़ित करती है। उसके निजत्व पर कब्जा जमा कर गुलाम बनाए रखने में यकीन करती है। हमें यह मानना होगा कि यह हमारे ही समाज की एक विकृति है और जब तक हम इसे दुरूस्त नहीं कर लेते आगे बढ़ती पत्नी, बहन या सहकर्मी तथा एक तरफा प्रेम प्रस्ताव अस्वीकार करती युवती पर हमले होते रहेंगे। यह सच स्वीकार नहीं कर लेते, तब तक हम इससे मुक्ति का रास्ता भी खोज नहीं पाएंगे। समाज को इस मानसिकता से मुक्त करवाना केवल कानून व्यवस्था का मामला नहीं है। सजग व तत्पर पुलिस और सख्त कानून दोनों बहुत आवश्यक हैं लेकिन हमें पूरे समाज की सोच को बदलने की मुहिम भी छेड़ना होगी। यह दोतरफा लड़ाई है। इसके कानूनी पक्ष को मजबूत करने के लिए जरूरी है कि बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामलों का निपटारा जल्दी हो। दूसरी तरफ, सामाजिक सुधारों के प्रति हमारा आग्रह ज्यादा प्रबल हो। यह हमारे समाज की विडंबना है कि 21 वीं सदी में भी नरेंद्र दाभोलकर को अंध विश्वास का विरोध करने के लिए जान गंवानी पड़ती है और महिलाओं को कुछ कुत्सित सोच वाले पुरूषों के कारण चार दीवारों में कैद होना पड़ता है। एक बार फिर उम्मीद युवाओं से ही है। वे ही इस मामले में ऐसी पहल कर सकते हैं जिसके कारण राजनीति हो या प्रशासन या समाज सभी को अपना रूख बदलना पड़े।
Saturday, August 17, 2013
क्या हार कर जीतने वाला बाजीगर बन पाएंगे मनमोहन सिंह ?

ऐसा कहने के पीछे का कारण कोई राजनीतिक विद्वेष नहीं बल्कि लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था और गिरते रुपए को संभालने की सरकार की नाकामी है। स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर रिजर्व बैंक ने विदेश में निवेश पर शिकंजा कसा है। अब एक वित्तीय वर्ष में 75 हजार डॉलर से ज्यादा बाहर नहीं भेजा जा सकेगा। पहले यह सीमा 2 लाख डॉलर थी। ऐसे कदमों से वे भारतीय उद्योगपति निराश हैं जो बाहर निवेश कर वहां के उद्योगों का अधिग्रहण करना चाहते हैं। सरकार ने आर्थिक सुधारों के नाम पर विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खोल दिए लेकिन लगभग साल भर होने के बाद भी इसके कोई चमत्कारिक परिणाम सामने नहीं आए हैं। सरकार लोगों से बार-बार आग्रह कर रही है कि वे सोना न खरीदें। वह यह नहीं समझती कि सोना निवेश के लिए जितना लुभाता है उससे कहीं ज्यादा यह हमारी धार्मिक-सामाजिक परंपराओं का अंश होने के कारण अनिवार्यता हो गया है। दरअसल, यहीं आ कर सरकार से मतभेद प्रारंभ होता है। सरकार विश्व की स्थितियों को देखते हुए जनता से उपभोग में कटौती का आग्रह करती है। वैश्विक परिदृश्य के हिसाब से पेट्रोलियम पदार्थों को नियंत्रण मुक्त करती है। यानि हरबार जनता से ही उम्मीद करती है कि वह कटौती करे, आर्थिक अनियमितताओं की मार झेले। सरकार क्यों अर्थव्यवस्था को शॉक प्रूफ नहीं बनाती? क्यों वह आर्थिक आपाद से निपटने के इंतजाम पहले से नहीं करती है? नीतियां भी आपकी है और व्यवस्था भी आपकी क्यों भारत की अर्थ नीतियों को भारत के संदर्भ में तैयार नहीं किया जाता? क्या सरकार बाजार के उस सीधे से सिद्धांत को भूला बैठी है कि मांग बनी रहेगी तो आपूर्ति और उत्पादन की श्रृंखला भी कायम रह सकेगी? क्यों अन्न के लिए तरस रहे भारत में हरित क्रांति के इतिहास को दोहराया नहीं जा सकता?
आज हालात ये हैं कि सोने पर इंपोर्ट ड्यूटी 8 फीसदी से बढ़ाकर 10 फीसदी कर दी गई है। रुपए में जारी अवमूल्यन को रोकने के लिए और चालू खाता घाटा कम करने के लिए सरकारी कोशिशों के बाद भी शुक्रवार को रुपए ने अपने जीवन का नया निचला स्तर छू लिया। अंतर-बैंक विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार में रुपया डॉलर के मुकाबले 62.03 के स्तर पर चला गया। इससे पिछला निचला ऐतिहासिक स्तर छह अगस्त को 61.80 का था। रुपए में एक मई से अब तक करीब 14 फीसदी गिरावट आ चुकी है। दूसरी तरफ सोने पर आयात शुल्क बढ़ाकर 10 प्रतिशत किए जाने के बाद त्यौहारों से पहले स्टाकिस्टों की ताबड़तोड़ लिवाली के चलते शुक्रवार को सोने की कीमत 1,310 रुपए उछल कर 31,010 रुपए प्रति 10 ग्राम पर पहुंच गयी। स्थानीय सोना बाजार में यह दो साल का सबसे तेज उछाल है।
ये विरोधाभास बताता है कि सरकार के निर्णय गलत दिशा में जा रहे हैं। पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का यह कहना सही लगता है कि सरकारी सिर्फ लक्षणों का इलाज कर रहे हैं, बीमारी का नहीं। सरकार ने बीमारी को खतरनाक बनने दिया है। राजकषीय घाटा, चालू खाते का घाटा, अर्थव्यवस्था की हालत, रुपए में गिरावट... हर चीज नियंत्रण से बाहर है। सरकार को नीतियों में बुनियादी बदलाव लाना होगा। सरकार को भारत की उस देशी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने पर गौर करना होगा जहां दैनिक उपभोग की वस्तओं के लिए बाजार पर निर्भरता कम थी। आज किसान अपने खाने का अनाज भी बाजार से खरीद रहा है जबकि पहले वे लोगों के खाने के लिए अनाज खुद उपजाता था। क्रेश क्राप के फर में वह अन्नदाता से उपभोक्ता हो गया है। ठीक वैसे ही शहरों में नौकरी के लिए पलायन को प्रोत्साहन देकर सरकार ने देशी और पैतृक स्वरोजगार को पिट दिया। अब समाधान उन्हीं नीतियों और तरीकों में नजर आ रहा है। नीतियों की समीक्षा पर यू टर्न सरकार को हार कर जीतने वाला बाजीगर बनाएगी।
Wednesday, July 17, 2013
आस्था के शिखर पर लापरवाही की धूल
एक महीना हो गया जब प्राकृतिक आपदा त्रासदी ने उत्तराखंड में तबाही मचा दी थी। इस विध्वंस में सैकड़ों लोगों की जानें गई जबकि आधिकारिक तौर पर 5748 लोग अब भी लापता हैं। बाढ़ में फंसे एक लाख से अधिक लोगों को निकालने के लिए सुरक्षा बलों ने देश का अब तक का सबसे बड़ा राहत अभियान चलाया। बचाव कार्यों के दौरान करीब 20 वायुसेना कर्मियों तथा अन्य बलों के जवानों को भी अपनी जान गंवानी पड़ी। उत्तराखंड में अतिवृष्टि ने जो तबाही मचाई उससे चारधाम-यात्रियों के परिजनों और स्थानीय नागरिकों को उबारने में कितना समय लगेगा, यह कहना मुश्किल है। शायद समय उनके घाव पर नई चमड़ी की परत चढ़ा दे लेकिन उसकी टीस को कभी नहीं भर पाएगा। क्या वक्त 1954 में कुंभ यात्रा के दौरान भगदड़ मच जाने के कारण मारे गाए 800 से अधिक लोगों के परिजनों के जख्म कभी भर पाए?
तब से लेकर इस साल के इलाहाबाद कुंभ में रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ तक और फिर केदारनाथ व बोध गया जैसे मामलों में हर साल कई लोगों की असमय मौत हो जाती है। लेकिन इन धार्मिक स्थलों की व्यवस्था और प्रबंधन देख रहे ट्रस्टों और उनके कर्ताधर्ताओं से कभी सवाल नहीं होते। अगर सवाल होते तो 1989 में हरिद्वार के कुंभ मेले में भगदड़ से 350 से अधिक तीर्थयात्री नहीं मारे जाते या अगस्त 2008 में हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में भगदड़ 146 लोगों की मृत्यु का कारण नहीं बनती। उत्तराखंड या बोध गया में जो घटा उसके लिए जिम्मेदार कौन है, यह सवाल पूछना जितना ही जरूरी यह सवाल भी है कि जिनके पास इन घटनाओं को रोक सकने वाले प्रबंधों को करने का जिम्मा है, क्या वे अपनी भूमिकाओं पर खरे उतर रहे हैं? इस बात से तो हर कोई सहमत होगा कि हमारे तीर्थस्थल अब तीर्थस्थल नहीं रह गए हैं, बल्कि वे पिकनिक स्पॉट बन चुके हैं। उत्तराखंड में हुए जानमाल के नुकसान का एक कारण उनका पिकनिक स्पॉट बनना भी है। तीर्थयात्राओं के नाम पर पर्यटन उद्योग आगे बढ़ रहा है। मंदिरों के इर्दगिर्द की जमीनें होटल-धर्मशाला-सड़कों आदि से पट चुकी है। यहां तक कि जिन ट्रस्टों पर यहां सुविधाओं का निर्माण करने का जिम्मा है वे भी अपना आर्थिक लाभ बढ़ाने के फेर में कमाई के नए-नए साधन तलाशने में जुटे रहते हैं जैसे, मंदिर ट्रस्ट से ही प्रसाद खरीदने की अनिवार्यता आदि।
समझ से परे है कि जिन ट्रस्टों में हर साल लाखों-करोड़ों का चढ़ावा आ रहा है, उन्हें अपनी कमाई के लिए नए-नए हथकंडों को अपनाने की क्या जरूरत है? यकीन नहीं आता तो जरा आंकड़ों पर गौर कीजिए। तिरुमला तिरुपति देवस्थानम जिसे हम तिरुपति बालाजी के नाम से जानते हैं दुनिया का दूसरा सबसे धनी धर्मस्थल है। इस देवस्थान के रत्नों से जड़ित आभूषणों की कीमत 52 सौ करोड़ से ज्यादा है और कई सौ करोड़ का सालाना चढ़ावा है। श्री माता वैष्णो देवी मंदिर श्राइन बोर्ड को हर साल करीब एक अरब रुपए मंदिर के चढ़ावे के रूप में मिलते हैं। महाराष्ट्र के सबसे अमीर मंदिरों में से एक शिरडी सांई मंदिर ट्रस्ट के पास 32 करोड़ रुपए के आभूषण हैं और 450 करोड़ रुपए का निवेश है। ट्रस्ट के पास 24.41 करोड़ रुपए कीमत का सोना है, 3.26 करोड़ की चांदी है। मंदिर की वार्षिक आय करीब 450 करोड़ रुपए है। करोड़ों की कमाई और लाखों श्रद्धालुओं का आना। तिरूपति, सांई बाबा मंदिर जैसे कुछ धर्म स्थलों को छोड़ दें तो अधिकांश के ट्रस्ट केवल कमाई क्यों कर रहे हैं? उनके पास श्रद्धालुओं की सुरक्षा और सहायता-सुविधाओं की कोई योजना क्यों नहीं है? हजारों लोगों के आने के बाद भी वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड ने पैदल यात्रियों और घोड़ों-टट्टू के लिए अलग रास्ता क्यों नहीं बनाया? क्या यह बुजुर्ग-महिला, बच्चों सहित हजारों यात्रियों को अव्यवस्था और लापरवाही के बीच छोड़ देना नहीं है जहां पूरे रास्ते घोड़ों की लीद परेशान करती है तो कभी घोड़ों के अचानक दौड़ जाने से चोट लगने की आशंका बनी रहती है? क्या ऐसे मंदिरों में ट्रस्ट को ज्यादा बेहतर इंतजाम नहीं करना चाहिए?
असल में हमारी आस्था यह मानती है कि देवस्थलों पर जाने में मिलने वाला कष्ट हमारी परीक्षा है। इसी कारण हम सारी अव्यवस्था को प्रभु की इच्छा मान स्वीकार करते जाते हैं और जिम्मेदारों को कुछ न करने की छूट दे देते हैं। दूसरा, ऐसे धार्मिक स्थल जो पर्यटन की दृष्टि से अहम् हो गए हैं वहां सुविधा के नाम पर बाजार और मुनाफे से जुड़ी गतिविधियां तो प्रारंभ कर दी गई लेकिन यात्रियों का आराम देने के सारे मामले ताक पर रख दिए गए हैं। ट्रस्ट भी वे काम कर रहे हैं जिनसे कमाई हो रही है लेकिन इस कमाई का कुछ अंश भी वे यात्रियों की सुरक्षा और सुविधा के लिए व्यय नहीं कर रहे। कुछ हद तक वे किसी लालची व्यापारी की तरह व्यवहार करने लगे हैं। बोध गया विस्फोट के बाद पूर्व आईपीएस किरण बेदी ने ट्वीट किया था कि धार्मिक स्थलों के लिए एक अलग पुलिस बल होना चाहिए जिसका खर्च करोड़ों का चढ़ावा पाने वाले ट्रस्ट उठाएं। इस विचार पर बात होनी चाहिए। बड़े आयोजनों के पहले सारी व्यवस्था का आॅडिट होना चाहिए ताकि भगदड़ और इस कारण जान की हानि को रोका जा सके। जहां लोग पूजा के लिए जल-दूध, फूल आदि ले जाते हैं क्या वहां फिसलन रोधी फर्श या कारपेट नहीं लगाया जाना चाहिए? वहां व्यवस्था के लिए ट्रस्ट को स्वैच्छिक या सवैतनिक कार्यकर्ता नियुक्त नहीं करने चाहिए? ऐसे स्थानों पर आपदा चाहे प्राकृतिक हो या इंसानी, बचाव और प्रबंधन के पुख्ता इंतजाम आज की बड़ी जरूरत है।
तब से लेकर इस साल के इलाहाबाद कुंभ में रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ तक और फिर केदारनाथ व बोध गया जैसे मामलों में हर साल कई लोगों की असमय मौत हो जाती है। लेकिन इन धार्मिक स्थलों की व्यवस्था और प्रबंधन देख रहे ट्रस्टों और उनके कर्ताधर्ताओं से कभी सवाल नहीं होते। अगर सवाल होते तो 1989 में हरिद्वार के कुंभ मेले में भगदड़ से 350 से अधिक तीर्थयात्री नहीं मारे जाते या अगस्त 2008 में हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में भगदड़ 146 लोगों की मृत्यु का कारण नहीं बनती। उत्तराखंड या बोध गया में जो घटा उसके लिए जिम्मेदार कौन है, यह सवाल पूछना जितना ही जरूरी यह सवाल भी है कि जिनके पास इन घटनाओं को रोक सकने वाले प्रबंधों को करने का जिम्मा है, क्या वे अपनी भूमिकाओं पर खरे उतर रहे हैं? इस बात से तो हर कोई सहमत होगा कि हमारे तीर्थस्थल अब तीर्थस्थल नहीं रह गए हैं, बल्कि वे पिकनिक स्पॉट बन चुके हैं। उत्तराखंड में हुए जानमाल के नुकसान का एक कारण उनका पिकनिक स्पॉट बनना भी है। तीर्थयात्राओं के नाम पर पर्यटन उद्योग आगे बढ़ रहा है। मंदिरों के इर्दगिर्द की जमीनें होटल-धर्मशाला-सड़कों आदि से पट चुकी है। यहां तक कि जिन ट्रस्टों पर यहां सुविधाओं का निर्माण करने का जिम्मा है वे भी अपना आर्थिक लाभ बढ़ाने के फेर में कमाई के नए-नए साधन तलाशने में जुटे रहते हैं जैसे, मंदिर ट्रस्ट से ही प्रसाद खरीदने की अनिवार्यता आदि।
समझ से परे है कि जिन ट्रस्टों में हर साल लाखों-करोड़ों का चढ़ावा आ रहा है, उन्हें अपनी कमाई के लिए नए-नए हथकंडों को अपनाने की क्या जरूरत है? यकीन नहीं आता तो जरा आंकड़ों पर गौर कीजिए। तिरुमला तिरुपति देवस्थानम जिसे हम तिरुपति बालाजी के नाम से जानते हैं दुनिया का दूसरा सबसे धनी धर्मस्थल है। इस देवस्थान के रत्नों से जड़ित आभूषणों की कीमत 52 सौ करोड़ से ज्यादा है और कई सौ करोड़ का सालाना चढ़ावा है। श्री माता वैष्णो देवी मंदिर श्राइन बोर्ड को हर साल करीब एक अरब रुपए मंदिर के चढ़ावे के रूप में मिलते हैं। महाराष्ट्र के सबसे अमीर मंदिरों में से एक शिरडी सांई मंदिर ट्रस्ट के पास 32 करोड़ रुपए के आभूषण हैं और 450 करोड़ रुपए का निवेश है। ट्रस्ट के पास 24.41 करोड़ रुपए कीमत का सोना है, 3.26 करोड़ की चांदी है। मंदिर की वार्षिक आय करीब 450 करोड़ रुपए है। करोड़ों की कमाई और लाखों श्रद्धालुओं का आना। तिरूपति, सांई बाबा मंदिर जैसे कुछ धर्म स्थलों को छोड़ दें तो अधिकांश के ट्रस्ट केवल कमाई क्यों कर रहे हैं? उनके पास श्रद्धालुओं की सुरक्षा और सहायता-सुविधाओं की कोई योजना क्यों नहीं है? हजारों लोगों के आने के बाद भी वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड ने पैदल यात्रियों और घोड़ों-टट्टू के लिए अलग रास्ता क्यों नहीं बनाया? क्या यह बुजुर्ग-महिला, बच्चों सहित हजारों यात्रियों को अव्यवस्था और लापरवाही के बीच छोड़ देना नहीं है जहां पूरे रास्ते घोड़ों की लीद परेशान करती है तो कभी घोड़ों के अचानक दौड़ जाने से चोट लगने की आशंका बनी रहती है? क्या ऐसे मंदिरों में ट्रस्ट को ज्यादा बेहतर इंतजाम नहीं करना चाहिए?
असल में हमारी आस्था यह मानती है कि देवस्थलों पर जाने में मिलने वाला कष्ट हमारी परीक्षा है। इसी कारण हम सारी अव्यवस्था को प्रभु की इच्छा मान स्वीकार करते जाते हैं और जिम्मेदारों को कुछ न करने की छूट दे देते हैं। दूसरा, ऐसे धार्मिक स्थल जो पर्यटन की दृष्टि से अहम् हो गए हैं वहां सुविधा के नाम पर बाजार और मुनाफे से जुड़ी गतिविधियां तो प्रारंभ कर दी गई लेकिन यात्रियों का आराम देने के सारे मामले ताक पर रख दिए गए हैं। ट्रस्ट भी वे काम कर रहे हैं जिनसे कमाई हो रही है लेकिन इस कमाई का कुछ अंश भी वे यात्रियों की सुरक्षा और सुविधा के लिए व्यय नहीं कर रहे। कुछ हद तक वे किसी लालची व्यापारी की तरह व्यवहार करने लगे हैं। बोध गया विस्फोट के बाद पूर्व आईपीएस किरण बेदी ने ट्वीट किया था कि धार्मिक स्थलों के लिए एक अलग पुलिस बल होना चाहिए जिसका खर्च करोड़ों का चढ़ावा पाने वाले ट्रस्ट उठाएं। इस विचार पर बात होनी चाहिए। बड़े आयोजनों के पहले सारी व्यवस्था का आॅडिट होना चाहिए ताकि भगदड़ और इस कारण जान की हानि को रोका जा सके। जहां लोग पूजा के लिए जल-दूध, फूल आदि ले जाते हैं क्या वहां फिसलन रोधी फर्श या कारपेट नहीं लगाया जाना चाहिए? वहां व्यवस्था के लिए ट्रस्ट को स्वैच्छिक या सवैतनिक कार्यकर्ता नियुक्त नहीं करने चाहिए? ऐसे स्थानों पर आपदा चाहे प्राकृतिक हो या इंसानी, बचाव और प्रबंधन के पुख्ता इंतजाम आज की बड़ी जरूरत है।
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