Wednesday, November 25, 2015

विश्लेषण : झाबुआ की जीत जंगल की आग नहीं जिसका फैलना तय हो...

लम्बे अर्से बाद कांग्रेस के खेमे में खुशियों का डेरा है, वरना तो पिछले कई चुनाव और उपचुनाव में भाजपा ही जश्न मनाती रही है। झाबुआ लोकसभा उप चुनाव में हार से भाजपा संगठन में जितनी हताशा है उससे कहीं अधिक प्रसन्नता कांग्रेसी कैम्प में है। इसकी वजहें हैं जिन पर आगे बात की जाएगी, लेकिन कांग्रेस को झाबुआ में अपनी इस जीत पर फूल कर कुप्पा होने की आवश्यकता नहीं है। असल में, झाबुआ की जीत मैदान की ‘सूखी’ घास में लगी आग की तरह है जो स्थानीय मुद्दों व नाराजी की ‘चिंगारी’ के कारण लगी है। यह आग जल्द ही ठंडी भी पड़ जाएगी। कांग्रेस को इसे ‘जंगल की आग‘ मान कर यह मंसूबा नहीं बनाना चाहिए कि वह इस अग्नि में भाजपा को खाक कर देगी। विधानसभा और लोकसभा के मुख्य चुनावों में अभी कई महीने हैं और इस दौरान राजनीतिक ‘गर्मी’, ‘सर्दी’ और ‘बारिष’ के कई मौसम आना षेष हैं। कोई कह नहीं सकता कि इन मौसमों की आवाजाही में राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा। जाहिर है, भाजपा के पास सुधार के उतने ही दिन हैं जितने कांग्रेस के पास एकजुट बने रहने के अवसर। इसलिए इस एक जीत या हार से न भाजपा को डरने की आवष्यकता है और न कांग्रेस के लिए निष्क्रिय होने का सबब। 
झाबुआ की सीट खोकर भाजपा ने नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देष में पहली बार लोकसभा का चुनाव हारा है। यह सीट जाने से लोकसभा में उसका संख्या बल 280 से घट कर 279 रह गया और कांग्रेस के खेमे की संख्या 44 से बढ़ कर 45 हो गई। इस एक सीट के खोने के कई संदेष हैं। खास कर बिहार के संदर्भ में इस हार के लिए कहा जाएगा कि यह सरकार की नीतियों के खिलाफ जनादेश है। लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है। यदि ऐसा होता तो यह परिणाम देवास में दिखाई देना था और मणिपुर में भी महसूस होना था जहां भाजपा ने चौंकाते हुए अपना खाता खोला है। असल में, झाबुआ-रतलाम हारने के कई कारण हैं। वहां के स्थानीय मुद्दे, स्थानीय राजनीति और स्थानीय आक्रोश को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जब स्थानीय ताकत कमजोर पड़ रही थी तभी भोपाल को अपना ‘पैर’ वहां जमाना पड़ा। भाजपा के ही बड़े नेता प्रचार के दौरान स्वीकारने लगे थे कि निर्मला भूरिया ने अपने ही क्षेत्र में वैसी साख नहीं बनाई जैसी उनके पिता की थी। यही कारण है कि आज निर्मला अपनी विधानसभा सीट में भी जीत हासिल नहीं कर पाई हैं। ऐसी ही षिकायत अन्य विधायकों को लेकर भी है। जबकि इसके उलट कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया ने पूरा ध्यान अपने क्षेत्र पर लगाया। पिछले चार-पांच माह से वे झाबुआ से बाहर तक नहीं निकले। ऐसा नहीं है कि निर्मला के लिए ही पूरी पार्टी लगी थी। कांतिलाल के लिए भी हर विधानसभा में अलग-अलग नेताओं ने मोर्चे संभाले थे। यही कारण है कि रतलाम ग्रामीण और सैलाना में कांग्रेस को महत्वपूर्ण लीड मिली। 
इस एक हार से सरकारों को फर्क नहीं पड़ता लेकिन ऐसी ही हार-जीत आंतरिक अवलोकन का अवसर देती है। मैंने कहा है कि झाबुआ की जीत दावानल नहीं है जो भाजपा को खाक कर देगी तो इसके पीछे कई तर्क हैं। संगठन के पैमाने पर देखें तो भाजपा आज कांग्रेस से कई मामलों में आगे हैं। भाजपा के पास संगठन है। उसके पास बूथ स्तर तक के कार्यकर्ता हैं। उसके पास नेतृत्व में आस्था है। गुटबाजी पार्टी के हितों पर हावी नहीं होती। भाजपा के पास लक्ष्य है। भाजपा के पास रणनीति है। भाजपा के पास समर्पित कार्यकर्ता हैं जो वोट में तब्दील होते हैं। भाजपा के पास कार्यक्रम है, वह अपने नेताओं को खाली नहीं बैठने देती। और इस सबके बाद भी उसके पास सरकार और समय है। 
कांग्रेस ने अपने शासनकाल में नीतियों की समीक्षा कर न सत्ता का कार्य व्यवहार सुधारा और न संगठन को खड़ा किया। उसके नेताओं का विभाजित होना तथा खेमेबंद होना साफ नजर आता है। शिवराज सिंह चौहान, सरकार और भाजपा संगठन के लिए लोकसभा उपचुनाव चुनौती थी और उन्होंने इसे हारा है, लेकिन यह सिलसिला नहीं है। भाजपा के पास समय है कि वह वास्तव में आकलन करे और अपने नेताओं, विधायकों-सांसदों की कार्यप्रणाली में सुधार करे। ठीक ऐसा ही मौका कांग्रेस के पास भी है। इसके लिए कांग्रेस को उस व्यवहार को छोड़ना होगा जो उसका स्वभाव बन गया है। 
क्या संघ की निष्क्रियता भारी पड़ी?
भाजपा प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने कहा है कि पार्टी झाबुआ में हार की समीक्षा करेगी। यह तो सोचा ही जाएगा कि इतना भारी लाव लश्कर लगाने के बाद भी सीट क्यों हाथ से गई लेकिन यह तय है कि पार्टी को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की निष्क्रियता भारी पड़ी है। संघ पदाधिकारी कहते हैं कि उप चुनाव में उनकी भूमिका नहीं होती। झाबुआ में प्रचार के दौरान ऐसा दिखाई भी दिया। अब तो परिणाम इसकी पुष्टि भी कर रहे हैं। रतलाम विधानसभा क्षेत्र भाजपा का तुरूप का इक्का है। इस बार यहां मात्र 52 फीसदी ही मतदान हुआ, जबकि 2014 में यहां 65 फीसदी मतदान हुआ था। इसी तरह आलीराजपुर भी संघ का गढ़ है। यहां भी इस बार 44 फीसदी मतदान हुआ जबकि 2014 में यहां 62 प्रतिषत मतदान हुआ था। कांग्रेस ने रतलाम ग्रामीण और सैलाना में धुंआधार वोट अर्जित किए तथा भाजपा संघ के प्रभाव वाले क्षेत्रों में 31 प्रतिशत कम वोटिंग का खामियाजा भोग कर रह गई। 

Thursday, October 29, 2015

- तर्क का उत्तर प्रतितर्क से दिया जा सकता है... लात तो गधे भी मारते हैं : अशोक वाजपेयी


साहित्यकार, कला-साहित्य आलोचक, ब्यूरोक्रेट और भारत भवन के शिल्पकार अशोक वाजपेयी पिछले दिनों फिर चर्चा में आये जब उन्होंने साहित्य अकादेमी अवार्ड लौटाते हुए असहमति की स्वंतत्रता पर आसन्न खतरे का विरोध किया। यह सम्मान उन्हे 1994 में मिला था। वे मानते हैं कि असहिष्णुता इस देश का चरित्र नहीं है। भोपाल प्रवास पर आये वाजपेयी ने चर्चा करते हुए साहित्यकारों के विरोध और इस विरोध की आलोचना में उठे स्वरों पर विस्तार से बात की। वाजपेयी ने कहा कि यह संघर्ष यात्रा बहुत लंबी है। ये उन सामाजिक तत्वों से भी संघर्ष है जिनको सत्ता का मौन समर्थन प्राप्त है। उनको इतनी आसानी से अपदस्थ नहीं किया जा सकता। सत्ता तो फिर भी बदली जा सकती है लेकिन जो सामाजिक वृत्तियां विकसित हो गई हैं उन्हें एकदम से नहीं बदल सकते। वाजपेयी से दृढ़ता सेे कहा कि भाजपा की समस्या यह है कि इनकी विचार दृष्टि इतनी बांझ और अनउर्वर है कि उससे उत्कृष्टता निकल ही नहीं सकती। इस बातचीत के प्रमुख अंश: 

सम्मान लौटाने के पीछे दो चीजें थी। एक तो यह कि लोगों का ध्यान इस आकर्षित हो कि देश में सामाजिक समरसता, परस्पर संवाद, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि क्षेत्रों में क्या हो रहा है और उसके दूरगामी परिणाम क्या होने वाले हैं। इसतरह एक तरफ तो सरकार को चेताना था और उससे ज्यादा लोगों को बताना था कि इस समय सावधानी और सतर्कता की आवष्यकता थी। लेखक लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं? एक तो वे लिख कर सकते हैं जो दूरगामी प्रोजेक्ट होता है। पहले भी लिखते रहे हैं और अभी भी लिख रहे हैं सम्मान लौटाने जैसा कुछ नाटकीय भी करना आवष्यक है। चूंकि ऐसा निजी फैसले थे, आपस में मिल कर तय नहीं हुई थी। मुझे उदय प्रकाश ने फोन किया था। उदय प्रकाश साहित्य अकादेमी के लिए मुझ पर एक फिल्म बना रहे हैं तो मुझे लगा कि मैं साथ जाऊंगा तो सम्मान लौटाने को उस फिल्म से जोड़ा जायेगा। लेकिन जब नयनतारा सहगल जैसी साहित्यकार ने सम्मान लौटाया और फिर जब अंग्रेजी साहित्यकारों ने भी सम्मान लौटाये तो मैंने इस पर विचार किया। आमतौर पर अंग्रेजी के साहित्यकार ऐसे कार्यों में हिन्दी वालों का साथ नहीं देते हैं। लेकिन ये नहीं सोचा था कि इनका इतना व्यापक असर होगा। अब तो वैज्ञानिकों-कलाकारों ने भी इस विरोध में साझा करना आरंभ कर दिया है। 

भाजपा सरकारों ने संस्थाओं को नष्ट ही किया : 

विरोध में यदि में वैकल्पिक दृष्टि लायें तो ठीक है लेकिन भाजपा की समस्या यह है कि इनकी विचार दृष्टि इतनी बांझ और अनउर्वर है कि उससे उत्कृष्टता निकल ही नहीं सकती। ये लोग चुन-चुन कर बौनों को रख रहे हैं जैसे राष्ट्रीय पुस्तक न्यास में किसी को नियुक्त कर दिया। ये इसलिये सुनियोजित हैं कि जहां-जहां भाजपा सत्तारूढ़ हैं वहां इन्होंने संस्थाओं को नष्ट ही किया है। कोई नई संस्था नहीं बनाई। भोपाल में बनाया गया आदिवासी संग्रहालय एकमात्र अपवाद है लेकिन इसे भी आप भारत भवन से प्रेरित कह सकते हैं। पूरे देश  में उनका काम संस्थाओं को नष्ट करना, उन्हें हथियाना, उनका कद गिराना। यही हो सकता है क्योंकि उनके पास उत्कृष्ट विकल्प है ही नहीं। जब आप रोमिला थापर और इरफान हबीब के मुकाबले दीनानाथ बत्रा को खड़ा करेंगे तो सारे बौद्धिक जगत में आपकी जग हंसाई होगी। वामपंथी इतिहासकारों ने ज्यादती की है तो उनके तर्क को काटने के लिए उस स्तर के लोग को चाहिये जो उसी दर्जे का तर्क दे सकें।  

बाइबल-कुरान एक, हमारे पास 4 वेद : 

अब तो मैं कहता हूं कि आरएसएस और भाजपा से हिन्दुत्व पर बहस की जाये। हम उनसे कहें कि हमारी दृष्टि में हिन्दू धर्म क्या है और हमारी समझ क्या है। आप लाइये साक्ष्य और हम देते हैं साक्ष्य। जिस धर्म में स्वयं देवताओं, भाषा, खानपान की इतनी बहुलता है। जिसमें 33 करोड़ देवी देवता हैं। उस धर्म में बहुलता के खिलाफ आप तर्क देते हैं। कुरान और बाइबिल के मुकाबले हमारे पास चार वेद हैं, उपनिषद अठारह हैं, दो महाकाव्य हैं। इन सबके बीच षैव और षाक्य के बीच, षैव और सांख्य के बीच झगड़े भी होते रहे हैं। जिस धर्म में एक आदिवासी महिला को भगवान को झूठे बैर खिलाने का सौभाग्य प्राप्त है, जिस धर्म में उडू़पी में एक दलित को मंदिर में प्रवेश  न देने पर भगवान कृष्ण की प्रतिमा का मुख उस ओर पलट गया जिस ओर दलित पूजा कर रहा था। ये हिन्दू धर्म है। इसे एक ही में कैसे बदल सकते हैं? हमारे तर्क का जवाब प्रतितर्क से दीजिये। ये कहिये कि यह प्रतितर्क है। आप कहेंगे कि हम उल्लू है तो यह तो गाली हुई। तर्क का उत्तर प्रतितर्क से दिया जा सकता है। लात तो गधे भी मारते हैं। 

विरोध का स्तर ही विरोधियों का चरित्र : 

आप जिसका विरोध करते हैं वह क्या प्रत्युत्तर में क्या कर रहा है इससे सामने वाले की गुणवत्ता और स्तर भी पता चलता है। मैं तो सोशल मीडिया देखता नहीं हूं लेकिन सुनता हूं कि उसमें बहुत घटिया स्तर पर चरित्र हनन की कोषिषें की गई। ठीक है। यह बताता है कि हमारे विरोधी किस स्तर पर हैं। 

आपातकाल या 1984 में क्यों नहीं लौटाया : 

ऐसा है कि कोई कब विरोध करे, यह तो उसका निर्णय है। आप तो तय नहीं कर सकते कि कोई कब विरोध किया जाये। यह तो पहली बात। दूसरी बात यह कि 1984 या आपातकाल के दौरान इन साहित्यकारों को पुरस्कार मिला ही नहीं था। वे सारी घटनायें निंदनीय थीं लेकिन वे वैसी सुनियोजित नहीं थीं जैसी आज की घटनायें हैं। ये हर क्षेत्र में धीरे-धीरे फैल रही हैं। तीन लेखक और बुद्धिजीवी तो जान से मारे गये हैं लेकिन इसके अलावा भी काफी काम हो रहे हैं। संस्थाओं का अधिग्रहण हो रहा है। ललित कला अकादेमी को भंग कर दिया गया। जवाहर लाल नेहरू स्मारक पुस्तकालय में घुसपैठ की गई है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का अध्यक्ष अज्ञात कुलशील व्यक्ति को बना दिया गया है। आईआईटी में सामिष भोजन मांगने पर छात्रों को देशद्रोही तथा हिन्दुद्रोही कहा गया। इस तरह का वातावरण फैलेगा तो विरोध तो होगा। ये भी तर्क दिया गया कि ये घटनायें तो उन राज्यों में हुई जहां कांग्रेस या सपा जैसे दलों की सरकारें थीं। सही है। हमें भी पता है। लेकिन ये सारी सरकारें भी इन चीजों के प्रति असंवेदनषील भाव रख रही हैं। हमारा उद्देष्य किसी एक सरकार की निंदा करना नहीं है। जब इतने बहुमत से आई सरकार केन्द्र में है तो उसकी जिम्मेदारी बनती है। 
मुखर प्रधानमंत्री चुप क्यों?
जिस दिन हमने सम्मान लौटाया उसी दिन राष्ट्रपति ने इस देश की एकता के खतरे पर ध्यान आकृष्ट किया। उसी दिन प्रधानमंत्री ने भी राष्ट्रपति की चेतावनी पर ध्यान देने की बात कही थी। हम सिर्फ विरोध के लिए तो विरोध नहीं कर रहे हैं। आपके आचरण से भी पता चला रहा है कि यह हो रहा है। फिर आप चुप क्यों हैं? एक इतना मुखर-वाचाल प्रधानमंत्री जिसकी हर छोटी-बड़ी चीज पर अपना मत प्रकट कर रहा है, वो फिर क्यों चुप है? छोटी-छोटी बातों पर आप एडवाइजरी जारी करते हैं तो फिर ये तो उनसे बड़ा खतरा है। ये तो देष के टूटने का खतरा है। एक तरह से असहमति के असम्मान का खतरा है। इसकी ओर क्यों ध्यान आकर्षित नहीं कर रहे? 

सरकार कैसे बतायेगी कि हम क्या करें?

सरकार ने एक नया तरीका अपनाया है। राजनीतिक दृष्टि से उचित, संवैधानिक दृष्टि से वैध वक्तव्य देना। कहो कि हम देश की एकता पर किसी भी खतरे का मुकाबला डट कर करेंगे जैसा कि वित्तमंत्री अरूण जेटली ने कहा। लेेकिन अपने आचरण में प्रकट मत होने दो। अब यदि यह सरकार तय करने लगे कि हम क्या सोचें और क्या न सोचें, क्या लिखें और क्या न लिखें, क्या खायें और क्या न खायें तो सोचना चाहिये कि हम कहां जा रहे हैं। ये न तो हमारे संविधान से निकलती हुई दृष्टि है और न हमारी परम्परा से निकलती हुई दृष्टि है। यह तो हमारी परम्परा का घोर अपमान है। हमारी परम्परा में शास्त्रार्थ जैसी सामाजिक संस्था थी। किसी नये विचार को तब तक प्रतिष्ठित तथा स्थापित नहीं किया जा सकता था जब तक कि खुले वाद-विवाद में उसे सिद्ध न कर दें। जिस देष में यह परम्परा रही है, उस देश में क्या आप ये कहेंगे कि जो हमसे अलग है, वह देशद्रोही है, जो हमारे धर्म को नहीं मानेगा वो हमारे धर्म का विरोधी है? फिर वो किसी भी तरह के अल्पसंख्यक सिर्फ धर्म के ही अल्पसंख्यक नहीं आप अगर विचार में अल्पसंख्यक, आप अगर मूल्य दृष्टि में अल्पसंख्य है तो क्या देष में जगह नहीं रहेगी? फिर लोकतंत्र क्या है?

आगे क्या?

ये एक लम्बी संघर्ष यात्रा है। ये उन सामाजिक तत्वों से भी संघर्ष है जिनको सत्ता का मौन समर्थन प्राप्त है। उनको इतनी आसानी से अपदस्थ नहीं किया जा सकता। सत्ता तो फिर भी बदली जा सकती है लेकिन जो सामाजिक वृत्तियां विकसित हो गई हैं उन्हें एकदम से नहीं बदल सकते। दूसरी तरफ, मंत्रियों के इस तरह से गैर जिम्मेदार, बचकाना बयान आते रहते हैं, एक के बाद एक। उनको आप चुप नहीं करवा सकते? हम 1 नवंबर को दिल्ली में एक राष्ट्रीय अधिवेशन कर रहे हैं। इसमें बड़ी संख्या में लेखकों-कलाकारों के भाग लेने की उम्मीद है। फिर सोचेंगे कि क्या किया जाना चाहिये।

भारत भवन को स्थानीय संस्था बना दिया : 

भारत भवन मेरी दुखती रग है। वो इसलिये कि इसे बनाने में, दस साल तक इसे चलाने में, इसको अंतराष्ट्रीय कीर्ति के षिखर तक पहुंचाने में हम लोगों की भूमिका रही है। हमने अबाध ढंग से यह काम किया था। कोई राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं था। कोई नौकरशाही या प्रशासनिक हस्तक्षेप नहीं था। हमें पूरी तरह स्वतंत्रता थी और हमने एक बहुलतावादी परिसर बनाया था। उसमें वो लोग भी बुलाते थे जो हमारी दृष्टि से सहमत नहीं थे। जैसे विद्यानिवास मिश्र, निर्मल वर्मा आदि। कह सकते हैं कि ये भाजपा की विचारधारा से अधिक निकट माने जाते थे। हम उन्हें भी आदर से बुलाते थे क्योंकि वे जिम्मेदार लोग थे। वे अपने से अलग दृष्टि का भी सम्मान करने वाले लोग थे। अब धीरे-धीरे जिस तरह से हस्तक्षेप बढ़ते गये हैं, भारत भवन एक स्थानीय संस्था बन कर रह गया है। यह भाजपा सरकार के पहले एक-दो वर्षों में बन गई थी। 

Sunday, October 11, 2015

किसान मर रहे थे कृषि मंत्री माला पहन रहे थे...

रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था...बहुत साल हुए हम शासकों की लापरवाही, जनता के मुद्दों के प्रति गंभीरता को इसी कहावत से व्यक्त करते आ रहे हैं। लेकिन अब इस कहावत को बदल लीजिए। हमें कहना चाहिए जब मध्यप्रदेश में किसान फसलों की बर्बादी से निराश, हताश हो कर अपनी जान दे रहे हैं तब कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन उद्घाटन कार्यक्रमों, जिला सहकारी बैंक के कर्मचारियों के अभिनंदन और सम्मान समारोह में मालाएं पहनने में व्यस्त थे। उनके पास समय नहीं था कि वे किसानों की समस्यायें जानने के लिए अधिकारियों के साथ बैठक करते। 30 सितंबर से लेकर 8 अक्टूबर तक बिसेन अपने गृह क्षेत्र बालाघाट में रहे। वे 9 अक्टूबर को भोपाल तब आए जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी विदेश यात्रा से लौट कर फसलों की बर्बादी पर आपात बैठक बुलाई। किसान इस बात से आहत हैं कि मुख्यमंत्री के आने तक राहत मिलने का इंतजार क्यों करवाया गया? कृषि मंत्री स्वयं भी अपने स्तर पर भी कुछ पहल कर सकते थे। लेकिन वे जिलों से कलेक्टरों की रिपोर्ट आने का इंतजार करते रहे यहां तक कि उन्होंने मीडिया के सवालों के जवाब में यही कहा कि प्रदेश में सारे किसान फसलों के खत्म होने से नहीं मर रहे हैं। यह उस प्रदेष के कृषि मंत्री का गैर जिम्मेदारा बयान ही कहा जाना चाहिए जहां के 23 जिलों कि 114 तहसीलों के 19 हजार 951 गांवों की फसलों को विभिन्न कारणों से क्षति पहुंची है। मुख्यमंत्री स्वयं को किसान हितैषी बताने में चूक नहीं करते लेकिन उनके मंत्री अपने-अपने क्षेत्रों के मंत्री ही बन कर रह गए हैं। कृषि मंत्री के भी यही हाल हैं। वे बालाघाट के आगे प्रदेश को पहचानते ही नहीं है। लेकिन बात इतनी सी नहीं है। वे उस बरघाट में अब तक दौरा करने नहीं गए हैं जहां के वे प्रभारी मंत्री है और जहां 5 अक्टूबर को साम्प्रदायिक हिंसा के बाद अब तक कर्फ्यू लगा है। जबकि 4 अक्टूबर को वे बरघाट में ही थे। और तो और 2 अक्टूबर को बालाघाट का जिला अस्पताल में लगने वाले स्वास्थ्य षिविर में भी वे नहीं पहुंचे। यहां उन्हें सुबह 9 बजे महिला स्वास्थ्य शिविर का  उद्घाटन करना था लेकिन मंत्रीजी 1 बजे तक नहीं पहुंचे। मरीज महिलाओं की नाराजगी देख स्वास्थ्य विभाग ने बिना उद्घाटन के शिविर शुरू किया। मंत्रियों का ऐसा बर्ताव मुख्यमंत्री और भाजपा के अंत्योदय सेवा के संकल्प का मखौल उड़ाता है। पार्टी गरीब वर्ष मना रही है और उसकी सरकार के मंत्री गरीबों की भावनाओं से अनजान है। साफ है, सरकार चलाने, बचाने और उसी प्रतिष्ठा का जिम्मा मुखिया पर आ टिका है, मंत्रियों पर नहीं। किसी भी पार्टी के भविष्य के लिए यह संकेत अच्छे नहीं हैं। 

Thursday, September 17, 2015

बाघ का समय के पहले मरना तय!

बाघों की लगातार घटती संख्या से चिंतित पर्यावरणविदों के लिए यह अच्छी खबर है कि भोपाल के आसपास बाघों का कुनबा बढ़ता जा रहा है। समरधा रेंज में करीब 10 बाघ देखे जा रहे हैं। लेकिन वन विभाग इस सूचना पर प्रसन्न होने की अधिक गुंजाइश नहीं दे रहा है। वन विभाग की रीति-नीति यही रही तो इन बाघों का समय के पहले मरना तय है। मानव द्वारा शिकार, मानव-बाघ संघर्ष, बाघ का आमदखोर हो जाना, बाघों का आपसी क्षेत्र विवाद, भोजन की कमी, शिकार से फैले संक्रमण आदि के कारण बाघों की सर्वाधिक मौत होती है। बाघ शर्मिला प्राणी है और वह बूढ़ा, भूखा या चोटिल हो तभी इंसानी इलाकों में आता है। भोपाल में बाघ इंसानी क्षेत्र में आ रहा है तो इसके कारणों को जान कर उपाय करना अनिवार्य है। वन विभाग ने इन सभी कारणों को रोकने के लिए कोई अहम् कदम नहीं उठाए तो स्वाभाविक है कि इन बाघों को समय के पहले मरना होगा। 
बाघ की समय मौत होने की आशंका है क्यूंकि 
1. बाघों की बढ़ती आमद और रिहायशी इलाके में इजाफे से सीधे-सीधे मानव और बाघों के संघर्ष की स्थितियां बन गई है। इस संघर्ष को टालने के लिए हाथी के जरिए हाका लगाया जाता है। बाघ का अपना इलाका तय होता है इसलिए उसके क्षेत्र में इंसानों की आमदरफ्त को रोका जा सकता है। भौगोलिक स्थितियों के कारण हाथी से हाका लगाना संभव नहीं है तो वन विभाग ने लोगों को लाठी लेकर मैदान में उतार दिया। ये लाठियां इस संघर्ष को कैसे रोकेंगी?
2. भोपाल में बाघ यदि रातापानी अभयारण्य से केरवा की तरफ अपने क्षेत्र का विस्तार कर रहे हैं तो विभाग को पता लगाना चाहिए कि ऐसा कुनबा बढ़ने के ही कारण हो रहा है या वहां उनका आहार कम हो गया है। केरवा क्षेत्र में बाघ का प्राकृतिक आहार हिरण, चीतल आदि नहीं है तो स्वाभाविक है कि वह गाय, सुअर आदि पर हमला करेगा। जैसा वह कर रहा है। पालूत पशुओं पर यह हमला मानव से उसका संघर्ष बढ़ाएगा।
3. बाघ अपना शिकार कभी एक बार में पूरा नहीं खाता और वह खाने के लिए शिकार तक लौटता है। इसी का लाभ उठा कर शिकारी बाघ के शिकार में जहर मिला कर बाघ को मार देते हैं। भोपाल के आसपास बाघ पालतू पशुओं का शिकार कर रहा है। ऐसे में उसके शिकार में जहर मिला दिया गया तो बाघ का मरना तय है। शिकारियों से सुरक्षा के लिए बाघ संरक्षित क्षेत्र का नोटिफिकेषन होना चाहिए जो अब तक नहीं हुआ है।
4. सर्वोच्च न्यायालय के आदेष हैं कि बाघ संरक्षित क्षेत्र के आसपास के 5 किमी दायरे के पालतू पशुओं का टीकाकरण किया जाना चाहिए ताकि बाघ उन पशुओं की बीमारी से संक्रमित हो कर न मरे। पूरे देश में यह काम होता भी है। लेकिन भोपाल में बाघ संरक्षित क्षेत्र घोषित न होने के कारण केरवा के आसपास पालूत पशुओं का टीकाकरण नहीं हुआ है। यदि इन पशुओं का शिकार हुआ तो बाघ को संक्रमण होने की पूरी आशंका है। 

Monday, September 14, 2015

वे पूछ रहे हैं- अपने की मृत्यु तो नहीं हुई, कैसे कहूं सब मेरे ही थे?

पेटलावद से वाट्सएप पर दोस्त मनीष अग्रवाल के संदेश ने मुझे मुश्किल में डाल दिया है। उसने लिखा है-‘विस्फोट के बाद लोग मुझसे पूछ रहे हैं हादसे का शिकार कोई मेरा अपना तो नहीं हुआ? क्या जवाब दूं?’ सच ही कह रहा है मनीष। ऐसे कई लोग होंगे जिनका कोई अपना सगा उस हादसे का शिकार नहीं हुआ होगा। लेकिन जो हताहत हुए हैं, वे भी तो किसी सगे से कम नहीं थे। जो घायल हुए हैं उनका दर्द भी उतना ही परेशान कर रहा है जितना किसी मेरे अपने का दर्द मुझे परेशान करता। कोई कैसे समझेगा उस पीड़ा को जो पेटलावद में या उसके बाहर बसे पेटलावद के बाशिंदों को महसूस हो रही है। जिनके किसी अपने की मौत नहीं हुई लेकिन जिनकी हुई है, वे भी तो अपनों से बढ़कर अपने थे। 
पेटलावद... मेरे दिल के सबसे करीब का कस्बा। जहां मेरा जन्म हुआ और जीवन के पूरे सत्रह साल गुजरे। वहां की एक-एक गलियां से मैं वाकिफ हूं। सिरवी मोहल्ला, झंडा बाजार, गांधी चौक, नया बस स्टैण्ड, माही काॅलोनी...। इन मोहल्लों के जितने घर, जितने लोग। सब अपने। हर गली में दोस्त। हर चैराहे की एक बिरली याद। मेरे साथ कई दोस्त अपना कॅरियर बनाने पेटलावद से निकले थे। हमारी यादों में बचपन का सुहाना पेटलावद है। लेकिन, अब शनिवार, 12 सितंबर की सुबह के बाद से एक खौफनाक मंजर आंखों में तैर रहा है। उस दिन अमावस्या थी। मैं नहीं मानता कि कोई दिन या कोई तिथि बुरी होती है लेकिन वह तारीख तो सचमुच काली ही साबित हुई। विस्फोट का शिकार हुए करीब सौ लोग अब इस दुनिया में नहीं है। लगभग इतने ही गंभीर रूप से घायल हुए हैं। इन लोगों के अलावा पेटलावद में सैकड़ों लोग जिंदा हैं, उनके शरीर पर कोई जख्म नहीं है लेकिन उनके दिल और दिमाग के घाव गहरे हैं। जो दुनिया से चले गए उनके साथ गुजारे पलों की यादें रिस रही हैं। उस दिन क्षतविक्षत अंगों को समेटने का जुनून था, आज वह खौफनाक मंजर रोंगटे खड़े कर रहा है। 
एक ओर संदेश मिला। मेरे मामा अशोक त्रिवेदी ने मुझसे पूछा - ‘‘तुझे दीपावली के बाद की पड़वा याद है?’ याद क्यों नहीं है? सब याद है। हम दीपावली के अगले दिन, जिसे पड़वा कहा जाता है, शुभ की कामना के साथ घर-घर जाते हैं और प्रणाम कर बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद लेते हैं। छोटे हमें प्रणाम करते हैं। सुबह 5 बजे से लेकर रात 10-11 बजे तक, पूरे दिन हर घर में यही गहमा-गहमी रहती है। लगभग सभी घरों में जाने की जल्दी, सभी से मिलने की ललक। पकवानों के स्वाद के साथ पूरा उत्सव। थक कर चूर हो जाएं, निढाल हो जाएं, तभी याद आता है-अरे, फलां घर चूक गया। फिर निकल पड़ते हैं, आशीर्वाद लेने। पड़वा का यह सिलसिला बरसों से चल रहा है। पीढ़ी दर पीढ़ी, इस परम्परा को निभाया जा रहा है। 
पड़वा की याद दिलाते हुए मामा ने लिखा कि यह एक दूसरी ही तरह की पड़वा है। जहां उत्सव नहीं मौत का मातम पसरा है। वे लिखते हैं- 58 साल की मेरी उम्र हुई। जब से समझ आई है, तब से दीपावली के दूसरे दिन हर पड़वा पर जाने-अनजाने घरों में गया हूं। कोई परिचित हो या अनजान, उम्र में बड़ा हुआ तो उसे प्रणाम किया। छोटा हुआ तो आशीर्वाद दिया। हमउम्र हुआ तो गले मिले, हाथ मिलाया, शुभकामनाओं का आदान-प्रदान किया। उस दिन जैसे पूरा पेटलावद अपना। न कोई पराया, न कोई अनजाना। एक यह अमावस की पड़वा है। इस पड़वा को मैं अपने पड़ोसी के साथ लोगों के घर शोक व्यक्त करने गया था। मुझे नहीं मालूम कितनी जगह गया, क्योंकि जिस गली से गुजरा, जिस घर के सामने से निकला, उनका कोई अपना, कोई जानने वाला, कोई सगे से भी सगा, इस हादसे का शिकार हुआ था। फिर भी कुछ घर छूट गए...।

अगली पड़वा कैसी होगी...

अंदाजा लगाया जा सकता है कि पेटलावद में इस बार दीवाली के बाद वाली पड़वा कैसी होगी? कितने ही घरों में ‘चिराग’ के बुझ जाने का गम हावी होगा। जिन घरों में दीये की लौ टिमटिमाएगी वहां उल्लास नहीं बिखरा होगा। मिठाइयां भी बनेंगी लेकिन जो भी इस पड़वा को याद करेगा, उसके मुंह में मिठास कैसे घुल पाएगी? दीवाली तो होगी लेकिन खुशियां नहीं होगी। 
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संवेदनाओं की धारा के विपरीत बहा राजनीति का ‘गंदी नहर’

पेटलावद में जहां मातम पसरा है, घटना के अनेकानेक कारणों, लापरवाहियों, चूकों के प्रति गुस्सा है, वहीं संवेदना और करूणा के इस पूरे परिदृश्य के विपरीत राजनीति का काला खेल भी जारी है। झाबुआ में लोकसभा उपचुनाव होना है। कांग्रेस और भाजपा दोनों जानते हैं कि गुजरात से सटी इस सीट पर जीत के क्या मायने हैं। यही कारण है कि दोनों दलों ने इस घटना के बाद अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। घटना का मुख्य आरोपी व उसके परिजन भाजपा से जुड़े रहे हैं। उसके करीबी रिश्तेदार नगर पंचायत के मुखिया हैं। आरंभ में नेताओं ने आरोपी राजेंद्र कासवा और उसके भाइयों को बचाने के प्रयास भी किए। उसकी मौत की खबरें भी दी गईं। साफ है, आरोपों से भाजपा का दामन दागदार है। कांग्रेस ने हाथ आई विस्फोट की इस चिंगारी से भाजपा की जीत के मंसूबों में ‘आग लगाने’ की तैयारी कर ली है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस बात को अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए वे कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। वे अपने साथ झाबुआ जिले के प्रभारी मंत्री अंतर सिंह आर्य और क्षेत्र के सभी विधायकों निर्मला भूरिया, कलसिंह भाबर, शांतिलाल बिलवाल, नागर सिंह चैहान, माधोसिंह डाबर, वेलसिंह भूरिया, रतलाम विधायक चेतन कश्यप के साथ पीडि़त परिवारों से मिलने गांव-गांव पहुंचे। वहीं कांग्रेस नेता कांतिलाल भूरिया और समर्थक सरकार की लापरवाही उजागर करने की कोषिषों में लगे हैं। वे बता रहे हैं कि हमारी सरकार होती तो हम आरोपी को पकड़ लेते। ये घटना नहीं होने देते। कांग्रेस के इन आरोपों का जवाब शिवराज जनता की हर मांग को पूरा कर दे रहे हैं। 

Monday, August 3, 2015

... क्योंकि सिर्फ पत्तियां नोंचने से नहीं बदलती तस्वीर


क्या आपको प्रिंस याद है? जरा याददाश्त पर जोर डालिए और याद कीजिए। आपको याद आएगी साल 2006 की 21 जुलाई। तब कुरुक्षेत्र के गांव हल्दाहेड़ी में घर से कुछ दूर खेलते समय प्रिंस खुले पड़े 50 फीट गहरे बोरवेल में जा गिरा था। उस दिन उसका पांचवां जन्मदिन था। तीन दिन चले अभियान में सेना ने बोरवेल के साथ सुरंग बनाकर 23 जुलाई को उसे निकाल लिया था। याद आया न। थोड़ा और सोचेंगे तो प्रिंस जैसे कई ओर नाम याद आ जाएंगे, अपने आसपास के बच्चे, जो लापरवाही के गड्ढे में गिरे, कुछ जिंदा बाहर निकले तो कुछ तो मौत अपने साथ ले गई।
प्रिंस खुशकिस्मत है कि वह बच गया। पूरा देश उसके लिए दुआएं कर रहा था। ऐसी ही एकजुटता तब भी दिखाई दी थी, जब दिल्ली में गैंगरेप हुआ था या भ्रष्टाचार के खिलाफ हुंकार भरी गई थी। लेकिन फिर क्या हुआ? असल में यह सवाल मेरे पहले सवाल का ही दूसरा भाग है। यदि हमें प्रिंस याद रहता तो हमें यह भी याद रहता कि ऐसे जानलेवा गड्ढे खुले न रहें। यदि हमें निर्भया याद रहती तो यह भी याद रहता कि ऐसे मामलों का दोहराव न हो। भ्रष्टाचार के लिए खिलाफ तो लड़ाई अंतहीन है। असल में, इसे सुविधा से जोड़ लिया गया है। काम आसानी से नहीं होता तो भ्रष्टाचार को शिष्टाचार मान लिया जाता है और तब यह किसी को बुरा नहीं लगता। हम में से अधिकांश भ्रष्टाचार को तभी कोसते हैं जब हम काम के दायरे में नहीं होते। यदि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई याद रहती तो किसी सुविधा के लिए भ्रष्ट आचरण की पहल नहीं करते। लेकिन हुआ इसका उल्टा। हम दिनों के साथ हर उस घटना को भूलाते गए जिसने हमें भीतर तक आहत किया था। ऐसा नहीं है कि लापरवाही गांवों में है। शहरों में भी सीवर के खुले मैनहोल, टेलीफोन, बिजली पानी आदि की लाइनें ठीक करने के मकसद से खोदे गए गड्ढों में जब-तब लोगों के गिर कर घायल हो जाने या दम तोड़ देने की घटनाएं आम हैं। पिछली बरसात दिल्ली के विभिन्न इलाकों में खुले सीवर में तीन बच्चे बह गए। रात के अंधेरे में बच्चे ही नहीं, बड़े भी गिर जाते हैं। 
बच्चों का गड्ढे में गिर जाना महज एक हादसा नहीं होता। यह  ठेकेदार या जमीन के मालिक या प्रबंधक का अपनी जिम्मेदारी से पलट जाने का उदाहरण भी है। जो बच्चे ऐसे हादसों के शिकार होते हैं, वे गरीबों व मजदूरों के होते हैं। मां-बाप काम पर लगे होते हैं और बच्चे भाग्यभरोसे। खेलते-खेलते बच्चे लापरवाही के इन गड्ढों में गिर पड़ते हैं। हमारे लिए उन बच्चों की कीमत नहीं है। कीमत तो मीडिया के लाईव कवरेज और उसके बाद कि बेमतलब बहस की होती है। बच्चा कहां अटका है। बचाव में क्या कुछ किया जा रहा है। नामी-गिरामी लोग आ-जा रहे हैं। दुखी, परेशान, चिंतित मां-बाप पूजा पाठ कर रहे हैं। उनके लिए दुआओं में सैकड़ों हाथ उठ जाते हैं। मंदिरों में पूजा, मस्जिदों में नमाज के दौर शुरू हो जाते हैं। एसएमएस कर लोग अपनी भावनाएं व्यक्त करने लगते हैं। ऐसा लगता है, जैसे सारा देश उस बच्चे की जिंदगी की जंग में शामिल हो। सबकुछ ‘पीपली लाइव’ की तरह।
बच्चे के बोरवेल के खुले गड्ढे में गिरने की घटनाओं के बाद देश में एक के बाद एक ऐसे कई मामले आए लेकिन ऐसा कहीं सुनाई नहीं दिया कि कहीं छोटे स्तर से लेकर जिला स्तर तक कोई मुहिम चलाई गई हो, जहां ऐसे जानलेवा गड्ढों को बंद किया गया हो। ऐसी कोई जागरूकता नहीं दिखाई दी जिसमें मामूली खर्च कर लोगों ने स्वयं अपने आसपास खुले ऐसे मौत के सामान को बंद करवाने की पहल की हो। क्या प्रशासन और हम खुद इतना भी सुनिश्चित नहीं कर सकते कि ऐसे गड्ढे खुदे न रहें, चाहे वे बोरवेल के लिए खोदे जा रहे हों या किसी अन्य वजह से। अपने आसपास के मसलों से ज्यादा हमें देष और दुनिया के मसले चिंतित करते हैं। इन राष्ट्रीय चिंताओं में वे मसले गौण होते जाते हैं जो हमारे जीवन में बड़ा महत्व रखते हैं। ये मसले गौण क्यों होते हैं? यह सवाल हम सबसे है, उस प्रशासन से भी जिसकी चमड़ी आमतौर पर मोटी ही होती है। 

145 की जान गई, केवल वेदघोषे साहब ने दिखाई चेतना :

लापरवाही की धुंध ही धुंध नजर आती है चारों ओर। ऐसे में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने साथ हुए हादसों को नहीं भूलते। बल्कि, उस दुख को बदलाव की प्रेरणा बना लेते हैं। ऐसे ही हैं भोपाल के विश्वास वेदघोषे। उन्होंने अपने 15 साल के बेटे मंदार को खोया है पिछली मार्च को। मंदार 10 वीं में पढ़ता था और अपने दोस्तों के साथ केरवा डेम गया था, नहाने के लिए। वहां एक निरापद से दिखाई देने वाले पानी भरे गड्ढे में मंदार और उसका दोस्त गिए गए। दोस्त तो बच गया लेकिन मंदार को बचाया न जा सका। इस क्रूर घटना के पहले 144 लोगों की केरवा में डूब कर मृत्यु हो चुकी है। सभी भूल गए लेकिन विश्वास वेदघोषे ने भूलाया नहीं। बेटे की चिता की अग्नि बुझी भी नहीं थी कि जुट गए उस पानी भरे जानलेवा गड्ढे से औरों के बच्चों को बचाने में। सबसे पहले वहां अपनी ओर से सुरक्षाकर्मी तैनात किए। फिर सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा-लगा कर घोषे दम्पत्ति ने उसे बंद करवाया। इस काम में 3-4 लाख खर्च भी हुए लेकिन परवाह नहीं की। मानते हैं बेटे की याद में इससे बड़ा कार्य ओर क्या होगा कि किसी और का बच्चा यहां अपनी जान गंवाए।
क्या यह लापरवाही, कामचोरी, गैरजिम्मेदारी के दौर में उम्मीद का घोष नहीं है?

अंत में :

लडे बिना जीना मुहाल नहीं है,
गा रही थी एक बया,
घौंसला बुनते हुए,
कुछ चींटियां फुसफुसा रही थीं आपस में
कि जितने लोग होते हैं,
गोलियां अक्सर उतनी नहीं हुआ करतीं।
लोग लड़ेंगे,
लड़ेंगे और सीखेंगे,
लड़कर ही यह सीखा जा सकता है,
कि सिर्फ पत्तियां नोंचने से नहीं बदलती तस्वीर। 
- रवि कुमार




Monday, July 27, 2015

आस्था के केन्द्र पर बिखरा हमारी श्रद्धा का कचरा


बिना लागलपेट के कहा जाए तो हम भारतीय जरा धार्मिक भीरू किस्म के लोग है या आस्थावान लोग हैं। कहीं कोई ऐसा चिह्न दिखाई दे जाए जिससे धार्मिक स्थल होने का संकेत मिलता हो तो हम शीश नवाने में जरा देर नहीं करते। हम जान जोखिम में डाल देते हैं लेकिन मंदिर के सामने से गुजरते समय स्टेरिंग छोड़ कर देव प्रतिमा के समक्ष हाथ जोड़ना नहीं छोड़ते। आस्था का आनंद ही कहिए कि हम हर ओर प्रभू भक्ति का मौका खोजते रहते हैं। यहां तक कि पेड़, नदी, पहाड़... प्रकृति के हर अंष में देवत्व खोज कर उसके प्रति श्रद्धान्वत होते हैं। यही कारण है कि पीपल में विष्णु का वास बताते हैं और गंगा, नर्मदा ही नहीं, हर बहती नदी में नहा कर अपने पाप तिरोहित करते हैं और पुण्य कमाते हैं। इतने ऊंचे दर्जें के आस्थावान है कि देव प्रतिमाओं के दर्शनों के लिए कई-कई किलोमीटर पैदल चलते हैं। दुरूह पहाड़ों की चढ़ाई चढ़ते हैं। वन-जंगलों से गुजर कर परिक्रमाएं करते हैं। इस मार्ग में आने वाली मुसीबतों को हंसते-हंसते सहते हैं, यह मानते हुए कि ईश्वर परीक्षा ले रहा है।
हमारा यह रूप और यह विचार, एक बेहद संवेदनशील प्राणी की तस्वीर पेश करता  हैं लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। हमारी आस्था के केन्द्रों को श्रद्धा के कचरे से दुषित करने वाले भी हम ही हैं। जरा अपने आचरण पर गौर तो कीजिए। कैसा नजारा होता है, जब भोलेनाथ का अभिषेक करते हुए अंध भक्ति के शिकार हो जाते हैं और पोलीथीन में पैक दूध से ही अभिषेक करते हैं तथा खाली थैली को वहीं मंदिर परिसर में उड़ा देते हैं जैसे हमारे पाप धोने वाला भगवान ही मंदिर में फैलाए गए कूड़े को भी साफ करवाएगा। मंदिर का कचरा मंदिर प्रबंधन साफ कर भी दे तो जो कचरा नदियों, पहाड़ों, मैदानों, बावडि़यों में डाला जा रहा है, उसकी सफाई कौन करेगा? जो लोग वैष्णो देवी जाते हैं, वे जरा मार्ग में पहाडि़यों की तह में झांक कर तो देखें, क्या दिखाई देता है? पहाड़ों की कोख में खड़े पेड़ों के ऊपर लटकी पाॅलीथीन की थैलियां, आलू चिप्स के पैकेट और साॅफ्ट ड्रिंक्स के पाऊच। ट्रेन यात्रा करते समय आपने भी तो अपने कूड़े-कचरे को चलती गाड़ी से कहीं किसी खेत किनारे, नदी या मैदान में फेंक दिया होगा। कभी सोचा है कि जिस दुरूह पहाड़ी पर चढ़ने में आपके प्राण निकले जा रहे हैं, उस पहाड़ी की खोह में जा कर आपके द्वारा फेंकी गई पन्नियों को कौन हटाएगा? कभी आपने सोचा है कि रेलगाड़ी से जंगलों में उड़ा दी गई पाॅलीथीन की पन्नियों को हटाने के लिए कौन-सा स्वच्छता अभियान कारगर होगा?
क्या आपको इस बात की जानकारी है कि हमारे द्वारा चढ़ा गए दूध, पानी और फूलों के कारण ओंकारेश्वर, महाकालेश्वर और मंदसौर की पशुपतिनाथ मंदिर की मूल प्रतिमाओं का क्षरण हो रहा है। इन प्रतिमाओं को सहेजने के लिए जतन हो रहे हैं लेकिन हमारी श्रद्धा का कचरा यह होने नहीं देता। कल ही की बात है, मैं भोजपुर के शिव मंदिर गया था। ऐतिहासिक महत्व के इस मंदिर का पुरातात्विक महत्व है। यहां फोटो खींचना भी मना है, प्रतिमा पर फूल चढ़ाना तो दूर की बात है। लेकिन यहां सारे नियमों और प्रतिबंधों को धत्ता बताते हुए फूल भी चढ़ाए जा रहे थे, नारियल को भी वहीं फोड़ कर अपनी श्रद्धा को व्यक्त किया जा रहा था। और तो और, अगरबत्तियों के पैकेट भी वहीं गर्भगृह में फेंकें गए थे। यहां, बाकायदा एक पूजारी की चौकी लगी थी और वह दक्षिणा भी वसूल रहा था। इस कचरे को देख कर नाराजगी तो जागती ही है, भीतर एक रोष  भी जागता है कि क्या हम आने वाली पीढ़ी को इस धरोहर को सौंपना नहीं चाहते? अगर चाहते हैं तो इसके संरक्षण का प्रयास करते, न कि ऐसे कार्य करते जो इस विरासत को नष्ट करता है।

गहरे धुंधलके में डाॅ पाण्डे उम्मीद

प्रतिमाओं, ताजिये, पूजन सामग्री सहित तमाम चीजों को नदियों में बहा कर उन्हें दूषित करते समूचे मानव समाज में डाॅ सुभाष सी पाण्डेय जैसे लोग भी हैं जो घने अंधकार में रोशनी की किरण की तरह हैं। पर्यावरणप्रेमी डाॅ पाण्डे कलियासोत नदी को बचाने का संघर्ष कर रहे हैं तो भोजपुर और भीमबैठिका जैसे पुरातात्विक महत्व के स्थलों के संरक्षण की लड़ाई भी लड़ रहे हैं। यही वह पगडंडी है जो वास्तव में विकास, प्रकृति के साथ विकास का हाई-वे है।

अंत में...

कोलम्बस भी ऊब गया होगा
अपनी मीलों लम्बी यात्रा में ।
तेनजिंग ने भी महसूस की होगी हार
एवरेस्ट फतह के ठीक एक पल पूर्व ।
बापू को भी असम्भव लगी होगी आजादी
मुक्ति के ठीक एक क्षण पहले ।
दुनिया में हर कहीं
जीत के ठीक एक पल पूर्व
सौ टंच प्रबल होती है हार
यह जानते हुए भी कि
किनारे पर बैठ कर
पार नहीं होगी नदी
उम्मीद और नाउम्मीद के बीच
मैं क्यूँ हथियार डाल दूँ ?
लड़े बगैर क्यूँ हार मान लूँ ?

Thursday, July 16, 2015

क्या याकूब मेमन मुसलमानों का रोल माॅडल है?

1993 के मुंबई बम कांड के आरोपी याकूब मेनन को फांसी देने के बारे में उस विस्फोट में जान गंवाने वाले लोगों के परिवारों की राय की तो खबर नहीं लेकिन राज्यसभा सांसद मजीद मेमन कह रहे हैं कि मुसलमान होने की वजह से याकूब मेमन को फांसी दी जा रही है। मेनन को फांसी दी गई तो मुसलमानों में गलत संदेश जाएगा। उनकी बात से समाजवादी पार्टी के बड़े नेता अबु आसिम आजमी भी सहमत हैं। आजमी भी इस फांसी का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि याकूब की गलती इतनी बड़ी नहीं है कि उसे फांसी दी जाए। प्रश्न है कि क्या वाकई याकूब मेमन मुसलमानों के रोल माॅडल हैं? हमें तो ऐसा नहीं दिखाई देता। तो फिर दोनों नेता यह साबित करने की कोशिशें क्यों कर रहे हैं कि मुसलमानों (दुनिया के किसी भी हिस्से में रह रहे ऐसे मुसलमान जिनका ईमान मुसलसल) का समर्थन याकूब जैसे लोगों के साथ हो सकता है?
क्या आतंकी को सजा देने से ज्यादा यह देखा जाना अहम् है कि उसकी जाति क्या है? यदि इस तरह से एक पक्ष जाति देखेगा तो दूसरे पक्ष को जाति देखने से कैसे रोका जा सकेगा? दोनों ही मामलों में देश का हित नहीं है। आम आदमी, चाहे वह मुसलमान हो या हिन्दू या ईसाई, उसका हित नहीं है। जब आतंक यह नहीं देखता कि उसके हमले में मरने वाले की जाति क्या है तो राजनीति यह क्यों देखती है कि जिसे सजा मिल रही है, उसकी जाति क्या है?
महात्मा गांधी ने कहा था कि अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं। यहां अगर अपराध से घृणा करने की बात होती तो दोनों मुस्लिम नेताओं काजमी और मजीद मेमन की बात का समर्थन किया जा सकता था लेकिन दोनों का अंदाज इस मामले पर संवेदनाओं को क्षति पहुंचाने का ही है। हम भारतीयों की न्याय में बहुत आस्था है, फिर चाहे वह न्याय कानूनी अदालत में हो या ऊपर वाले की अदालत में। कहते भी है, ऊपर वाले के यहां देर है, अंधेर नहीं। हम तो यह भी मानते हैं कि ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती है। हम तो न्याय की आस में पूरी उम्र गुजार देते हैं। फिर, मुंबई बमकांड में मारे गए 257 लोगों के परिवारों को तो दोषियों की सजा का इंतजार करते हुए अभी 22 साल ही हुए हैं। उनके पास इंतजार करने के लिए अलावा और क्या चारा है, लेेकिन इस मामले पर राजनीति चमका रहे नेताओं के पास राजनीति करने के लिए बहुत से मौके हैं। राजनेताओं की हमदर्दी किसी अपराधी के साथ हो सकती है लेकिन आम लोगों की जान ऐसे लोगों के हाथों का खिलौना होती है। बेहतर होगा कि राजनेता कानून को अपना काम करने दें और आंतकियों व नक्सलियों को कड़ा संदेश जाने दें कि बंटवारे का हर कदम माफ करने लायक नहीं है।

याद दिल दूं कि …
शुक्रवार, 12 मार्च 1993 को एक के बाद एक मुंबई की 12 जगहों पर सीरियल ब्लास्ट हुए थे। इन ब्लास्ट से मुंबई के साथ पूरा देश दहल उठा था। इसमें 257 लोगों की मौत हुई थी और 750 से अधिक लोग घायल हुए थे। यह पहला मौका था, जब देश ने सीरियल बम ब्लास्ट की भयानक तस्वीर देखी थी। इसी दिन बॉम्बे स्टॉक एक्सेंज (बीएसई) की 28 मंजिला बिल्डिंग के बेसमेंट में भी ब्लास्ट हुआ था, जिसमें 50 लोगों की मौत हुई थी।

Wednesday, July 15, 2015

बंद करो आईपीएल

चार सौ साल पुराने क्रिकेट के उज्जवल इतिहास को कालिख से बचाने के लिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को अब आईपीएल बंद कर देना चाहिए। बंद इसलिए होना चाहिए कि लोगों में क्रिकेट के प्रति फिर विश्वास पैदा हो। यह तय है कि आईपीएल जारी रहा तो लोगों का क्रिकेट में भरोसा नहीं रहेगा। देश की सवा सौ करोड़ जनता क्रिकेट को खेल की इबादत के रूप में सुनती और गुनती है। और  एक तरह से इसे राष्ट्रीय खेल का दर्जा प्राप्त है। यदि आईपीएल चालू रहा तो देश में क्रिकेट के प्रति दीवानगी और कम हो जाएगी क्योंकि ग्लैमर के नाम पर इसमें वो सारे खेल चलते रहेंगे जिसके कारण क्रिकेट बदनाम हुआ है। यह विश्वास  इसलिए गिरा है क्योंकि प्रतिबंधित दोनों टीमों में क्रिकेट के ऐसे दिग्गज खिलाड़ी शामिल हैं जो भारतीय टीम का नेतृत्व कर चुके हैं और जिनके कारण क्रिकेट को जाना जाता है। इन प्रतिष्ठित खिलाड़ियों की मौजूदगी भी यदि क्रिकेट की गरिमा नहीं बचा सकी तो आगे आईपीएल क्रिकेट का सम्मान कैसे बचा कर रख पाएगा, यह बड़ा सवाल है। 
आइपीएल सट्टेबाजी प्रकरण में दोषी पाए गए बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष एन. ,श्रीनिवासन के दामाद गुरुनाथ मयप्पन पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया गया है। उसके साथ साथ राजस्थान रॉयल्स के सह मालिक और अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी के पति राज कुंद्रा पर भी आजीवन प्रतिबंध लगा है। जस्टिस लोढ़ा ने टिप्पणी की है कि मयप्पन चेन्नई सुपर किंग्स का हिस्सा थे। उन्होंने खेल के नियम तोड़े और वे सट्टेबाजी में भी शामिल थे. उनकी कारगुजारियों से बीसीसीआई और आईपीएल की छवि खराब हुई है। असल में यह प्रकरण ’जेंटलमेन गेम’ कहे जाने वाले क्रिकेट में राजनीति, उद्योग और सट्टेबाजी के गठजोड़ के दुष्परिणाम का सटिक उदाहरण हैं। इस ‘करतूत’ से क्रिकेट पर कालिख पुती है और अफसोस है कि इस क्रिकेट पर कालिख मलने में सभी के हाथ रंगे हैं, चाहे वह क्रिकेट संगठनों से जुड़े नेताओं के हाथ हों, खिलाड़ियों के हाथ हो या मैदान के बाहर बैठ कर गेम को संचालित करने वाले माफिया के हाथ हों। इस जुर्म में सभी शरीक हैं लेकिन नुकसान केवल क्रिकेट का हुआ है और दिल क्रिकेटप्रेमियों के टूटे हैं। क्रिकेट की इस बेकद्री के लिए इनमें से किसी को माफ नहीं किया जा सकता है। खेलप्रेमी की दीवानगी के आलम को इसी बात से समझा जा सकता है कि सचिन तेंदुलकर को ‘भगवान’ मानते हैं। वे सुनील गावस्कर, कपिल देव, रवि शस्त्री, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, वीवीएस लक्ष्मण, विराट कोहली जैसे खिलाड़ियों में अपना आदर्श खोजते हैं। खिलाड़ियों और खेल को भगवान और धर्म का दर्जा देने वाली नई पीढ़ी को आईपीएल की सट्टेबाजी और ग्लैमर नष्ट कर रहा है। 
क्रिकेट के चाहने वालों को तो मलाल इस बात का है कि राजनेता, उद्योगपति और सट्टेबाजों की तिकड़ी इस खेल को लील रही थी, अपने काबू में ले रही थी और खिलाड़ियों को मुर्गी मुकाबले की तरह लड़ा रही थी लेकिन सीनियर खिलाड़ी खामोश थे। वे सूबों, धड़ों और नेताओं में बंटे खिलाड़ी धन कुबेेरों की कठपुतलियां बने रहे। खेल संगठनों की कमान खिलाड़ियों के हाथ में होना चाहिए। यह आग्रह और मशविरा दर्जनों बार दिया गया लेकिन किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। कारण साफ है, विश्व का सबसे  धनाढ्य खेल संगठन बीसीसीआई की कमान अपने हाथ में होने का अर्थ है, किसी बड़े  कारपोरेट घराने को संचालित करना। इसी कारण से बीसीसीआई की लगाम खिलाड़ियों के हाथों से निकल कर श्रीनिवासन जैसे पूंजीपति के कब्जे में चली गई।  

‘फेयर गेम’ के खिताब बना मजाक

इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि आईपीएल के लगभग हर सीजन में फेयर गेम का खिताब जीतने वाली चैन्नई सुपर किंग और राजस्थान रॉयल्स की टीमें भी सट्टेबाजी में शामिल थीं, इसलिए चेन्नई सुपर किंग्स को आईपीएल से दो साल के लिए निलंबित किया गया। टीम पर दो साल का प्रतिबंध रहेगा। वहीं राजस्थान रॉयल्स की टीम पर भी दो साल का प्रतिबंध लगा दिया गया है। जानकारों ने आईपीएल  के इस हश्र की घोषणा उसके निर्माण के समय ही कर दी थी। कहने को आईपीएल को उभरते हुए खिलाड़ियों  का मंच देने का एक उपक्रम था लेकिन वास्तव में यह उद्योगपतियों और सेलिब्रेटी के लिए पैसे से पैसा बनाने का साधन था। नाइट पार्टीस, चीयर लीडर्स, शराब और सट्टा जैसे आईपीएल की पहचान बन गए हैं। यही कारण है कि क्रिकेटप्रेमियों को बहुत कम आश्चर्य हुआ जब सट्टेबाजी में मयप्पन और कुन्द्रा जैसे बड़े नाम आए। 

Tuesday, July 14, 2015

अमित शाह : ‘शह’ भी होती है और ‘मात’ भी

शहर के राजनीतिक और प्रशासनिक गलियारों में सोमवार को दो वाक्य चर्चा में बने रहे। एक वाक्य भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का है। शाह ने भाजपा पदाधिकारियों की बैठक में कहा कि अपने बिगड़े बच्चे का जिक्र बाहर क्यों करना? दूसरा वाक्य, सीबीआई के जाइंट डायरेक्टर आरपी अग्रवाल का है। व्यापमं मामले की जांच कर रही सीबीआई टीम के प्रमुख अग्रवाल ने कहा कि व्यापमं मामले में सीबीआई देश को निराश नहीं करेगी। अग्रवाल की ख्याति राजस्थान के मशहूर भंवरी देवी केस की जांच को लेकर है। जाहिर है, अमित शाह और सीबीआई के जाइंट डायरेक्टर अग्रवाल के एक-एक वाक्य ने ही चर्चाओं को आकाश दे दिया है।
गुजरात चेस एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष
अमित शाह राजनीति भी शतरंज की ही तरह करते हैं। वे चाहे ‘राजा’ के साथ रहें या ‘प्यादे’ के बीच हों; उनके मनोभावों को आसानी से नहीं पढ़ा जा सकता। ऐसे ही मुहावरों में बात करने के उनके अंदाज को ठीक-ठीक एक ही अर्थ लगा पाना संभव नहीं होता है। उनकी एक ही बात में ‘शह’ भी होती है और ‘मात’ भी। ऐसा ही हुआ जब भोपाल में भाजपा पदाधिकारियों के बीच शाह ने कहा कि बच्चा अगर कमजोर है तो इसका जिक्र बाहर नहीं करना चाहिए। बात तो उन्होंने संगठन के संदर्भ में कही थी लेकिन इसे व्यापमं से जोड़ कर भी देखा गया। इशारों-इशारों में दिल की बात कहने वाले शाह के इस एक वाक्य ने बिना बोले कई संदेश दे दिए। एक तो साफ था कि भाजपा नेताओं को कांग्रेस के ‘दुष्प्रचार’ के खिलाफ जुट जाना चाहिए।
व्यापमं घोटाले के साये में यह संयोग ही था कि भाजपा के राष्ट्रीय मुखिया शाह भी मप्र और छत्तीसगढ़ के महाजनसम्पर्क अभियान की समीक्षा करने के लिए शहर में थे और इसी दिन सीबीआई की टीम भी मामले की जांच के लिए पहली बार भोपाल पहुंची। पूरा मीडिया इस कोशिश में जुटा था व्यापमं मामले पर शाह से चर्चा हो जाए तो दूसरी तरफ नेताओं के मन में भी कई सवाल थे। उन्हें  महाजनसम्पर्क अभियान में जनता के बीच जाना है। स्वाभाविक है, वहां व्यापमं को लेकर सवाल होंगे। शाह इस बात को जानते थे। तभी उन्होंने अपने उद्घाटन वक्तव्य में बगैर व्यापमं का उल्लेख किए साफ कर दिया है कि संगठन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ है। उन्होनें हिदायत दी कि अपनी कमजोरी घर में बताना चाहिए, बाहर चर्चा नहीं करनी चाहिए।  यह संदेश उन नेताओं के लिए था जो अकसर ही सत्ता और संगठन से अपनी नाराजगी सार्वजनिक तौर पर जताते रहते हैं। शाह ने स्पष्ट कर दिया कि सत्ता पक्ष में होने से हमें अपना आचरण और व्यवहार भी उसके अनुरूप रखना चाहिए।

Wednesday, July 8, 2015

शिवराज अनमने थे, केन्द्र के आगे झुके...

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अब तक व्यापमं मामले में सीबीआई जांच से इंकार कर रहे थे लेकिन वे एक रात में ही जांच की पहल करने के लिए कैसे तैयार हुए? राजनीतिक गलियारों के साथ जन सामान्य में यह सवाल चर्चा में हैं। ऐसा क्या हुआ कि उन्हें यह घोषणा करना पड़ी जबकि सार्वजनिक तौर पर केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह उनकी बात का समर्थन कर चुके थे शिवराज मान रहे थे कि गरोठ चुनाव जीते हैं इसका अर्थ है जनता उनसे नाराज नहीं है। कोर्ट पहले ही जांच को सही ठहरा चुकी है। इसलिए सीबीआई जांच की जरूरत नहीं है। लेकिन राजनीतिक हलकों का कहना है कि पिछले दिनों के घटनाक्रम के बाद भाजपा का एक महत्वपूर्ण वर्ग ये मानने लगा था कि व्यापमं घोटाले की जांच का सिलसिला राज्य सरकार की पकड़ से बाहर होता जा रहा है। जांच के तौर तरीके विवादास्पद हो चुके हैं। ऐसे में केन्द्र ने दबाव बनाया और सभी संदर्भों को देख कर लगता है कि यह राजनीतिक फैसला लेते समय शिवराज अलग-थलग पड़ गए। 
व्यापमं मामले में मप्र से ज्यादा बाहर के प्रदेशों में इसे लेकर शंका का माहौल बनने लगा था। यहां तक कि अप्रवासी भारतीय भी इसे देश की छवि पर आघात मानने लगे थे। सम्भवतः इसी कारण केन्द्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी नरम शब्दों में इशारा कर दिया था कि जांच पर सबका विश्वास होना चाहिए। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश  विजयवर्गीय भी मौतों के सिलसिले में जेटली से मिलता जुलता ही बयान दिया था। केन्द्रीय मंत्री उमा भारती सीबीआई जांच को लेकर पहले से ही आक्रामक थी। संगठन में भी दबे सुरों में जांच की विश्वसनीयता को लेकर निरंतर कानाफूसी होती रहती थी। आजतक के पत्रकार अक्षय सिंह की मृत्यु के बाद घटनाक्रम ने जो करवट ली उसके आगे भाजपा नेतृत्व बेबस नजर आ रहा था। टीवी चैनलों पर पानी पी-पी कर कांग्रेस और अपने विरोधियों को कोसने वाले भाजपाई प्रवक्ता ज्यादातर सवालों पर बगले झांकते नजर आ रहे थे। दिल्ली को महसूस हुआ कि मप्र सरकार की किरकिरी कर रहा यह घोटाला उसकी छवि को भी धूमिल करेगा। 
बताया गया है कि पत्रकार अक्षय सिंह की मृत्यु के बाद मुख्यमंत्री चौहान ने केन्द्रीय नेतृत्व से भी इस मसले पर परामर्श किया था। उन्हें इस बात के साफ संकेत दे दिए गए थे कि जो भी करना पड़े इस मसले का समाधान कारक हल उन्हें निकालना चाहिए। जन धारणा उनके खिलाफ है और भाजपा को लांछित कर रही है। इसको धोने के लिए यदि जरूरी हो तो सीबीआई की जांच करवाने में उन्हें कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। मुख्यमंत्री इन तर्कों से सहमत नहीं थे। वे सीबीआई की जांच को फिलहाल टालना चाहते थे। केन्द्रीय नेतृत्व ने यह इशारा भी किया था कि 13 जुलाई को राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की बैठक के पहले आरोपों की आंधी से उठी धूल बैठ जाना चाहिए। अन्यथा, व्यापमं घपलों की आंच मप्र-छग की सदस्यता अभियान की समीक्षा की इस बैठक पर भी आएगी। इन सारे संदर्भों में केन्द्रीय नेतृत्व ने सीबीआई जांच करवाने की पहल को ही मुफीद रास्ता मान रहा था। इसके साथ ही मुख्यमंत्री को बताया गया कि इससे 9 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय में मामले की सुनवाई के दौरान प्रदेश  सरकार अधिक दृढ़ता से खड़ी हो सकेगी।

प्रदेश के मंत्रियों ने भी कसर नहीं छोड़ी....

एक तरफ जहां केन्द्रीय मंत्री उमा भारती ने शिवराज के खिलाफ मोर्चा खोल दिया वहीं अपनी कैबिनेट के मंत्रियों ने भी मुख्यमंत्री को फंसाने का काम ही किया। प्रदेश के गृहमंत्री बाबूलाल गौर एक के बाद एक ऐसे बयान दे रहे थे जिनके कारण मामला शांत होना तो दूर विवाद और गर्माता गया। गौर ने तो यहां तक कह दिया कि इस मामले में उन्हें कोई जानकारी नहीं दी जाती। यहां तक कि कांग्रेस के आरोपों के जवाब देने के लिए बुलाई पत्रकार वार्ता में सरकार के प्रवक्ता नरोत्तम मिश्रा ने तो कह दिया कि कांग्रेस के अलावा सीबीआई जांच की मांग और कौन कर रहा है। मानो वे संकेत दे रहे थे कि और लोगों को भी मांग करना चाहिए। इन सारे संदर्भों को देखते हुए लग रहा है कि सीबीआई जांच करवाने का निर्णय लेते हुए शिवराज अलग-थलग पड़ गए थे। इस बात का आभास पत्रकारों से चर्चा में उनके यह कहने से भी हुआ कि वे रातभर सो नहीं सके। और, ‘इस मामले में मप्र से ज्यादा बाहर की जनता अधिक सवाल कर रही थी। जनमत के आगे मैं शीश झुकता हूं।’ यह जनमत असल में पार्टी का मत था जिसके आगे शिवराज  झुके।

साख बचाने का जतन...

भले ही व्यापमं मामले में सीबीआई जांच कर पहल कर शिवराज  को नुकसान दिखाई दे रहा है लेकिन इसका राजनीतिक लाभ भी होगा और यह संदेश जाएगा कि स्वयं को बिल्कुल पाक साफ साबित करने के लिए वे हर जांच करवा सकते हैं। उन्हें किसी का भय नहीं है। अपनी राजनीतिक साख को बेदाग रखने के लिए उन्होंने राजनीतिक चतुराई का परिचय देते हुए बड़ी सफाई से उच्च न्यायालय के पाले में गेंद डाल दी है। वरिष्ठ प्रशासकों का कहना है कि जरूरी नहीं है कि चिट्ठी मिलते ही कोर्ट सीबीआई जांच के लिए तैयार हो जाए। एक मत यह भी है कि जांच से संतोष जताते हुए कोर्ट सीबीआई जांच से इंकार कर दे। इसके अलावा, संभव है कि 9 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान सरकार को राहत मिल जाए।

मामला थमा नहीं...

केवल सीबीआई जांच की पहल करने से ही विवाद थमने वाला नहीं है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में जांच की मांग कर दी है तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री के त्यागपत्र की मांग को लेकर 16 जुलाई को मप्र बंद की अपील की है। उसका साथ वामपंथी संगठन दे रहे हैं। साफ है कि शिवराज  की राह आसान नहीं है। 


Saturday, May 9, 2015

राहुल गांधी के तीन ट्वीट और ...


कांग्रेस पार्टी सम्भवतया अपने सबसे निराशाजनक दौर से गुजर रही है और यही कारण है कि पार्टी के सम्भावित मुखिया राहुल गांधी के हर सकारात्मक प्रयत्न पर कांग्रेस हितैषी कार्यकर्ता के मन में पार्टी के सुदृढ़ होने की उम्मीदें पल्लवित होने लगती हैं। पार्टी में तमाम वरिष्ठ नेताओं के होने के बाद भी बार-बार नेतृत्व के लिए आस राहुल गांधी पर ही जा कर टिकती है लेकिन अब तक राहुल गांधी का हर राजनीतिक प्रयोग असफल होने की हद तक ही कारगर रहा है। ऐसे में 56 दिनों के अवकाश के बाद राहुल गांधी की सक्रियता अब रेखांकित होने लगी है। वे सदन से लेकर सड़क तक अपनी खास उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। ऐसे में सोशल मीडिया पर राहुल गांधी का अवतरित होना भी एक खास मौका बन गया। वैसे यह कम अचरज भरा नहीं है कि पिछले लोकसभा सहित विभिन्न विधानसभा चुनावों में जब भाजपा और आम आदमी पार्टी सोशल मीडिया के मंच पर ताकत से उभरे हैं उसी मंच से कांग्रेस के युवा सूत्रधार राहुल गांधी अब तक गायब रहे। वे युवाओं को साथ लेकर पार्टी से लेकर दुनिया तक को बदलने का सपना देख रहे हैं लेकिन युवाओं के संवाद के तंत्र सोशल मीडिया से गायब हैं, जबकि दूसरे दल सोशल मीडिया को राजनीतिक अस्त्र बना कर कांग्रेस को धूल चटा चुके हैं। ऐसे परिदृश्य में अचानक राहुल गांधी ट्विटर पर अवतरित हुए। वास्तव में ट्विटर पर राहुल नहीं आए बल्कि उनका आॅफिस आया जो राहुल की गतिविधियों की जानकारी दे रहा है। यहां भी बहुत कुछ छिपाया जा रहा है, तीन ट्वीट में केवल तीन सूचनाएं दी गई हैं। इसके बाद भी शुरुआती 24-26 घंटों में 40 हजार से अधिक लोगों ने राहुल गांधी के इस ट्विटर अकाउंट को फालो करना शुरू कर दिया है। खास बात यह है कि प्रधानमंत्री होने के बाद भी नरेंद्र मोदी फर्स्ट पर्सन में सारी बातें सोशल मीडिया पर स्वयं रखते हैं जबकि राहुल गांधी के लिए यह काम कोई ओर कर रहा है। इसके बाद भी राहुल गांधी के आॅफिस के सोशल मीडिया अकाउंट को मिली इस लोकप्रियता के कई मायने हैं। यह कांग्रेस के बेहतर भविष्य का संकेत है। यदि राहुल जन उम्मीदों को सम्भाल पाए तो कांग्रेस का खोया आधार लौटने में वक्त नहीं लगेगा। दूसरी तरफ, भाजपा और उसके जरिए पीएम मोदी के लिए सोशल मीडिया की नाराजगी चिंतन का विषय है। सोशल मीडिया की प्रतिक्रिया त्वरित और तात्कालिक भले ही होती है लेकिन सभी जानते हैं कि यह मंच असरदार आवाज रखता है। पिछले कुछ उपचुनावों में भाजपा की हार और अब राहुल गांधी का इस तरह स्वागत माहौल को पढ़ने के लिए काफी होना चाहिए। राहुल के तेवर और समर्थकों का अंदाज पार्टी का हौंसला बढ़ाने वाले है लेकिन भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि राहुल इसे किस तरह साधते और इस रूप में कायम रहते हैं।

Friday, May 8, 2015

मंदिर की दीवारों पर चांदी हो या भक्तों के पेट में निवाला?


चाहे बाबा महाकाल हो या ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग या मंदसौर में पशुपतिनाथ का मंदिर। ये तीर्थ केवल हमारी आस्थाओं के केन्द्र ही नहीं है बल्कि ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व के कारण राज्य की धरोहर भी हैं। यही कारण है कि यहां स्थापित प्रतिमाओं और ज्योतिर्लिंगों के क्षरण की जानकारियों ने न केवल प्रशासन और श्रद्धालुओं बल्कि पुरातत्वेत्ताओं को भी चिंतित कर दिया था। इस क्षरण के बाद ओंकारेश्वर में ज्योतिर्लिंग को कांच के आवरण में सुरक्षित किया गया। यही योजना पशुपतिनाथ मंदिर के लिए भी बनी। महाकाल ज्योतिर्लिंग के परिप्रेक्ष्य में भी यही चिंताएं है लेकिन यहां सिंहस्थ 2016 को भव्य रूप देने की कोशिशों में महाकाल के गर्भगृह की दीवारों पर चांदी चढ़ाने का काम शुरू कर दिया गया है। इस कार्य में 2 करोड़ की चांदी का उपयोग होगा और मजदूरी पर 20 लाख रुपए अतिरिक्त खर्च होंगे। गर्भगृह की दीवारों पर 450 किलो चांदी लगेगी। देशभर के यजमानों द्वारा इस कार्य हेतु चांदी दान दी जा रही है। अब तक 130 किलो चांदी एकत्र हुई है। सवाल यह है कि मंदिर की दीवारों को चांदीमय बनाने का क्या औचित्य? भोलेनाथ को कैलाशवासी हैं। पौराणिक कथाओं ने ही हमें बताया है कि माता पार्वती के कहने पर सोने की लंका बनवाई जरूर लेकिन फिर वही लंका अपने भक्त रावण को दान में दे दी थी। यानी भोले को आडंबर और महलों ने कहां प्रसन्न किया है? तो फिर यह मंदिर की दीवारों को चांदीयुक्त करने का आडंबर क्यों? समवेत स्वर में यह संकल्प बुलंद होना चाहिए कि इस राशि का उपयोग मंदिर परिसर को अधिक सहज और अवरोध मुक्त बनाने ज्योतिर्लिंग का क्षरण रोकने के उपाय करने और सिंहस्थ में आने वाले श्रद्धालुओं की सुरक्षा-सुविधा के लिए खर्च होना चाहिए। मंदिरों के कर्ताधर्ता पूजारियों-बाबाओं के हितों को ध्यान में न रख यह खर्च ईश दर्शन और भक्तों के बीच की दूरियों को मिटाने में हो। जिस तरह बीच में मांग उठी थी कि मंदिरों में चढ़ा कर दूध को नालियों में बहाने से बेहतर है कि उसे जीवित भगवान यानी बच्चों और निर्धनों को दिया जाए। ऐसी पहल काशी के प्रख्यात विश्वनाथ मंदिर से की गई थी। करीब दो साल पहले योजना बनी थी कि विश्वनाथ मंदिर से दूध महिला चिकित्सालयों में भर्ती प्रसूताओं, मानसिक अस्पताल के रोगियों, कैदियों में वितरित किया जाए। ऐसे प्रस्तावों पर पोंगापंथी श्रद्धालु कभी सहमत नहीं होंगे लेकिन सोचिये ऐसा कर हम दूध, शनि मंदिरों में चढ़ाया जाने वाला तेल और अन्य नाना पदार्थ का सदुपयोग कर सकते हैं।