आज थोड़ा उदास था, दर्द से परेशान भी तभी एक शेर सुना जिसकी कहन कुछ यूँ थी-बचपन के वे दिन कितने मासूम थे, हर बात पर यकीं हो जाता था। हम मान लेते थे कि जाने वाले आसमान में तारे बन जाते हैं।" अचानक सुनाई दिया यह शेर मुझे अतीत में ले गया और यादों में खोने के बाद दर्द कम और दर्शन बढ़ गया।
मुझे याद आया बात 1985 की रही होगी। उस वक्त मेरी उम्र करीब 9 साल। दाँत टूट नहीं रहे थे। हर बच्चे की तरह मेरी भी इच्छा थी कि मैं जल्दी से बढ़ा हो जाऊँ। दूध के दाँतों का न टूटने का अर्थ था मेरा बच्चा रह जाना। जबकि कुछ दोस्तों के दाँत टूटना शुरू हो गए थे। मैं इसी चिंता में रहता कि कम दाँत टूटना शुरू हों और कब में बढ़ा कहलाऊँ। तभी आगे के एक दाँत ने हिलना शुरू किया। रोमांचक था दाँत गिरने का ख्याल। लेकिन अंदर एक भय भी दाँत दर्द होगा। इसी ऊहापोह में पता चला कि मेरे गृह नगर में एक शिविर लगने वाला है जहाँ एक सज्जन किसी वैकल्पिक पद्धति से दाँत निकालेंगे। चूँकि पैसे लगना नहीं थे तो मुझे किसी की अनुमति लेने की जरूरत नहीं था। फिर क्या था, मैंने यह सोच कर बिना दर्द के दाँत निकाल दिया जाएगा और मेरी हसरत भी पूरी हो जाएगी बिना समय गँवाए पंजीयन करवा दिया। इंतजार के बाद वह दिन आ ही गया जब शिविर का आयोजन हुआ। मैं स्कूल जाने के लिए समय के पहले तैयार हो गया। बस्ता टाँग निकल रही था कि अपनी नानी (जो माँ ही है) को न बताने की हिम्मत न कर पाया। याद नहीं उन्होंने क्या कहा लेकिन मैं कुछ देर में शिविर स्थल पर था। कई बड़े लोगों की कतार में एक मैं ही बच्चा था जो 'बड़ा" होने आया था। इधर घड़ी 11 बजे की सूचना दे रही थी उधर स्कूल की घंटी बजने और देर होने पर सर की फटकार का डर हावी हो रहा था। लेकिन इस सब पर भारी था दाँत निकलवाने की खुशी।
आखिर मेरा नंबर भी आ गया। चिकित्सक सज्जन ने देखा और कहा-दाँत तो हिल ही रहा है। जल्दी उखड़ जाएगा। इसे निकालने की जरूरत नहीं है। मैं रूँआसा हो गया और जिद कर बैठा कि नहीं आप तो निकाल दो। मुझे दर्द होगा। वे मुस्कुराए और अपनी कला से बिना दर्द दिए मुझे 'बड़ा" बनाने की प्रक्रिया की ओर भेज दिया।
उस दिन खुशी-खुशी अपना दाँत लिए घुमता रहा। फिर किसी बुजुर्ग के कहने पर दाँत किसी मकान की छत पर फेंक दिया बेहतरी की कामना के साथ।
करीब 27 साल बाद ऐसा ही मौका मेरे जीवन में फिर आया जब एक दाँत निकलवाने जाना पड़ा। आज बड़े होने की खुशी नहीं बल्कि ज्यादा ही बड़े हो जाने का भय सता रहा था। शरीर के कमजोर होने की शुरूआत भीतर ही भीतर खाए जा रही थी। आज ज्यों ही चिकित्सक ने कहा-'दाढ़ निकाल देते हैं।" मैं चुप हो गया। जीभ फेर कर दाढ़ को अलविदा कहते इतना साथ देने के लिए शुक्रिया कहना चाहा। आखिर इसी के कारण में इतना रस प्राप्त कर पाया था।
खैर, दो दाँतों के जाने के बीच में मैं भरपूर जिया लेकिन इस उम्र में एक दाँत का साथ छोड़ कर जाना मुझे दार्शनिक बना रहा है। कुछ यूँ कि उम्र खत्म होने की चिंता होने लगी है और लगता है क्या कुछ कर पाया अब तक।
बचपन में सीखाया जाता था-जीभ नम्र होती है और दाँत सख्त। इसलिए जीभ अंत तक बनी रहती है और दाँत विदा हो जाते हैं असमय। सोचता हूँ, मैं कितना 'जीभ" हुआ और कितना 'दाँत"। कितना चला अब तक और कितना रहा बाकी। एक साथी के जाने का दुख तो है ही।
मुझे याद आया बात 1985 की रही होगी। उस वक्त मेरी उम्र करीब 9 साल। दाँत टूट नहीं रहे थे। हर बच्चे की तरह मेरी भी इच्छा थी कि मैं जल्दी से बढ़ा हो जाऊँ। दूध के दाँतों का न टूटने का अर्थ था मेरा बच्चा रह जाना। जबकि कुछ दोस्तों के दाँत टूटना शुरू हो गए थे। मैं इसी चिंता में रहता कि कम दाँत टूटना शुरू हों और कब में बढ़ा कहलाऊँ। तभी आगे के एक दाँत ने हिलना शुरू किया। रोमांचक था दाँत गिरने का ख्याल। लेकिन अंदर एक भय भी दाँत दर्द होगा। इसी ऊहापोह में पता चला कि मेरे गृह नगर में एक शिविर लगने वाला है जहाँ एक सज्जन किसी वैकल्पिक पद्धति से दाँत निकालेंगे। चूँकि पैसे लगना नहीं थे तो मुझे किसी की अनुमति लेने की जरूरत नहीं था। फिर क्या था, मैंने यह सोच कर बिना दर्द के दाँत निकाल दिया जाएगा और मेरी हसरत भी पूरी हो जाएगी बिना समय गँवाए पंजीयन करवा दिया। इंतजार के बाद वह दिन आ ही गया जब शिविर का आयोजन हुआ। मैं स्कूल जाने के लिए समय के पहले तैयार हो गया। बस्ता टाँग निकल रही था कि अपनी नानी (जो माँ ही है) को न बताने की हिम्मत न कर पाया। याद नहीं उन्होंने क्या कहा लेकिन मैं कुछ देर में शिविर स्थल पर था। कई बड़े लोगों की कतार में एक मैं ही बच्चा था जो 'बड़ा" होने आया था। इधर घड़ी 11 बजे की सूचना दे रही थी उधर स्कूल की घंटी बजने और देर होने पर सर की फटकार का डर हावी हो रहा था। लेकिन इस सब पर भारी था दाँत निकलवाने की खुशी।
आखिर मेरा नंबर भी आ गया। चिकित्सक सज्जन ने देखा और कहा-दाँत तो हिल ही रहा है। जल्दी उखड़ जाएगा। इसे निकालने की जरूरत नहीं है। मैं रूँआसा हो गया और जिद कर बैठा कि नहीं आप तो निकाल दो। मुझे दर्द होगा। वे मुस्कुराए और अपनी कला से बिना दर्द दिए मुझे 'बड़ा" बनाने की प्रक्रिया की ओर भेज दिया।
उस दिन खुशी-खुशी अपना दाँत लिए घुमता रहा। फिर किसी बुजुर्ग के कहने पर दाँत किसी मकान की छत पर फेंक दिया बेहतरी की कामना के साथ।
करीब 27 साल बाद ऐसा ही मौका मेरे जीवन में फिर आया जब एक दाँत निकलवाने जाना पड़ा। आज बड़े होने की खुशी नहीं बल्कि ज्यादा ही बड़े हो जाने का भय सता रहा था। शरीर के कमजोर होने की शुरूआत भीतर ही भीतर खाए जा रही थी। आज ज्यों ही चिकित्सक ने कहा-'दाढ़ निकाल देते हैं।" मैं चुप हो गया। जीभ फेर कर दाढ़ को अलविदा कहते इतना साथ देने के लिए शुक्रिया कहना चाहा। आखिर इसी के कारण में इतना रस प्राप्त कर पाया था।
खैर, दो दाँतों के जाने के बीच में मैं भरपूर जिया लेकिन इस उम्र में एक दाँत का साथ छोड़ कर जाना मुझे दार्शनिक बना रहा है। कुछ यूँ कि उम्र खत्म होने की चिंता होने लगी है और लगता है क्या कुछ कर पाया अब तक।
बचपन में सीखाया जाता था-जीभ नम्र होती है और दाँत सख्त। इसलिए जीभ अंत तक बनी रहती है और दाँत विदा हो जाते हैं असमय। सोचता हूँ, मैं कितना 'जीभ" हुआ और कितना 'दाँत"। कितना चला अब तक और कितना रहा बाकी। एक साथी के जाने का दुख तो है ही।