नागार्जुन की कविता -
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!
Thursday, December 30, 2010
Wednesday, December 29, 2010
मुझमें अटकी हैं आपकी साँसें
पत्रकार साथी मोहम्मद फैजान के खींचे फोटो पर अपनी बात
'मैं कभी भी गिर पडूँगा क्योंकि मेरे पैरों के नीचे की जमीन लगातार कम पड़ रही है। मुझे गिराने वाले हाथ तुम्हारे हैं और खतरा तुम पर भी है लेकिन तुम इस खतरे से अनजान हो। दुष्यंत के बोल में कहूँ तो -तुम्हारे पाँव के नीचे कोई जमीन नहीं/कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं।"
भोपाल की कलियासोत नदी में खड़ा यह पेड़ अगर बोल सकता तो शायद यही कहता। संभव है वह ठहाके मार इंसान के स्वार्थ पर मखौल उड़ाता। आखिर हम से ज्यादा स्वार्थी कौन होगा जो थोड़े से मुनाफे की खातिर अपने जीवन सहायक तंत्र को ही खत्म करने पर तूला है? इंसान सियासी भी है और स्वार्थी भी, तभी तो जिससे प्यार जताता है उसकी को काटता है।
यकीन न आए तो केवल नर्मदा पाइप लाइन बिछाने के दौरान काटे गए पेड़ों का हिसाब देख लीजिए। जवाब मिलेगा- 11 सौ पेड़। बीआरटीएस के तहत सड़क चौड़ी करने के लिए 2 हजार 333 और बीना से भोपाल के बीच तीसरी रेल लाइन के लिए 20 हजार पेड़ काटे जाएँगे। नानके पेट्रोल पम्प के सामने बाजार बनाने के लिए 78 हरे वृक्षों को मार दिया गया है। इन में उन पेड़ों का हिसाब नहीं है जिन्हं आपका आशियाना बनाने या सजाने के लिए काटा गया।
आप जानते हैं, भोपाल की हरियाली खत्म हो रही है। यकीन न हो तो इस रविवार कोलार, हथाईखेड़ा डेम, रायसेन रोड, भदभदा रोड, लहारपुर, बैरागढ़ चिचली, गोरा, बरखेड़ी कलां, फतेहपुर डोबरा, नीलबड़, बोरवन, खजूरीकलां व आसपास घूम कर तो आईए, सब पता लग जाएगा। यहाँ कॉलोनियां और शिक्षण संस्थानों के भवन बन रहे हैं और इन्हें भू उपयोग परिवर्तन की अनुमति उसी संचालनालय नगर तथा ग्राम निवेश ने ही जो पुराने पड़ चुके नए मास्टर प्लान के मसौदे में इस भूमि को कृषि और हरी भूमि मान रहा है!
अगर यह पेड़ बोल सकता तो जरूर कहता-
'आप मुझे तो नहीं बचा सकते लेकिन उन पेड़ों को जरूर बचा लीजिए जो आपके शहर में हरदिन काटे जा रहे हैं। वे पेड़ जिन्हें आपके पुरखों ने रोपा था कि आपको शुद्ध वायु मिल सके। अगर अभी नहीं जागे तो आपके बच्चों को साँस लेने में तकलीफ होगी।"
'मैं कभी भी गिर पडूँगा क्योंकि मेरे पैरों के नीचे की जमीन लगातार कम पड़ रही है। मुझे गिराने वाले हाथ तुम्हारे हैं और खतरा तुम पर भी है लेकिन तुम इस खतरे से अनजान हो। दुष्यंत के बोल में कहूँ तो -तुम्हारे पाँव के नीचे कोई जमीन नहीं/कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं।"
भोपाल की कलियासोत नदी में खड़ा यह पेड़ अगर बोल सकता तो शायद यही कहता। संभव है वह ठहाके मार इंसान के स्वार्थ पर मखौल उड़ाता। आखिर हम से ज्यादा स्वार्थी कौन होगा जो थोड़े से मुनाफे की खातिर अपने जीवन सहायक तंत्र को ही खत्म करने पर तूला है? इंसान सियासी भी है और स्वार्थी भी, तभी तो जिससे प्यार जताता है उसकी को काटता है।
यकीन न आए तो केवल नर्मदा पाइप लाइन बिछाने के दौरान काटे गए पेड़ों का हिसाब देख लीजिए। जवाब मिलेगा- 11 सौ पेड़। बीआरटीएस के तहत सड़क चौड़ी करने के लिए 2 हजार 333 और बीना से भोपाल के बीच तीसरी रेल लाइन के लिए 20 हजार पेड़ काटे जाएँगे। नानके पेट्रोल पम्प के सामने बाजार बनाने के लिए 78 हरे वृक्षों को मार दिया गया है। इन में उन पेड़ों का हिसाब नहीं है जिन्हं आपका आशियाना बनाने या सजाने के लिए काटा गया।
आप जानते हैं, भोपाल की हरियाली खत्म हो रही है। यकीन न हो तो इस रविवार कोलार, हथाईखेड़ा डेम, रायसेन रोड, भदभदा रोड, लहारपुर, बैरागढ़ चिचली, गोरा, बरखेड़ी कलां, फतेहपुर डोबरा, नीलबड़, बोरवन, खजूरीकलां व आसपास घूम कर तो आईए, सब पता लग जाएगा। यहाँ कॉलोनियां और शिक्षण संस्थानों के भवन बन रहे हैं और इन्हें भू उपयोग परिवर्तन की अनुमति उसी संचालनालय नगर तथा ग्राम निवेश ने ही जो पुराने पड़ चुके नए मास्टर प्लान के मसौदे में इस भूमि को कृषि और हरी भूमि मान रहा है!
अगर यह पेड़ बोल सकता तो जरूर कहता-
'आप मुझे तो नहीं बचा सकते लेकिन उन पेड़ों को जरूर बचा लीजिए जो आपके शहर में हरदिन काटे जा रहे हैं। वे पेड़ जिन्हें आपके पुरखों ने रोपा था कि आपको शुद्ध वायु मिल सके। अगर अभी नहीं जागे तो आपके बच्चों को साँस लेने में तकलीफ होगी।"
Monday, December 27, 2010
वायदा कारोबार से शकर होगी कड़वी
केन्द्र सरकार ने 5 लाख टन शकर के निर्यात को हरी झंडी दे है। इस फैसले का मकसद अंतराष्ट्रीय बाजार में शकर के बढ़ते भावों का फायदा उठाना है, लेकिन इस निर्णय के बाद चीनी के दाम में तत्काल इजाफा हो गया। अब सोमवार से 19 महीनों बाद राजधानी सहित देश के अन्य हिस्सों में इसका वायदा कारोबार फिर शुरु हो गया है। ऐसे में शकर फिर कड़वी होने का अंदेशा है। पहले ही महंगाई की मार से त्रस्त जनता के लिए यह एक और झटका होगा।
उल्लेखनीय है कि दो साल पहले भी शकर के आसमानी भावों ने आम लोगों को हलकान कर दिया था। शकर का वायदा बाजार शुरु होते ही इसके दाम 45 रु. किलो तक जा पहुँचे थे। भारी आलोचना और हंगामें के बाद सरकार ने मई 2009 में शक्कर के वायदा कारोबार पर रोक लगा दी थी। लेकिन अब वायदा बाजार आयोग (एफसीसी) ने शकर की खरीद बिक्री को औपचारिक मंजूरी दे दी है। सूत्रों के अनुसार यह अनुमति चीनी के बेहतर उत्पादन की संभावना को देखते हुए दी गई है। उद्योग जगत को इस साल 2 करोड़ 55 लाख टन शकर पैदावार की उम्मीद है। जबकि सरकारी अनुमान 2 करोड़ 45 लाख टन का बताया जा रहा है। नेशनल फेडरेशन ऑफ कोऑपरेटिव शुगर फैक्टरीज का अनुमान है कि 2010-11 में देश में गन्ना उत्पादन 10 प्रतिशत बढ़कर करीब 30 करोड़ टन पहुँच जाएगा। वर्ष 2009-10 में 27.4 करोड़ टन गन्नाा उपजाया गया था।
उधर, विशेषज्ञों का मानना है कि शकर के निर्यात और वायदा कारोबार शुरू होने के साथ ही शकर के दाम फिर आसमान पर चले जाएँगे। उदाहरण के लिए 1 दिसंबर 2010 को शकर 29 रु.किलो बिक रही थी, लेकिन 20 दिसंबर को केन्द्रीय कृषि मंत्री का बयान आते ही शकर के दाम अब 34 रु. किलो हो गए। हमे याद रखना होगा कि यह वायदा कारोबार ही था, जिसके कारण 2006 में 12 रुपए किलो बिकने वाली चीनी के दाम चालीस पार चले गए थे।
यह भी एक घोटाला है
अर्थशास्त्री डॉ. आरएस तिवारी कहते हैं कि शकर मिलों और केन्द्रीय मंत्री शरद पवार का रिश्ता किसी से छिपा नहीं है। चीनी को वायदा कारोबार में शामिल करने से जनता का फायदा नहीं होने वाला। आवश्यक वस्तुओं को वायदा कारोबार में शामिल करना दरअसल एक तरह का आर्थिक घोटाला ही है।
डिलीवरी आधारित हो कारोबार
कल्पतरू इंवेस्टर्स के आदित्य जैन मनयां कहते हैं कि सरकार को शकर मिल मालिकों और किसानों को फायदा देना और कीमतों पर लगाम रखना है तो शकर मिल मालिकों और किसानों को फायदा देना और कीमतों पर भी लगाम रखना है तो उसे शकर सहित आवश्यक वस्तुओं का वायदा कारोबार डिलीवरी आधारित करना चाहिए। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में ऐसा होता है।
उल्लेखनीय है कि दो साल पहले भी शकर के आसमानी भावों ने आम लोगों को हलकान कर दिया था। शकर का वायदा बाजार शुरु होते ही इसके दाम 45 रु. किलो तक जा पहुँचे थे। भारी आलोचना और हंगामें के बाद सरकार ने मई 2009 में शक्कर के वायदा कारोबार पर रोक लगा दी थी। लेकिन अब वायदा बाजार आयोग (एफसीसी) ने शकर की खरीद बिक्री को औपचारिक मंजूरी दे दी है। सूत्रों के अनुसार यह अनुमति चीनी के बेहतर उत्पादन की संभावना को देखते हुए दी गई है। उद्योग जगत को इस साल 2 करोड़ 55 लाख टन शकर पैदावार की उम्मीद है। जबकि सरकारी अनुमान 2 करोड़ 45 लाख टन का बताया जा रहा है। नेशनल फेडरेशन ऑफ कोऑपरेटिव शुगर फैक्टरीज का अनुमान है कि 2010-11 में देश में गन्ना उत्पादन 10 प्रतिशत बढ़कर करीब 30 करोड़ टन पहुँच जाएगा। वर्ष 2009-10 में 27.4 करोड़ टन गन्नाा उपजाया गया था।
उधर, विशेषज्ञों का मानना है कि शकर के निर्यात और वायदा कारोबार शुरू होने के साथ ही शकर के दाम फिर आसमान पर चले जाएँगे। उदाहरण के लिए 1 दिसंबर 2010 को शकर 29 रु.किलो बिक रही थी, लेकिन 20 दिसंबर को केन्द्रीय कृषि मंत्री का बयान आते ही शकर के दाम अब 34 रु. किलो हो गए। हमे याद रखना होगा कि यह वायदा कारोबार ही था, जिसके कारण 2006 में 12 रुपए किलो बिकने वाली चीनी के दाम चालीस पार चले गए थे।
यह भी एक घोटाला है
अर्थशास्त्री डॉ. आरएस तिवारी कहते हैं कि शकर मिलों और केन्द्रीय मंत्री शरद पवार का रिश्ता किसी से छिपा नहीं है। चीनी को वायदा कारोबार में शामिल करने से जनता का फायदा नहीं होने वाला। आवश्यक वस्तुओं को वायदा कारोबार में शामिल करना दरअसल एक तरह का आर्थिक घोटाला ही है।
डिलीवरी आधारित हो कारोबार
कल्पतरू इंवेस्टर्स के आदित्य जैन मनयां कहते हैं कि सरकार को शकर मिल मालिकों और किसानों को फायदा देना और कीमतों पर लगाम रखना है तो शकर मिल मालिकों और किसानों को फायदा देना और कीमतों पर भी लगाम रखना है तो उसे शकर सहित आवश्यक वस्तुओं का वायदा कारोबार डिलीवरी आधारित करना चाहिए। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में ऐसा होता है।
Thursday, December 16, 2010
पेट्रोल की मात्रा पर कर क्यों नहीं लगाते सरकार!
पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि से परेशान जनता का यह एक सवाल मँहगाई पर घड़ियाली आँसू बहा रही राजनीतिक दलों को खामोश कर सकता है।
पेट्रोल-डीजल की लगातार बढ़ती कीमतों और उसके कारण टैक्स की कमरतोड़ मार से जनता हलाकान है। जब टैक्स घटाने की बात आती है तो केन्द्र और राज्य सरकारें एक दूसरे पर ठीकरा फोड़ने लगती है। कर कम करने की पहल कोई नहीं करना चाहता। विशेषज्ञों के अनुसार सरकारें यदि टैक्स पेट्रोलियम पदार्थ के मूल्य के बजाए मात्रा पर लगाना शुरु कर दें तो भी अवाम को 2 रु. प्रति लीटर की राहत मिल सकती है। हकीकत यह है कि केन्द्र व राज्य सरकारें मिलकर पेट्रोल-डीजल पर 55 फीसदी कर वसूल रही हैं। इससे हर साल पौने 2 सौ हजार करोड़ रु. से अधिक की कमाई हो रही है।
दरअसल पेट्रोल की 50 फीसदी और डीजल की 31 फीसदी कीमत सरकारों द्वारा लगाए जाने वाले करों एक्साइज ड्यूटी और वेट के कारण ज्यादा है। 2001-02 में केन्द्र और राज्य सरकारें तेल क्षेत्र से करीब 73 हजार 800 करोड़ कमाती थी। 2007-08 में यह आँकड़ा 164 हजार करोड़ हो गया। जिस तेजी से पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ रहे हैं, उतनी ही तेजी से कम्पनियों और सरकार का मुनाफा भी। मुनाफे की एक वजह कर निर्ध्ाारण का तरीका भी है। करीब 25 फीसदी कर केंद्र सरकार लगाती है तो करीब 30 फीसदी कर राज्य सरकार लगाती है। उत्पाद शुल्क का एक हिस्सा और राज्य सरकार द्वारा लगाए जा रहे सभी कर 'एड वेलोरम" लगाए जाते हैं यानी ये कर मात्रा पर नहीं बल्कि कीमत पर लगाए जाते हैं। अगर कीमत बढ़ेगी तो कर की दर भी बढ़ेगी। विशेषज्ञ बताते हैं कि मात्रा के आध्ाार पर कर लगाने से दाम में करीब 2 रूपए तक की गिरावट हो सकती है।
घाटा केवल वितरक कंपनियों का
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ने पर दाम बढ़ाने के लिए हायतौबा मचती है। दाम बढ़ाने के लिए जिस घाटे का हवाला दिया जाता है वह केवल विक्रेता कम्पनी का घाटा है। तेल उत्पादक कम्पनियाँ तो हमेशा फायदे में रहती है। खुदरा तेल बेचने वाली हिंदुस्तान पेट्रोलियम या भारत पेट्रोलियम जैसी कंपनियां तेलशोधक कारखानों से तेल उस कीमत पर खरीदती हैं, जिस कीमत पर ये तेल उन्हें आयात करने पर मिला होता। इस कीमत में कर और ढ़ुलाई का खर्चा शामिल होता है। इन कम्पनियों को भारत में ही उत्पादित होने वाला तेल आयात वाले दामों पर ही दिया जाता है। तेल के इस खेल में जनता पीसती है और सरकार व कम्पनियाँ मुनाफा कमाती है।
# तेल पर सरकार 'एड वेलोरम" कर लगाती है। यह कीमत पर लगने वाला कर है। अगर इसे मात्रा पर लगाया जाए तो पेट्रोल-डीजल की कीमत कम हो जाएगी।
आरएस तिवारी, अर्थशास्त्री
पेट्रोल-डीजल की लगातार बढ़ती कीमतों और उसके कारण टैक्स की कमरतोड़ मार से जनता हलाकान है। जब टैक्स घटाने की बात आती है तो केन्द्र और राज्य सरकारें एक दूसरे पर ठीकरा फोड़ने लगती है। कर कम करने की पहल कोई नहीं करना चाहता। विशेषज्ञों के अनुसार सरकारें यदि टैक्स पेट्रोलियम पदार्थ के मूल्य के बजाए मात्रा पर लगाना शुरु कर दें तो भी अवाम को 2 रु. प्रति लीटर की राहत मिल सकती है। हकीकत यह है कि केन्द्र व राज्य सरकारें मिलकर पेट्रोल-डीजल पर 55 फीसदी कर वसूल रही हैं। इससे हर साल पौने 2 सौ हजार करोड़ रु. से अधिक की कमाई हो रही है।
दरअसल पेट्रोल की 50 फीसदी और डीजल की 31 फीसदी कीमत सरकारों द्वारा लगाए जाने वाले करों एक्साइज ड्यूटी और वेट के कारण ज्यादा है। 2001-02 में केन्द्र और राज्य सरकारें तेल क्षेत्र से करीब 73 हजार 800 करोड़ कमाती थी। 2007-08 में यह आँकड़ा 164 हजार करोड़ हो गया। जिस तेजी से पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ रहे हैं, उतनी ही तेजी से कम्पनियों और सरकार का मुनाफा भी। मुनाफे की एक वजह कर निर्ध्ाारण का तरीका भी है। करीब 25 फीसदी कर केंद्र सरकार लगाती है तो करीब 30 फीसदी कर राज्य सरकार लगाती है। उत्पाद शुल्क का एक हिस्सा और राज्य सरकार द्वारा लगाए जा रहे सभी कर 'एड वेलोरम" लगाए जाते हैं यानी ये कर मात्रा पर नहीं बल्कि कीमत पर लगाए जाते हैं। अगर कीमत बढ़ेगी तो कर की दर भी बढ़ेगी। विशेषज्ञ बताते हैं कि मात्रा के आध्ाार पर कर लगाने से दाम में करीब 2 रूपए तक की गिरावट हो सकती है।
घाटा केवल वितरक कंपनियों का
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ने पर दाम बढ़ाने के लिए हायतौबा मचती है। दाम बढ़ाने के लिए जिस घाटे का हवाला दिया जाता है वह केवल विक्रेता कम्पनी का घाटा है। तेल उत्पादक कम्पनियाँ तो हमेशा फायदे में रहती है। खुदरा तेल बेचने वाली हिंदुस्तान पेट्रोलियम या भारत पेट्रोलियम जैसी कंपनियां तेलशोधक कारखानों से तेल उस कीमत पर खरीदती हैं, जिस कीमत पर ये तेल उन्हें आयात करने पर मिला होता। इस कीमत में कर और ढ़ुलाई का खर्चा शामिल होता है। इन कम्पनियों को भारत में ही उत्पादित होने वाला तेल आयात वाले दामों पर ही दिया जाता है। तेल के इस खेल में जनता पीसती है और सरकार व कम्पनियाँ मुनाफा कमाती है।
# तेल पर सरकार 'एड वेलोरम" कर लगाती है। यह कीमत पर लगने वाला कर है। अगर इसे मात्रा पर लगाया जाए तो पेट्रोल-डीजल की कीमत कम हो जाएगी।
आरएस तिवारी, अर्थशास्त्री
Wednesday, December 8, 2010
सम्पत्ति राजसात हो तो रूके भ्रष्टाचार
जस्टिस पीडी मूले ने छेड़ी कानून में संशोधन की मुहिम
घोटाले पर घोटाले। हर दिन पिछले से बड़े घोटाले का खुलासा। भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के सारे इंतजाम हर बार बौने साबित हो जाते हैं। कहीं इसकी वजह पक ड़े जाने पर कम सजा का प्रावधान तो नहीं? यह विचार इसलिए कि दोषी सजा पूरी होने के बाद काले धन से वह आराम से जिंदगी बसर करता है। वहाँ सामाजिक लांछन जैसे किसी डर की कोई वजह नहीं होती। एक विचार है कि अगर मामले का खुलासा होते ही दोषी की पूरी सम्पत्ति जब्त कर ली जाए तो कोई भी भ्रष्टाचार करने के पहले दो बार सोचेगा। शायद यह तरीका काम कर जाए।
देवास के विशेष प्रधान अपर सत्र न्यायाधीश पीके व्यास ने भ्रष्ट्राचार के एक मामले में लोक निर्माण विभाग शाजापुर के उपयंत्री प्रीतमसिंह पर 5 करोड़ रूपए का जुर्माना और 3 वर्ष की कठोर कैद की सजा सुनाई है। इस सजा के बाद बहस चल पड़ी है कि भ्रष्टाचार पर कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए। अभी बड़े घोटाले के बाद भी दोषी को कुछ साल की जेल और छोटा अर्थ दंड दिया जाता है। सजा भोगने के बाद घोटाले की सारी रकम जायज हो जाती है और वह ता-उम्र परिवार के संग भ्रष्टाचार का आनंद भोगता है। ऐसे भ्रष्टाचार पर नकेल नहीं कसेगी। भ्रष्टाचार रोकना है तो हमें इसके कानून का सख्त करना होगा। इसी तर्क के साथ उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस पीडी मूले ने इंदौर से एक मुहिम चला रखी है। वे कहते हैं कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1998 में ऐसा प्रावधान है ही नहीं कि दोषी की सम्पत्ति को जब्त या राजसात किया जा सके। जबकि खाद्य, औषधि या अन्य मामलों में अवैध सामान जब्त कर लिया जाता है। बिना विष के साँप से कौन डरेगा? अगर इस कानून को प्रभावी बनाना है तो तत्काल अधिनियम में संशोधन होना चाहिए और सम्पत्ति जब्त करने का बिंदू जोड़ा जाना चाहिए।
श्री मूले अपनी इस एकल मुहिम को बरसों से जारी रखे हुए हैं और वे सांसदों, कानून मंत्री, सर्वोच्च न्यायालय सहित हर संभव मंच पर अपनी इस बात को रखते हैं। उनके इस तर्क पर सभी सहमति जो जताते हैं लेकिन कानून में बदलाव की पहल कोई नहीं करता। अफसर और नेता यह नहीं चाहते क्योंकि बदलाव होगा तो वे ही फँसेंगे। श्री मूले मानते हैं कि यह सही समय है जब जनता व मीडिया को अपनी आवाज बुलंद करना चाहिए।
आपका क्या ख्याल है?
घोटाले पर घोटाले। हर दिन पिछले से बड़े घोटाले का खुलासा। भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के सारे इंतजाम हर बार बौने साबित हो जाते हैं। कहीं इसकी वजह पक ड़े जाने पर कम सजा का प्रावधान तो नहीं? यह विचार इसलिए कि दोषी सजा पूरी होने के बाद काले धन से वह आराम से जिंदगी बसर करता है। वहाँ सामाजिक लांछन जैसे किसी डर की कोई वजह नहीं होती। एक विचार है कि अगर मामले का खुलासा होते ही दोषी की पूरी सम्पत्ति जब्त कर ली जाए तो कोई भी भ्रष्टाचार करने के पहले दो बार सोचेगा। शायद यह तरीका काम कर जाए।
देवास के विशेष प्रधान अपर सत्र न्यायाधीश पीके व्यास ने भ्रष्ट्राचार के एक मामले में लोक निर्माण विभाग शाजापुर के उपयंत्री प्रीतमसिंह पर 5 करोड़ रूपए का जुर्माना और 3 वर्ष की कठोर कैद की सजा सुनाई है। इस सजा के बाद बहस चल पड़ी है कि भ्रष्टाचार पर कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए। अभी बड़े घोटाले के बाद भी दोषी को कुछ साल की जेल और छोटा अर्थ दंड दिया जाता है। सजा भोगने के बाद घोटाले की सारी रकम जायज हो जाती है और वह ता-उम्र परिवार के संग भ्रष्टाचार का आनंद भोगता है। ऐसे भ्रष्टाचार पर नकेल नहीं कसेगी। भ्रष्टाचार रोकना है तो हमें इसके कानून का सख्त करना होगा। इसी तर्क के साथ उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस पीडी मूले ने इंदौर से एक मुहिम चला रखी है। वे कहते हैं कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1998 में ऐसा प्रावधान है ही नहीं कि दोषी की सम्पत्ति को जब्त या राजसात किया जा सके। जबकि खाद्य, औषधि या अन्य मामलों में अवैध सामान जब्त कर लिया जाता है। बिना विष के साँप से कौन डरेगा? अगर इस कानून को प्रभावी बनाना है तो तत्काल अधिनियम में संशोधन होना चाहिए और सम्पत्ति जब्त करने का बिंदू जोड़ा जाना चाहिए।
श्री मूले अपनी इस एकल मुहिम को बरसों से जारी रखे हुए हैं और वे सांसदों, कानून मंत्री, सर्वोच्च न्यायालय सहित हर संभव मंच पर अपनी इस बात को रखते हैं। उनके इस तर्क पर सभी सहमति जो जताते हैं लेकिन कानून में बदलाव की पहल कोई नहीं करता। अफसर और नेता यह नहीं चाहते क्योंकि बदलाव होगा तो वे ही फँसेंगे। श्री मूले मानते हैं कि यह सही समय है जब जनता व मीडिया को अपनी आवाज बुलंद करना चाहिए।
आपका क्या ख्याल है?
Wednesday, November 24, 2010
किताब सी तुम
जिंदगी क्या है? कभी सोचा तुमने? मैं सोचता रहता हूँ अकसर। जब कभी में होता हूँ इश्क में तो गुमान होता है कि मैं इक शायर और जिंदगी मेरी गजल जैसे। कभी-कभी मैं होता अफसानानिगार और ये जिंदगी सुहाना अफसाना जैसे। कभी मिल जाए तो जगमग रोशनी और न मिले तो रूमानी ख्याल जैसे।
'अमां यार, तुम भी क्या जिंदगी को समझाने बैठ गए। यह कोई किताब है कि पन्ने दो पन्ने पढ़े और जान लिया कि बंद किताब में क्या लिखा है लिखने वाले ने। फिजुल कहते हो कि किताबों की तरह है जिंदगी और इंसान एक-एक पन्ने , एक-एक हर्फ की तरह। जिंदगी को समझने चले हो पहले इंसानों को तो समझ लो।'
मैं गलत नहीं कहता मियाँ। जिंदगी मेरे लिए एक किताब ही है और इंसान इसके किरदार। यकीन न हो तो कुछ नमूना पेश करूँ? कहो तो? रूठ गए लगता है। चलो, मैं ही बताता हूँ। वह एक किरदार था या जाने कोई किताब, पर था बड़ा मनमौजी। वरक देख कर लगता था कि किताब बड़ी रोचक होगी। जब से देखा था उसे लगता था, जब खुलेंगे पन्ने , एक-एक कर तो जाने क्या सितम गुजरेगा। खुदा जाने कहर बरपेगा या कयामत होगी। सुनने वाले बताते हैं, वह जो किरदार था सच में किसी किताब से कम न था। बोले तो तोल कर ऐसे कि अच्छो-अच्छो को चुप कर दे।
साहब, बताते हैं कि हर बात उसकी जैसे सोलह आने सच। ऐसे ही किस्सों के चलते वह किताब मेरी जिंदगी का एक किरदार हो गई भी समझो। सोते, जागते हरदम लगता था कब वह हाथ लगे और पढ़ डालूँ उसे। एक ही रात में एक ही साँस में। पता है, वह उन सारे किरदारों में सबसे जुदा थी जो खुदा ने रखे थे उसके साथ। एक दम सुनहरी जिल्द वाली उस रूहानी किताब की तरह जो शेल्फ में सजी दूसरी किताबों से अलग, साफ दिखाई दे जाती है, अपनी चमक और दमक से। कहते हैं, किताब का वजन उसके आकार को देख कर तय नहीं करना चाहिए। यह किताब भी कुछ ऐसी ही थी। देखो तो बित्ती सी, जानो तो जैसे कभी खत्म ही ना होगी। सोचता था लिखने वाले ने भी क्या कयामत कही होगी। जब भी शेल्फ में रखी इस किताब को देखता तो बस देखता ही रहता। मन करता कि जरा हाथ बढ़ा कर उसे अपने कब्जे में ले लूँ और पढ़ डालूँ उसके एक-एक हर्फ को। काश! वो मौका जल्दी आ जाए।
' फिर? फिर क्या हुआ? वह किताब तुम्हें मिली? कभी तुमने पढ़ी वो किताब?'
अच्छा मियाँ! मेरी सुन रहे थे? मैं तो समझा तुम खो गए होगे किसी किरदार के सपनों में। अब तुमने पूछा है तो बताता हूँ। हाँ, हाँ, हाँ। वह किताब मेरे हाथ भी लगी और मैंने पढ़ी भी। खूब पढ़ी। हुआ यूँ कि एक दिन मौका पा कर मैंने दुकानदार की नजर बचा उस किताब को कुछ देर के लिए चुरा लिया और ले आया अपने पसंद के कॉफी शॉप पर। तुम उसे रेस्त्रां भी कह सकते हो। समय कम था और मैं हैरां। क्या खोलूँ, क्या जानूँ। कुछ समझ नहीं पा रहा था। जल्दी-जल्दी कुछ पन्नो पलटे। किताब नहीं जैसे जिंदगी की इबारत थी। हर लाइन एक फलसफा। हर हर्फ एक घटना। सबकुछ जाना तो यह पाया कि यह किताब कितनी उजली है! जैसे स्याह रात में चमकता जुगनू।
'फिर?फिर? क्या जाना?'
मैंने कहा ना, वक्त कम था तो जल्दी से कुछ हर्फ पढ़, रख आया उसे अपने ठिकाने पर ऐसे जैसे कुछ हुआ ही न हो। वो भी अपने रैक में रखी ऐसे मुस्कुरा रही थी जैसे मेरी छुअन के निशान दिखा कर मुँह चिड़ा रही हो मुझको। मियाँ,ऐसे एक-एक दिन, एक-एक लम्हा में पढ़ता गया उसे जैसे वह एक किताब हो। कभी उसकी जुबानी सुनी, कभी मैंने खुद खोले राज जो दफ्न थे उसके भीतर, घटनाएँ बन कर। अब सोचता हूँ उस नन्हीं-सी किताब में जाने कितने जमाने बिखरे पड़े थे। कभी उसकी पंक्तियाँ यूँ चमक उठती जैसे खिलखिला के हँसता है कोई और कभी वो ऐसे झूम के लग जाती गले कि माशूका-सी महसूस होती। कभी उसकी गुत्थियाँ यूँ पीछे पड़ती जैसे दुश्वारियाँ। कभी साथ चल पड़ती ऐसे, जैसे हमारा कोई दूसरा वजूद न हो। क्या जाने वो किताब थी या प्रेमी मेरी?
क्या कहूँ? क्या बताऊँ, क्या छुपाऊँ? उसे पढ़ते-पढ़ते लगा जैसे उसको पहले से जानता हूँ मैं। कभी लगता कि ऐसा होता उसके एक किरदार का नाम मेरा होता। मैं कभी उसके संग समंदर की लहरों में छलांगें लगाता, कभी गोद में उसकी सर रख, सो ही जाता। क्या भरोसा वो सो जाती कभी मेरी तहों में जैसे खो जाते है दो जिस्म चादर की सिलवटों में। क्या जाने, क्या होता। वो मेरी होती, मैं उसका होता।
'मियां, तुम तो कविता कहने लगे। अपना अफसाना ना बताओ। जरा वो सुनाओ जो तुमने पढ़ा था उस किताब में।'
हाँ, हाँ। वही सुनाता हूँ। एक दिन, दो दिन, तीन दिन। दिन, महीना, साल गुजरते गए। किताब मेरे संग ही रहने लगी। मुँहबोली हो गई मेरी। कभी मेरे संग सो जाती, कभी जी करता तो दूर तक टहल आती और कभी जी करता तो कुतर देती मुझे अपने पैने दाँतों से। दाँत! हाँ, विचार दाँत ही तो होते हैं ना।
'सच कहते हैं किताबों को गौर से पढ़ो तो वे बिल्कुल अपनी जान पड़ती है, जरा करीब जाओ तो डूब जाओ उसकी खुमारी में।'
खूब जाना मैंने उसे। कभी हाथों के बीच रख कर पढ़ा तो कभी संग लेकर खो गया ख्वाबों में। कुछ रातें जली ऐसे जैसे घी-बाती रोशन कर रही हो सूरज से किया वादा। उजास सी वह किताब जब भी पढ़ी मैंने, हर बार हर्फ ने उसके मुझमें उगाए अर्थ कई नए।
'यह भी खूब कही। मियाँ तुम किताब का किस्सा सुनाते हो या अपनी हाँक लगाते हो? उस किताब के किस्से में अपना दर्द, अपना रंज क्यों मिलाते हो?'
माफ करना मियां। सच कहते हो। वह किताब भी कहती है-'तुम क्या जानों। हर सुख में जीने वाले। तुम्हें क्या पता, कैसे बनती है किस्मत और कैसे बिगड़ती है सूरत अपने इरादों की। कौन है जो तुम्हें बार-बार तोड़ने, मोड़ने की कोशिश करता है? तुम तो अपने मन के राजा हो। जब चाहे जो करते हो? बताओ कभी किसी ने किया तुमसे कोई सवाल? बोलो? बोलो कभी किसी ने लगाया तुम्हारा मोल? कभी तुम सजाए गए शेल्फ में? कभी तुमने कुर्बान की बेहतर इंसान से पढ़े जाने की हसरत? तुम किताब कहते हो मुझे। जिंदगी हूँ मैं! भले कितना पढ़ लो, समझ न पाओगे।"
सच कहती थी वह। कहाँ मैंने समझा है? कितने ही पन्ने बिना सुलझे रह गए। जवाब खोजते खोजते और भटक गया मैं। जवाब माँगा तो कहने लगी- 'बस, थक गए। ये प्रेम का दरिया है और डूब कर जाना है। जब तुम्हे लगे कि पार कर गया मैं, तभी समझना कि आगे कोई मुसीबत पेश होने को है। नाउम्मीद मत होना। असल में ये उम्मीद भी तो एक मुसीबत है। अपने पास है तो मुसीबत ना है तो मुसीबत। तुम ही बताओ कौन सी मुसीबत अजीज है।"
भई, ये किताब क्या कहती है, अपनी तो कुछ समझ ही नहीं आता। जब भी उलझ जाती है जिंदगी, मैं खामोशी का चादर ओढ़ लेता हूँ जैसे बोझिल होने पर किताब बंद कर सो जाते हैं मुसाफिर।
जानते हो मियाँ। जिंदगी को हम ही नहीं पढ़ते वो भी हमें पढ़ती है, आजमाती है। और कभी-कभी हमारी बोलती भी बंद कर देती है। तभी तो हम कहते हैं जिंदगी का कोई जवाब नहीं। कुछ ऐसी ही किताबें भी होती हैं। कितना ही पढ़ो, लगता है, कुछ न जाना हमने। हर बार जब भी खोलो कोई पेज तो लगता है कुछ नया-नया सा है इन हर्फों में। भले दर्जनों बार पढ़ा हो उन पंक्तियों को। बीसियों बार फेर के हाथ देखा हो कुछ उठी, कुछ गिरी बुनावटों को।
एक बार की और बात बताऊँ। शायद सपना था, या सपने सी थी कोई हकीकत मेरी। किताब को हाथ में ले बैठ गया मैं। कभी वरक के छू कर महसूसता तो कभी पलट कर उसे गालों से लगा लेता अपने। ऐसे महसूस करता मैं उसकी ािग्ध्ाता। कभी सहलाता रहता उसके हर्फों को जैसे जिस्म हो आगोश में और चैन खोज रहा हूँ मैं। वो उलटती-पलटती, कभी झुकती मेरे काँधें पर कभी गिरती मेरी गोद में, कभी हाथों में समा कर मेरे, खुद को भिगो लेती अपने ही वजूद में। किताबों का बातें करने का जरिया कितना अलहदा है, हम इंसानों से! वह भी मुझे उतार लेती भीतर अपने। कभी बेकरार लौट कर जाने न दिया। जब कभी विचारों ने पैदा की गर्मी तो वह ठंडा पानी डालती अपनी ओर से और कहती अभी तुम सही, बाद में सोचोगे तो जान जाओगे किताबें कभी गलत नहीं होती। क्या जिंदगी के किसी फलसफे को तुम गलत साबित कर पाए हो, चाहे जीवन भर कितने ही दफे उसके खिलाफ बका हो तुमने। जब कभी फूलने लगती नसें मेरी, वही तो थी तो इत्मिनान से थामती और बहा ले जाती संग। उसे पढ़ते-पढ़ते कितनी ही बार तटबँध तोड़ बही है धाराएँ , कितने ही मानसून बरसे हैं और कितने ही पतझड़ में पीले पात झरे हैं।
सोचता हूँ जिंदगी और किताब में कुछ अंतर होता है क्या?
या अपनी पसंद की किताब ही अपनी पसंद का किरदार होती है?
'अमां यार, तुम भी क्या जिंदगी को समझाने बैठ गए। यह कोई किताब है कि पन्ने दो पन्ने पढ़े और जान लिया कि बंद किताब में क्या लिखा है लिखने वाले ने। फिजुल कहते हो कि किताबों की तरह है जिंदगी और इंसान एक-एक पन्ने , एक-एक हर्फ की तरह। जिंदगी को समझने चले हो पहले इंसानों को तो समझ लो।'
मैं गलत नहीं कहता मियाँ। जिंदगी मेरे लिए एक किताब ही है और इंसान इसके किरदार। यकीन न हो तो कुछ नमूना पेश करूँ? कहो तो? रूठ गए लगता है। चलो, मैं ही बताता हूँ। वह एक किरदार था या जाने कोई किताब, पर था बड़ा मनमौजी। वरक देख कर लगता था कि किताब बड़ी रोचक होगी। जब से देखा था उसे लगता था, जब खुलेंगे पन्ने , एक-एक कर तो जाने क्या सितम गुजरेगा। खुदा जाने कहर बरपेगा या कयामत होगी। सुनने वाले बताते हैं, वह जो किरदार था सच में किसी किताब से कम न था। बोले तो तोल कर ऐसे कि अच्छो-अच्छो को चुप कर दे।
साहब, बताते हैं कि हर बात उसकी जैसे सोलह आने सच। ऐसे ही किस्सों के चलते वह किताब मेरी जिंदगी का एक किरदार हो गई भी समझो। सोते, जागते हरदम लगता था कब वह हाथ लगे और पढ़ डालूँ उसे। एक ही रात में एक ही साँस में। पता है, वह उन सारे किरदारों में सबसे जुदा थी जो खुदा ने रखे थे उसके साथ। एक दम सुनहरी जिल्द वाली उस रूहानी किताब की तरह जो शेल्फ में सजी दूसरी किताबों से अलग, साफ दिखाई दे जाती है, अपनी चमक और दमक से। कहते हैं, किताब का वजन उसके आकार को देख कर तय नहीं करना चाहिए। यह किताब भी कुछ ऐसी ही थी। देखो तो बित्ती सी, जानो तो जैसे कभी खत्म ही ना होगी। सोचता था लिखने वाले ने भी क्या कयामत कही होगी। जब भी शेल्फ में रखी इस किताब को देखता तो बस देखता ही रहता। मन करता कि जरा हाथ बढ़ा कर उसे अपने कब्जे में ले लूँ और पढ़ डालूँ उसके एक-एक हर्फ को। काश! वो मौका जल्दी आ जाए।
' फिर? फिर क्या हुआ? वह किताब तुम्हें मिली? कभी तुमने पढ़ी वो किताब?'
अच्छा मियाँ! मेरी सुन रहे थे? मैं तो समझा तुम खो गए होगे किसी किरदार के सपनों में। अब तुमने पूछा है तो बताता हूँ। हाँ, हाँ, हाँ। वह किताब मेरे हाथ भी लगी और मैंने पढ़ी भी। खूब पढ़ी। हुआ यूँ कि एक दिन मौका पा कर मैंने दुकानदार की नजर बचा उस किताब को कुछ देर के लिए चुरा लिया और ले आया अपने पसंद के कॉफी शॉप पर। तुम उसे रेस्त्रां भी कह सकते हो। समय कम था और मैं हैरां। क्या खोलूँ, क्या जानूँ। कुछ समझ नहीं पा रहा था। जल्दी-जल्दी कुछ पन्नो पलटे। किताब नहीं जैसे जिंदगी की इबारत थी। हर लाइन एक फलसफा। हर हर्फ एक घटना। सबकुछ जाना तो यह पाया कि यह किताब कितनी उजली है! जैसे स्याह रात में चमकता जुगनू।
'फिर?फिर? क्या जाना?'
मैंने कहा ना, वक्त कम था तो जल्दी से कुछ हर्फ पढ़, रख आया उसे अपने ठिकाने पर ऐसे जैसे कुछ हुआ ही न हो। वो भी अपने रैक में रखी ऐसे मुस्कुरा रही थी जैसे मेरी छुअन के निशान दिखा कर मुँह चिड़ा रही हो मुझको। मियाँ,ऐसे एक-एक दिन, एक-एक लम्हा में पढ़ता गया उसे जैसे वह एक किताब हो। कभी उसकी जुबानी सुनी, कभी मैंने खुद खोले राज जो दफ्न थे उसके भीतर, घटनाएँ बन कर। अब सोचता हूँ उस नन्हीं-सी किताब में जाने कितने जमाने बिखरे पड़े थे। कभी उसकी पंक्तियाँ यूँ चमक उठती जैसे खिलखिला के हँसता है कोई और कभी वो ऐसे झूम के लग जाती गले कि माशूका-सी महसूस होती। कभी उसकी गुत्थियाँ यूँ पीछे पड़ती जैसे दुश्वारियाँ। कभी साथ चल पड़ती ऐसे, जैसे हमारा कोई दूसरा वजूद न हो। क्या जाने वो किताब थी या प्रेमी मेरी?
क्या कहूँ? क्या बताऊँ, क्या छुपाऊँ? उसे पढ़ते-पढ़ते लगा जैसे उसको पहले से जानता हूँ मैं। कभी लगता कि ऐसा होता उसके एक किरदार का नाम मेरा होता। मैं कभी उसके संग समंदर की लहरों में छलांगें लगाता, कभी गोद में उसकी सर रख, सो ही जाता। क्या भरोसा वो सो जाती कभी मेरी तहों में जैसे खो जाते है दो जिस्म चादर की सिलवटों में। क्या जाने, क्या होता। वो मेरी होती, मैं उसका होता।
'मियां, तुम तो कविता कहने लगे। अपना अफसाना ना बताओ। जरा वो सुनाओ जो तुमने पढ़ा था उस किताब में।'
हाँ, हाँ। वही सुनाता हूँ। एक दिन, दो दिन, तीन दिन। दिन, महीना, साल गुजरते गए। किताब मेरे संग ही रहने लगी। मुँहबोली हो गई मेरी। कभी मेरे संग सो जाती, कभी जी करता तो दूर तक टहल आती और कभी जी करता तो कुतर देती मुझे अपने पैने दाँतों से। दाँत! हाँ, विचार दाँत ही तो होते हैं ना।
'सच कहते हैं किताबों को गौर से पढ़ो तो वे बिल्कुल अपनी जान पड़ती है, जरा करीब जाओ तो डूब जाओ उसकी खुमारी में।'
खूब जाना मैंने उसे। कभी हाथों के बीच रख कर पढ़ा तो कभी संग लेकर खो गया ख्वाबों में। कुछ रातें जली ऐसे जैसे घी-बाती रोशन कर रही हो सूरज से किया वादा। उजास सी वह किताब जब भी पढ़ी मैंने, हर बार हर्फ ने उसके मुझमें उगाए अर्थ कई नए।
'यह भी खूब कही। मियाँ तुम किताब का किस्सा सुनाते हो या अपनी हाँक लगाते हो? उस किताब के किस्से में अपना दर्द, अपना रंज क्यों मिलाते हो?'
माफ करना मियां। सच कहते हो। वह किताब भी कहती है-'तुम क्या जानों। हर सुख में जीने वाले। तुम्हें क्या पता, कैसे बनती है किस्मत और कैसे बिगड़ती है सूरत अपने इरादों की। कौन है जो तुम्हें बार-बार तोड़ने, मोड़ने की कोशिश करता है? तुम तो अपने मन के राजा हो। जब चाहे जो करते हो? बताओ कभी किसी ने किया तुमसे कोई सवाल? बोलो? बोलो कभी किसी ने लगाया तुम्हारा मोल? कभी तुम सजाए गए शेल्फ में? कभी तुमने कुर्बान की बेहतर इंसान से पढ़े जाने की हसरत? तुम किताब कहते हो मुझे। जिंदगी हूँ मैं! भले कितना पढ़ लो, समझ न पाओगे।"
सच कहती थी वह। कहाँ मैंने समझा है? कितने ही पन्ने बिना सुलझे रह गए। जवाब खोजते खोजते और भटक गया मैं। जवाब माँगा तो कहने लगी- 'बस, थक गए। ये प्रेम का दरिया है और डूब कर जाना है। जब तुम्हे लगे कि पार कर गया मैं, तभी समझना कि आगे कोई मुसीबत पेश होने को है। नाउम्मीद मत होना। असल में ये उम्मीद भी तो एक मुसीबत है। अपने पास है तो मुसीबत ना है तो मुसीबत। तुम ही बताओ कौन सी मुसीबत अजीज है।"
भई, ये किताब क्या कहती है, अपनी तो कुछ समझ ही नहीं आता। जब भी उलझ जाती है जिंदगी, मैं खामोशी का चादर ओढ़ लेता हूँ जैसे बोझिल होने पर किताब बंद कर सो जाते हैं मुसाफिर।
जानते हो मियाँ। जिंदगी को हम ही नहीं पढ़ते वो भी हमें पढ़ती है, आजमाती है। और कभी-कभी हमारी बोलती भी बंद कर देती है। तभी तो हम कहते हैं जिंदगी का कोई जवाब नहीं। कुछ ऐसी ही किताबें भी होती हैं। कितना ही पढ़ो, लगता है, कुछ न जाना हमने। हर बार जब भी खोलो कोई पेज तो लगता है कुछ नया-नया सा है इन हर्फों में। भले दर्जनों बार पढ़ा हो उन पंक्तियों को। बीसियों बार फेर के हाथ देखा हो कुछ उठी, कुछ गिरी बुनावटों को।
एक बार की और बात बताऊँ। शायद सपना था, या सपने सी थी कोई हकीकत मेरी। किताब को हाथ में ले बैठ गया मैं। कभी वरक के छू कर महसूसता तो कभी पलट कर उसे गालों से लगा लेता अपने। ऐसे महसूस करता मैं उसकी ािग्ध्ाता। कभी सहलाता रहता उसके हर्फों को जैसे जिस्म हो आगोश में और चैन खोज रहा हूँ मैं। वो उलटती-पलटती, कभी झुकती मेरे काँधें पर कभी गिरती मेरी गोद में, कभी हाथों में समा कर मेरे, खुद को भिगो लेती अपने ही वजूद में। किताबों का बातें करने का जरिया कितना अलहदा है, हम इंसानों से! वह भी मुझे उतार लेती भीतर अपने। कभी बेकरार लौट कर जाने न दिया। जब कभी विचारों ने पैदा की गर्मी तो वह ठंडा पानी डालती अपनी ओर से और कहती अभी तुम सही, बाद में सोचोगे तो जान जाओगे किताबें कभी गलत नहीं होती। क्या जिंदगी के किसी फलसफे को तुम गलत साबित कर पाए हो, चाहे जीवन भर कितने ही दफे उसके खिलाफ बका हो तुमने। जब कभी फूलने लगती नसें मेरी, वही तो थी तो इत्मिनान से थामती और बहा ले जाती संग। उसे पढ़ते-पढ़ते कितनी ही बार तटबँध तोड़ बही है धाराएँ , कितने ही मानसून बरसे हैं और कितने ही पतझड़ में पीले पात झरे हैं।
सोचता हूँ जिंदगी और किताब में कुछ अंतर होता है क्या?
या अपनी पसंद की किताब ही अपनी पसंद का किरदार होती है?
Friday, November 19, 2010
यूँ ही साथ चलते-चलते
आज बरबस ही चाँद याद आ रहा है। शरद पूर्णिमा पर चाँद पूरे शबाब पर होता है, अपनी 64 कलाओं के साथ। यूँ देखें तो चाँद केवल एक उपग्रह हैं और भावनात्मक दृष्टिकोण कहता हैं कि चाँद हमारा 'मामा" है। बचपन में परिवार के बाहर अगर किसी से नाता जुड़ता है तो वो चन्दा मामा ही है और युवावस्था में जब किसी से दिल जुड़ता है तो वो भी चाँद ही नजर आता है। चाँद हमारी कल्पनाओं, साहित्य, फिल्मों, विज्ञान शोध् का विषय रहा है और अब तो यहाँ ख्वाब के आशियाने की जमीन है। शायद ही कोई होगा जिसे ये प्रेम में यह जमीन चाँद से बेहतर नजर न आई होगी और माशूक चाँद से खूबसूरत न दिखलाई दी होगी। किसी ने इसमें दाग देखे, किसी ने इसे रोटी माना, कोई इसे फतह करने निकला। शायद ही कोई साहित्यकार होगा जिसने चाँद को देख कर कोई रचना न की होगी या लिखने का ख्याल न किया होगा। साहित्य में चाँद कई बिम्ब और रूपों में मुखरित हुआ है। यह प्रेम, बिछोह, मिलन का प्रतीक ही नहीं बल्कि नौ रसों की अभिव्यक्ति का माध्यम बना है। भले ही चांद साहित्य का सबसे प्राचीन विषय हो लेकिन समकालीन कवियों ने नई कविता में भी चाँद पर खूब लिखा है। नई कविता में चांद को लेकर नए और ताजा बिम्ब गढ़े गए हैं।
अशोक वाजपेयी की एक कविता में चाँद अलग प्रतीक बन कर आया है-
'चांद के तीन टुकड़े हैं/
जिनमें से एक मेरे पास है/
मेरी आंखो में, मेरे दिल में/
और एक तुम्हारे पास है/
चांद का एक टुकड़ा और है/
जिसे मैं तुमसे बचाकर/
किन्हीं और आंखों में/
धीरे से खिसकाया करता हूं।"
जबकि उदयप्रकाश अपनी कविता 'चंद्रमा" में चांद को काव्यात्मक सबजेक्टिविटी के बजाय वैज्ञानिक तथ्यों के जरिए देखा है। चाँद के लिए वे लिखते हैं-
'यह रोशनी भी उसकी नहीं सूर्य की है/
वह तो है पृथ्वी से छह गुना छोटा मिट्टी का एक अंधा ढेला/
चंद्रमा की मिट्टी में नहीं पैदा होता गेहूं/
चंद्रमा में नहीं रहते किसान वहां नदियां नहीं बहती/
वहां समुद्र का नदियों का ऋतुओं का प्रेम और वीर नायकों का कोई मिथक नहीं।"
युवा कवि पवन करण अपनी कविता में चांद को कुछ यूं बयां करते हैं-
''इस चांद के बारे में तुम कुछ भी नहीं जानते/
एक नंबर का धोखेबाज है/
ये एकदम बिगड़ा नवाब/इसकी संगत ठीक नहीं/
ये तुम्हें कहीं का भी नहीं छोड़ेगा/
कहीं भी फंसा देगा/
इसका काम ही आवारागर्दी करना है।"
चाँद के साथ मैं भी आवारगर्दी करने निकल आया था। यूँ ही साथ चलते-चलते।
अशोक वाजपेयी की एक कविता में चाँद अलग प्रतीक बन कर आया है-
'चांद के तीन टुकड़े हैं/
जिनमें से एक मेरे पास है/
मेरी आंखो में, मेरे दिल में/
और एक तुम्हारे पास है/
चांद का एक टुकड़ा और है/
जिसे मैं तुमसे बचाकर/
किन्हीं और आंखों में/
धीरे से खिसकाया करता हूं।"
जबकि उदयप्रकाश अपनी कविता 'चंद्रमा" में चांद को काव्यात्मक सबजेक्टिविटी के बजाय वैज्ञानिक तथ्यों के जरिए देखा है। चाँद के लिए वे लिखते हैं-
'यह रोशनी भी उसकी नहीं सूर्य की है/
वह तो है पृथ्वी से छह गुना छोटा मिट्टी का एक अंधा ढेला/
चंद्रमा की मिट्टी में नहीं पैदा होता गेहूं/
चंद्रमा में नहीं रहते किसान वहां नदियां नहीं बहती/
वहां समुद्र का नदियों का ऋतुओं का प्रेम और वीर नायकों का कोई मिथक नहीं।"
युवा कवि पवन करण अपनी कविता में चांद को कुछ यूं बयां करते हैं-
''इस चांद के बारे में तुम कुछ भी नहीं जानते/
एक नंबर का धोखेबाज है/
ये एकदम बिगड़ा नवाब/इसकी संगत ठीक नहीं/
ये तुम्हें कहीं का भी नहीं छोड़ेगा/
कहीं भी फंसा देगा/
इसका काम ही आवारागर्दी करना है।"
चाँद के साथ मैं भी आवारगर्दी करने निकल आया था। यूँ ही साथ चलते-चलते।
Tuesday, November 9, 2010
कश्मीर के युवा बंदूक नहीं पढ़ना चाहते हैं
पत्रकार दिलीप पडगांवकर सहित उनके दो साथी वार्ताकार कश्मीर समस्या का स्थायी हल ढूंढ़ने कश्मीर गए थे। दल ने कहा कि उनका ध्यान युवाओं पर होगा, क्योंकि वे ही यहां की धारा को बदल सकते हैं। इसके पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उससे भी पहले प्रधानमंत्री रहते हुए अटलबिहारी वाजपेयी ने कश्मीर के युवाओं से शांति की अपील की थी। कश्मीरी युवकों की समस्या क्या है और वे इसका समाधान कहाँ खोजते हैं, इस पड़ताल के दौरान मैंने अपने साथी मोहम्मद फैजान खान के साथ भोपाल में पढ़ रहे कश्मीरी युवाओं से चर्चा की। कश्मीरी युवाओं की राय पूरे मसले को समझने के लिए अहम हैं। वे साफ कहते हैं कि हमारी पीड़ा कोई नहीं सुनता। हम पढ़ना चाहते हैं, नौकरी करना चाहते है। भारत से अलग होना नहीं बल्कि वे बेखौफ घूमने की आजादी चाहते हैं।
जमीन का स्वर्ग कश्मीर 15 जून से लेकर अब तक हड़ताल और कर्फ्यू भोग रहा है। इसबार आंदोलन में युवाओं की भागीदारी ज्यादा हो गई है। कश्मीर के युवाओं पर आरोप लगता है कि वे पाकिस्तान की शह पर आतंकवाद फैला रहे हैं। भोपाल में पढ़ने वाले कश्मीरी युवा इस आरोप से नाराज हैं। वे कहते हैं कि कश्मीर के युवा आतंकवादी होते तो उनके हाथों में पत्थर नहीं बंदूक-बम होते। कश्मीर का युवा पत्थर फैंक रहा है क्योंकि वह व्यवस्था से तंग आ गया है। इसी साल सबसे लंबे समय तक स्कूल-कॉलेज बंद रहे। पढ़ाई होती नहीं हैं, रोजगार कहाँ से मिलेगा? पर्यटन खत्म हो चुका है। रोजगार नहीं है, घर कैसे चलेंगे? इसमें में कोई भटकने से कैसे बचे?
कश्मीर के युवा पढ़ना चाहते हैं। लेकिन वहाँ कॉलेज कम हैं और विद्यार्थी ज्यादा। 20 सीटों के लिए 2 हजार आवेदन आते हैं। पढ़ाई के लिए बाहर जाओ तो अपने ही देश में सौतेला व्यवहार झेलना पड़ता है। भोपाल में पढ़ने आए तो यहाँ कश्मीरी कह कर संदेह से देखा जाता है। कई बार भाषाई समस्या हुई और किसी ने सहायता की तो उसे भी संदिग्ध् मान लिया जाता है। तकलीफ होती है जब हमें अपने ही प्रदेश में बार-बार पहचान बताना पड़ती है। एक चेकिंग पाइंट पर घंटों खड़े हो कर जाँच से गुजरना पड़ता है। हमें जलील किया जाता है।
पाकिस्तान है जिम्मेदार
कश्मीरी युवा घाटी की बदतर स्थिति के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका कहना है कि अगर पाकिस्तान ने चंद कश्मीरी नौजवानों को हथियार न थमाए होते तो कश्मीर में न तो इतनी बर्बादी होती और न ही उन्हें स्पेशल पावर एक्ट का सामना करना पड़ता।
अलगाववादियों से अलग है राय
नवदुनिया से बातचीत में कश्मीरी युवाओं ने कहा कि अलगाववादी भारत से आजादी चाहते हैं। जबकि कश्मीर का आम युवा ऐसा नहीं सोचता। उन्होंने कहा-'हमारी बात नहीं सुन जा रही। हम हिन्दुस्तान से आजादी नहीं चाहते बल्कि घाटी में बेखौफ घूमने फिरने की आजादी चाहते हैं।"
विशेष कानून समस्या
कश्मीरी युवा घाटी की सबसे बड़ी समस्या आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट को मानते हैं। उनका कहना है कि इस एक्ट का सबसे ज्यादा शिकार युवा ही हो रहे हैं। हम सिर्फ इतना चाहते हैं कि घाटी से लागू आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट हटा लिया जाए।
'राहुल, हमारी भी तो सुनो"
युवाओं की तकलीफ यह है कि कोई उनकी सुन नहीं रहा है। वे कहते हैं कि राहुल गाँधी युवाओं से संवाद करने देशभर में घूम रहे हैं, लेकिन कश्मीर के युवाओं की नहीं सुन रहे। उन्हें कश्मीर के युवाओं से संवाद करना चाहिए। चाहे वे कश्मीर जाएँ या कश्मीर के युवाओं को अपने पास बुलवाएँ। बात सुनी जाएगी तो पीड़ा भी कम होगी।
*हमें भारत से आजादी नहीं चाहिए। लेकिन हमें वैसी ही आजादी चाहिए जो भारत के अन्य राज्यों के लोगों को मिली हुई है। हम जब घर से बाहर निकलते हैं तो कदम-कदम पर हमसे पहचान पत्र दिखाने को कहा जाता है। चेक पाइंट पर एक-एक घंटे खड़े होकर अपनी पहचान सिद्ध करना होती है।
आबिद हुसैन, शासकीय बेनजीर कालेज
*हम पर इल्जाम लगाया जाता है कि हम पाकिस्तान के साथ मिलना चाहते हैं। जबकि यह सरासर गलत है। कश्मीरी पाकिस्तान से नफरत करते हैं। पाकिस्तान ने आतंकवादियों को भेजकर कश्मीर को जहन्नुम बना दिया है। कश्मीर घाटी में शिक्षा के नाम पर केवल एक विश्वविद्यालय है जिसमें आम कोर्सेस में भी 20 सीटों के लिए 2 हजार लोगों के बीच काम्पटीशन होता है। केन्द्र सरकार कश्मीर के विकास के लिए जो पैसा भेजती है वह राज्य सरकार के मंत्री हड़प जाते हैं। भ्रष्टाचार के कारण भी कश्मीर के हालात खराब हैं।
बिलाल अहमद लोन, शासकीय हमीदिया कॉलेज
*न तो अलगाववादियों को कश्मीरी जनता की फिक्र है और न ही राज्य सरकार को उनका ख्याल है। आम कश्मीरी उस गुनाह की सजा भुगत रहा है जो उसने किया ही नहीं। अब जबकि घाटी से आतंकवाद समाप्त हो गया है,वहां से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट जैसा काला कानून हटा लेना चाहिए।
अराफात अहमद बट्ट, हमीदिया कालेज
*अगर कश्मीरी युवा सेना पर पत्थर फैंक रहा है तो यह उनका फ्रस्ट्रेशन है। लेकिन इससे यह बात भी सिद्ध होती है कि वह आतंकवादी नहीं है। अगर वह आतंकवादी होते तो उनके हाथ में पत्थर नहीं एके 47 होती।
मुश्ताक अहमद, आईपीसी कालेज
जमीन का स्वर्ग कश्मीर 15 जून से लेकर अब तक हड़ताल और कर्फ्यू भोग रहा है। इसबार आंदोलन में युवाओं की भागीदारी ज्यादा हो गई है। कश्मीर के युवाओं पर आरोप लगता है कि वे पाकिस्तान की शह पर आतंकवाद फैला रहे हैं। भोपाल में पढ़ने वाले कश्मीरी युवा इस आरोप से नाराज हैं। वे कहते हैं कि कश्मीर के युवा आतंकवादी होते तो उनके हाथों में पत्थर नहीं बंदूक-बम होते। कश्मीर का युवा पत्थर फैंक रहा है क्योंकि वह व्यवस्था से तंग आ गया है। इसी साल सबसे लंबे समय तक स्कूल-कॉलेज बंद रहे। पढ़ाई होती नहीं हैं, रोजगार कहाँ से मिलेगा? पर्यटन खत्म हो चुका है। रोजगार नहीं है, घर कैसे चलेंगे? इसमें में कोई भटकने से कैसे बचे?
कश्मीर के युवा पढ़ना चाहते हैं। लेकिन वहाँ कॉलेज कम हैं और विद्यार्थी ज्यादा। 20 सीटों के लिए 2 हजार आवेदन आते हैं। पढ़ाई के लिए बाहर जाओ तो अपने ही देश में सौतेला व्यवहार झेलना पड़ता है। भोपाल में पढ़ने आए तो यहाँ कश्मीरी कह कर संदेह से देखा जाता है। कई बार भाषाई समस्या हुई और किसी ने सहायता की तो उसे भी संदिग्ध् मान लिया जाता है। तकलीफ होती है जब हमें अपने ही प्रदेश में बार-बार पहचान बताना पड़ती है। एक चेकिंग पाइंट पर घंटों खड़े हो कर जाँच से गुजरना पड़ता है। हमें जलील किया जाता है।
पाकिस्तान है जिम्मेदार
कश्मीरी युवा घाटी की बदतर स्थिति के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका कहना है कि अगर पाकिस्तान ने चंद कश्मीरी नौजवानों को हथियार न थमाए होते तो कश्मीर में न तो इतनी बर्बादी होती और न ही उन्हें स्पेशल पावर एक्ट का सामना करना पड़ता।
अलगाववादियों से अलग है राय
नवदुनिया से बातचीत में कश्मीरी युवाओं ने कहा कि अलगाववादी भारत से आजादी चाहते हैं। जबकि कश्मीर का आम युवा ऐसा नहीं सोचता। उन्होंने कहा-'हमारी बात नहीं सुन जा रही। हम हिन्दुस्तान से आजादी नहीं चाहते बल्कि घाटी में बेखौफ घूमने फिरने की आजादी चाहते हैं।"
विशेष कानून समस्या
कश्मीरी युवा घाटी की सबसे बड़ी समस्या आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट को मानते हैं। उनका कहना है कि इस एक्ट का सबसे ज्यादा शिकार युवा ही हो रहे हैं। हम सिर्फ इतना चाहते हैं कि घाटी से लागू आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट हटा लिया जाए।
'राहुल, हमारी भी तो सुनो"
युवाओं की तकलीफ यह है कि कोई उनकी सुन नहीं रहा है। वे कहते हैं कि राहुल गाँधी युवाओं से संवाद करने देशभर में घूम रहे हैं, लेकिन कश्मीर के युवाओं की नहीं सुन रहे। उन्हें कश्मीर के युवाओं से संवाद करना चाहिए। चाहे वे कश्मीर जाएँ या कश्मीर के युवाओं को अपने पास बुलवाएँ। बात सुनी जाएगी तो पीड़ा भी कम होगी।
*हमें भारत से आजादी नहीं चाहिए। लेकिन हमें वैसी ही आजादी चाहिए जो भारत के अन्य राज्यों के लोगों को मिली हुई है। हम जब घर से बाहर निकलते हैं तो कदम-कदम पर हमसे पहचान पत्र दिखाने को कहा जाता है। चेक पाइंट पर एक-एक घंटे खड़े होकर अपनी पहचान सिद्ध करना होती है।
आबिद हुसैन, शासकीय बेनजीर कालेज
*हम पर इल्जाम लगाया जाता है कि हम पाकिस्तान के साथ मिलना चाहते हैं। जबकि यह सरासर गलत है। कश्मीरी पाकिस्तान से नफरत करते हैं। पाकिस्तान ने आतंकवादियों को भेजकर कश्मीर को जहन्नुम बना दिया है। कश्मीर घाटी में शिक्षा के नाम पर केवल एक विश्वविद्यालय है जिसमें आम कोर्सेस में भी 20 सीटों के लिए 2 हजार लोगों के बीच काम्पटीशन होता है। केन्द्र सरकार कश्मीर के विकास के लिए जो पैसा भेजती है वह राज्य सरकार के मंत्री हड़प जाते हैं। भ्रष्टाचार के कारण भी कश्मीर के हालात खराब हैं।
बिलाल अहमद लोन, शासकीय हमीदिया कॉलेज
*न तो अलगाववादियों को कश्मीरी जनता की फिक्र है और न ही राज्य सरकार को उनका ख्याल है। आम कश्मीरी उस गुनाह की सजा भुगत रहा है जो उसने किया ही नहीं। अब जबकि घाटी से आतंकवाद समाप्त हो गया है,वहां से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट जैसा काला कानून हटा लेना चाहिए।
अराफात अहमद बट्ट, हमीदिया कालेज
*अगर कश्मीरी युवा सेना पर पत्थर फैंक रहा है तो यह उनका फ्रस्ट्रेशन है। लेकिन इससे यह बात भी सिद्ध होती है कि वह आतंकवादी नहीं है। अगर वह आतंकवादी होते तो उनके हाथ में पत्थर नहीं एके 47 होती।
मुश्ताक अहमद, आईपीसी कालेज
Tuesday, November 2, 2010
लौटा लाओ कि हमेशा के लिए न चले जाएँ वे
श्मशान में सचेत करती अनिल गोयल की पंक्तियाँ
'क्रूरता से विदा किया तुमने/
वे सहजता से चले गए/
चाहो तो लौटा लाओ/
लौटा लाओ कि/
चले जाएँ ना इतनी दूर/
जहाँ से नहीं लौटता कोई।"
सुभाष नगर विश्राम घाट की दीवारों पर चित्रों के साथ टंगी ऐसी ही पंक्तियाँ बरबस रोक लेती है और सोचने को मजबूर करती हैं। कहते हैं श्मशान अस्थाई वैराग्य करवाता है। कुछ पलों के लिए ही सही लेकिन यहीं आकर व्यक्ति को अपनी ताकत और क्षणभंगुरता का अहसास होता है। यही वह पल होते हैं जब वह खालिस अपने कर्म और अपने जीवन के बारे में खरा चिंतन करता है। चिंतन के इन्हीं पलों को अनिल गोयल ने और गहरा, और भावपूर्ण, और असरकारी बना दिया है। विश्राम घाट की दीवारों, पीलर्स पर दो दर्जन से ज्यादा फ्रेम टंगी हैं। हर एक में बुजुर्गों के श्वेत-श्याम चित्रों के साथ काव्य पंक्तियाँ हैं। चिंतन के क्षणों में ये पंक्तियाँ आपको सोचने पर मजबूर करती हैं। बुजुर्गों के साथ अपने व्यवहार का आकलन करने को विवश करती हैं। शायद ही कोई होगा जिसे इन पंक्तियों ने आकृष्ट न किया हो और बिरला ही होगा जिसने इन्हें पढ़ने के बाद भी अपने बुरे बर्ताव में सुधार न किया हो।
मसलन, एक फ्रेम में लिखा है-
'प्रतिबंध था जिसके बोलने पर
उसके बारे में बोला गया
मृदुभाषी शोकसभा में।"
ये पंक्तियाँ किसी विवरण की माँग नहीं करती। सीधे दिल में उतरती हैं और दिमाग पर असर करती हैं। इन कविताओं में बेटों के बाद भी बुजुर्गों के अकेले छूट जाने की पीड़ा को देखा-समझा और महसूसा जा सकता है।
अनिलजी का जन्म 6 नवंबर 1961 को विदिशा में हुआ था। छह साल की उम्र में हुआ पोलियो 70 फीसदी विकलांगता दे गया। शरीर ने कष्ट सहे लेकिन इरादे मुरझाए नहीं, वेदना पा कर संवेदना गहरी होती गई। अनिलजी ने संघर्ष किया, खुद को कभी लेखक, कभी अभिनेता, कभी नाटकों में व्यक्त किया। बुजुर्गों खास कर माँ पर अनिलजी की अभिव्यक्ति लाजवाब है। इस अभिव्यक्ति की शुरूआत भी उन्होंने भोपाल से ही की। वैलेंटाइन डे पर जब युवा पीढ़ी अपने इश्क के इजहार में व्यस्त थी, अनिलजी ने होटल सरल में माँ के प्रति अनुराग दर्शाती फोटो-कविता प्रदर्शनी का आयोजन किया। यहाँ काफी तारीफ मिली। वे कहते हैं कि बुजुर्गों के प्रति यवाओं का व्यवहार उन्हें कष्ट पहुँचाता है। यही वजह है कि उन्होंने श्मशान घाट में चित्र-कविताएँ लगवाई। यदि इससे सबक ले कर बेटों ने माँ-बाप की सुध ले ली तो समझो मकसद पूरा हो गया। अनिलजी इसीबात को एक पोस्टर में कुछ यूँ कहते हैं-
'माँ के कर्ज की किश्त/
समय पर चुकाइये/
सुख समृद्धि और वैभव का बोनस पाइए।"
Wednesday, October 13, 2010
तीन साल से सूचना मिलने का इंतजार
पुनर्वास विभाग को नहीं पता कितने हुए विस्थापित
मप्र के पुनर्वास विभाग को नहीं पता है कि प्रदेश में विभिन्न योजनाओं के तहत कितने लोगों को विस्थापित किया गया और कितने लोगों का पुनर्वास किया गया। विभाग से जब 2006 में सूचना के अधिकार के तहत जानकारी माँगी गई तो जवाब मिला-'हम बांग्लादेशी और पाकिस्तान के विस्थापितों का काम देखते हैं। प्रदेश के विस्थापन की जानकारी नहीं है।" जब राज्य सूचना आयोग ने सूचना जुटा कर देने को कहा तो पुनर्वास विभाग ने 13 विभागों से जानकारी माँगी। तब से जानकारी ही जुटाई जा रही है।
यह एक उदाहरण सूचना के अधिकार की ताकत और जरूरत बताने के लिए काफी है। 12 अक्टूबर 2007 में लगाए गए इस आवेदन के जवाब में विभाग ने जानकारी न होने बात कह दी। प्रथम अपील में भी प्रकरण खारिज कर दिया गया तो राज्य सूचना आयोग में अपील की गई। सुनवाई के बाद आयोग ने कहा कि पुनर्वास विभाग को जानकारी देना चाहिए। आयोग ने कहा कि विभाग के पास जानकारी नहीं है तो वह अन्य विभागों से जुटा कर जानकारी दे। इस आदेश के बाद पुनर्वास विभाग ने विस्थापन करने वाले राजस्व, नगरीय प्रशासन, वन एवं पर्यावरण, जल संसाधन सहित 13 विभागों से विस्थापन और पुनर्वास की जानकारी माँगी। तीन साल बाद अब तक विभागों ने जानकारी नहीं भेजी है।
आकलन है कि प्रदेश में हुए 60 से 80 प्रतिशत विस्थापन के बारे में विभागों को पता नहीं है कि विस्थापित कहाँ और किस हालत में हैं। इस आवेदन ने व्यवस्था की पोल खोलते हुए साबित कर दिया कि दफ्तरों में कामों और जानकारियों को अपडेट नहीं किया जाता। यहाँ केवल तात्कालिक जानकारियाँ ही मौजूद होती हैं। असल में यह इस कानून के अस्तित्व से जुड़ा मुद्दा है। गौरतलब है कि सूचना के अधिकार कानून में अधिकांश आवेदनों को सूचना न होने की वजह से खारिज कर दिया जाता है। सामाजिक कार्यकर्ता सचिन जैन कहते हैं कि सरकारी विभागों में सूचना को एकत्रित करने और संग्रह कर रखने की कोई व्यवस्था नहीं है। योजनाएँ प्रारम्भ कर दी गई लेकिन उसके प्रभावितों, नुकसान और लाभ के आकलन के लिए जानकारियाँ ही नहीं है तो कैसे सफलता-असफलता जाँची जा सकेगी? आँकड़ों के बिना गरीब विस्थापितों के लिए कोई योजना कैसे चलाई जा सकेगी? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि सही तथ्य, जानकारियाँ और आँकड़ों के अभाव में सही योजना का निर्माण कैसे होगा?
एक साल बाद भी नहीं मिली कॉपियाँ
एक तरफ जहाँ विभागों के पास जानकारियाँ नहीं हैं वहीं दूसरी ओर अपील करने के बाद निर्णय और सूचना देने में इतनी देर हो जाती है कि फिर सूचना का मकसद खत्म हो जाता है। पिपरिया की सुगंधा और खुशबू माहेश्वरी का प्रकरण इसका उदाहरण है।
सुगंधा और खुशबू माहेश्वरी ने माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय से दिसंबर 2008 में एमएससी कम्प्यूटर साइंस की परीक्षा दी थी। मार्च 2009 में जब परिणाम आया तो सुगंधा को दो विषय में 35-35 और दो में 45-45 नंबर मिले थे। खुशबू को दो में 45-45 और दो में 55-55 नंबर मिले। सुगंधा जहाँ दो विषयों मंे फेल होने से सकते में थीं वहीं समान नंबर मिलने से खुशबू अचरज में। उन्होंने कॉपियों की फोटोकॉपी माँगने के लिए 3 जून 2009 को आवेदन दिया। आवेदन खारिज होने पर अगस्त 2009 में राज्य सूचना आयोग में अपील की गई। आयोग में उनके प्रकरण पर सुनवाई का नंबर साल भर बाद अक्टूबर 2010 में आया। अब साल भर पास या फेल का निर्णय हो भी जाए तो समय गुजरने के बाद मिली सूचना किस काम आएगी?
मप्र के पुनर्वास विभाग को नहीं पता है कि प्रदेश में विभिन्न योजनाओं के तहत कितने लोगों को विस्थापित किया गया और कितने लोगों का पुनर्वास किया गया। विभाग से जब 2006 में सूचना के अधिकार के तहत जानकारी माँगी गई तो जवाब मिला-'हम बांग्लादेशी और पाकिस्तान के विस्थापितों का काम देखते हैं। प्रदेश के विस्थापन की जानकारी नहीं है।" जब राज्य सूचना आयोग ने सूचना जुटा कर देने को कहा तो पुनर्वास विभाग ने 13 विभागों से जानकारी माँगी। तब से जानकारी ही जुटाई जा रही है।
यह एक उदाहरण सूचना के अधिकार की ताकत और जरूरत बताने के लिए काफी है। 12 अक्टूबर 2007 में लगाए गए इस आवेदन के जवाब में विभाग ने जानकारी न होने बात कह दी। प्रथम अपील में भी प्रकरण खारिज कर दिया गया तो राज्य सूचना आयोग में अपील की गई। सुनवाई के बाद आयोग ने कहा कि पुनर्वास विभाग को जानकारी देना चाहिए। आयोग ने कहा कि विभाग के पास जानकारी नहीं है तो वह अन्य विभागों से जुटा कर जानकारी दे। इस आदेश के बाद पुनर्वास विभाग ने विस्थापन करने वाले राजस्व, नगरीय प्रशासन, वन एवं पर्यावरण, जल संसाधन सहित 13 विभागों से विस्थापन और पुनर्वास की जानकारी माँगी। तीन साल बाद अब तक विभागों ने जानकारी नहीं भेजी है।
आकलन है कि प्रदेश में हुए 60 से 80 प्रतिशत विस्थापन के बारे में विभागों को पता नहीं है कि विस्थापित कहाँ और किस हालत में हैं। इस आवेदन ने व्यवस्था की पोल खोलते हुए साबित कर दिया कि दफ्तरों में कामों और जानकारियों को अपडेट नहीं किया जाता। यहाँ केवल तात्कालिक जानकारियाँ ही मौजूद होती हैं। असल में यह इस कानून के अस्तित्व से जुड़ा मुद्दा है। गौरतलब है कि सूचना के अधिकार कानून में अधिकांश आवेदनों को सूचना न होने की वजह से खारिज कर दिया जाता है। सामाजिक कार्यकर्ता सचिन जैन कहते हैं कि सरकारी विभागों में सूचना को एकत्रित करने और संग्रह कर रखने की कोई व्यवस्था नहीं है। योजनाएँ प्रारम्भ कर दी गई लेकिन उसके प्रभावितों, नुकसान और लाभ के आकलन के लिए जानकारियाँ ही नहीं है तो कैसे सफलता-असफलता जाँची जा सकेगी? आँकड़ों के बिना गरीब विस्थापितों के लिए कोई योजना कैसे चलाई जा सकेगी? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि सही तथ्य, जानकारियाँ और आँकड़ों के अभाव में सही योजना का निर्माण कैसे होगा?
एक साल बाद भी नहीं मिली कॉपियाँ
एक तरफ जहाँ विभागों के पास जानकारियाँ नहीं हैं वहीं दूसरी ओर अपील करने के बाद निर्णय और सूचना देने में इतनी देर हो जाती है कि फिर सूचना का मकसद खत्म हो जाता है। पिपरिया की सुगंधा और खुशबू माहेश्वरी का प्रकरण इसका उदाहरण है।
सुगंधा और खुशबू माहेश्वरी ने माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय से दिसंबर 2008 में एमएससी कम्प्यूटर साइंस की परीक्षा दी थी। मार्च 2009 में जब परिणाम आया तो सुगंधा को दो विषय में 35-35 और दो में 45-45 नंबर मिले थे। खुशबू को दो में 45-45 और दो में 55-55 नंबर मिले। सुगंधा जहाँ दो विषयों मंे फेल होने से सकते में थीं वहीं समान नंबर मिलने से खुशबू अचरज में। उन्होंने कॉपियों की फोटोकॉपी माँगने के लिए 3 जून 2009 को आवेदन दिया। आवेदन खारिज होने पर अगस्त 2009 में राज्य सूचना आयोग में अपील की गई। आयोग में उनके प्रकरण पर सुनवाई का नंबर साल भर बाद अक्टूबर 2010 में आया। अब साल भर पास या फेल का निर्णय हो भी जाए तो समय गुजरने के बाद मिली सूचना किस काम आएगी?
Friday, October 8, 2010
'राहुल वॉव, पोलिक्टिस नाट नाव"
युवतियों को राहुल पसंद लेकिन राजनीति में आने का विचार नहीं
राहुल गाँधी चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा युवा राजनीति में आएँ। पढ़े लिखे युवा राजनीति में आएँगे तो गंदी राजनीति साफ होगी। इसलिए वे देश में घूम-घूम कर युवाओं को राजनीति में आने का न्योता दे रहे हैं। भोपाल में उन्होंने उच्च शिक्षा ले रही युवतियों से पहली बार अलग सत्र में बात की और राजनीति में आने की सलाह दी। राहुल को देख-सुनने के बाद युवतियों प्रसन्ना थीं। उनके चेहरे पर इस खुशी को साफ देखा जा सकता था लेकिन जब उनसे सवाल किया गया कि क्या वे युवा काँग्रेस की सदस्यता लेगी तो जवाब मिला अभी नहीं।
6 अक्टूबर 2010 की सुबह वे निकली तो कॉलेज बस से थी लेकिन पहुँची काँग्रेस महासचिव राहुल गाँधी से मिलने रवीन्द्र भवन। उनसे कहा गया था कि उन्हें राहुल से सवाल पूछने का मौका मिलेगा। गाँधी परिवार के वारिस, भविष्य के प्रधानमंत्री और सबसे सुटेबल बैचलर जैसे तमाम परिचयों के अलावा राहुल को करीब से देखने की जिज्ञासा वे लाख प्रयत्न के बाद भी नहीं छुपा पा रही थी। किसी को छोड़ने पिता आए थे तो कोई भाई के साथ पहुँची थी। सभी की ख्वाहिश थी राहुल को करीब से देखना और मौका मिलने पर सवाल पूछना। करीब आधे घंटे के सत्र के बाद छात्राएँ बाहर निकली तो सवाल न पूछ पाने की निराशा तो थी लेकिन वे राहुल के व्यक्तित्व से चमत्कृत थी। चहकती युवतियों की टोली की पहली प्रतिक्रिया- 'राहुल इज ऑवसम। पर हमें सवाल पूछने का मौका नहीं मिला।" वे बताती हैं कि राहुल ने सभी को राजनीति में आने आग्रह किया है। 'आप युवा काँग्रेस की सदस्यता कब ले रही हैं", पूछे जाने पर अधिकांश ने कहा कि अभी तो नहीं। राजीव गाँधी कॉलेज की मालविका तिवारी और वसुधा ने कहा कि राहुल का भाषण प्रभावी था लेकिन उनके प्रस्ताव के बाद भी वे राजनीति में नहीं आ सकती। वे मानती है कि परिवार युवतियों के राजनीति में आने की सबसे बड़ी बाधा है। अंजली पांडे ने कहा कि वे राहुल से प्रभावित थी और उन्हें सुनने के लिए आई थीं। उन्हें राजनीति में रूचि नहीं है। नारायण होम्योपैथी कॉलेज की छात्रा दिव्या ने कहा कि वे राहुल को बीएचएमएस छात्राओं की समस्या बताने आई थी लेकिन मौका नहीं मिला। वे कहती हैं कि राहुल युवाओं को मौका दे रहे हैं यह अच्छी बात है लेकिन फिलहाल उन्होंने राजनीति में आने के बारे में नहीं सोचा है। पुष्पांजलि से पूछा गया कि क्या वे युवा काँग्रेस की सदस्यता लेंगी तो उन्होंने कहा कि वे अच्छा काम करने वालों का समर्थन करेंगी लेकिन राजनीति में नहीं आएँगी। राधारमन कॉलेज की छात्रा वीना ने कहा कि उनके लिए राहुल की बात मानना संभव नहीं है। युवतियों ने कहा कि राजनीति में बदलाव की शुरुआत होना चाहिए। राहुल अच्छा काम कर रहे हैं। वे उनका समर्थन करती हैं लेकिन सक्रिय राजनीति में नहीं आ सकती।
राहुल गाँधी चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा युवा राजनीति में आएँ। पढ़े लिखे युवा राजनीति में आएँगे तो गंदी राजनीति साफ होगी। इसलिए वे देश में घूम-घूम कर युवाओं को राजनीति में आने का न्योता दे रहे हैं। भोपाल में उन्होंने उच्च शिक्षा ले रही युवतियों से पहली बार अलग सत्र में बात की और राजनीति में आने की सलाह दी। राहुल को देख-सुनने के बाद युवतियों प्रसन्ना थीं। उनके चेहरे पर इस खुशी को साफ देखा जा सकता था लेकिन जब उनसे सवाल किया गया कि क्या वे युवा काँग्रेस की सदस्यता लेगी तो जवाब मिला अभी नहीं।
6 अक्टूबर 2010 की सुबह वे निकली तो कॉलेज बस से थी लेकिन पहुँची काँग्रेस महासचिव राहुल गाँधी से मिलने रवीन्द्र भवन। उनसे कहा गया था कि उन्हें राहुल से सवाल पूछने का मौका मिलेगा। गाँधी परिवार के वारिस, भविष्य के प्रधानमंत्री और सबसे सुटेबल बैचलर जैसे तमाम परिचयों के अलावा राहुल को करीब से देखने की जिज्ञासा वे लाख प्रयत्न के बाद भी नहीं छुपा पा रही थी। किसी को छोड़ने पिता आए थे तो कोई भाई के साथ पहुँची थी। सभी की ख्वाहिश थी राहुल को करीब से देखना और मौका मिलने पर सवाल पूछना। करीब आधे घंटे के सत्र के बाद छात्राएँ बाहर निकली तो सवाल न पूछ पाने की निराशा तो थी लेकिन वे राहुल के व्यक्तित्व से चमत्कृत थी। चहकती युवतियों की टोली की पहली प्रतिक्रिया- 'राहुल इज ऑवसम। पर हमें सवाल पूछने का मौका नहीं मिला।" वे बताती हैं कि राहुल ने सभी को राजनीति में आने आग्रह किया है। 'आप युवा काँग्रेस की सदस्यता कब ले रही हैं", पूछे जाने पर अधिकांश ने कहा कि अभी तो नहीं। राजीव गाँधी कॉलेज की मालविका तिवारी और वसुधा ने कहा कि राहुल का भाषण प्रभावी था लेकिन उनके प्रस्ताव के बाद भी वे राजनीति में नहीं आ सकती। वे मानती है कि परिवार युवतियों के राजनीति में आने की सबसे बड़ी बाधा है। अंजली पांडे ने कहा कि वे राहुल से प्रभावित थी और उन्हें सुनने के लिए आई थीं। उन्हें राजनीति में रूचि नहीं है। नारायण होम्योपैथी कॉलेज की छात्रा दिव्या ने कहा कि वे राहुल को बीएचएमएस छात्राओं की समस्या बताने आई थी लेकिन मौका नहीं मिला। वे कहती हैं कि राहुल युवाओं को मौका दे रहे हैं यह अच्छी बात है लेकिन फिलहाल उन्होंने राजनीति में आने के बारे में नहीं सोचा है। पुष्पांजलि से पूछा गया कि क्या वे युवा काँग्रेस की सदस्यता लेंगी तो उन्होंने कहा कि वे अच्छा काम करने वालों का समर्थन करेंगी लेकिन राजनीति में नहीं आएँगी। राधारमन कॉलेज की छात्रा वीना ने कहा कि उनके लिए राहुल की बात मानना संभव नहीं है। युवतियों ने कहा कि राजनीति में बदलाव की शुरुआत होना चाहिए। राहुल अच्छा काम कर रहे हैं। वे उनका समर्थन करती हैं लेकिन सक्रिय राजनीति में नहीं आ सकती।
Wednesday, October 6, 2010
बापू का प्रबंधन
आज का जमाना प्रबंधन का है और सही प्रबंधन कौशल सफलता का मूलमंत्र भी है। यही कारण है कि जब सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं या असफलता से निराश बैठ जाते हैं तो बापू याद आते हैं। जीत हो या हार, कोई उलझन हो या निर्णय का भटकाव बापू क्यों याद आते हैं? जीवन की हर मुश्किल घड़ी में बापू क्यों याद आते हैं, इस सवाल का जवाब 85 वर्षीय गाँधीवादी चिंतक नारायणभाई देसाई की 'गाँधी कथा" में मिलता है। नारायण भाई उन्हीं महादेव भाई देसाई के पुत्र हैं जो करीब 25 बरस तक गाँधीजी के निज सचिव रहे। नारायणभाई ने कथावाचन शैली में बापू की कथा कहना प्रारम्भ किया है और उम्र के इस दुरूह चरण में भी शहर-शहर जा कर लोगों की बापू के अनजाने चरित्र से रूबरू करवा रहे हैं। यह कथा बताती है कि मोहनदास करमचंद गाँधी कैसे सफल नेतृत्व कर पाए, क्यों डॉ भीमराव अंबेडर के समक्ष खामोश रहने के बाद भी जनता ने उनका समर्थन किया और क्यों वे दुनिया के सामने सत्याग्रह का उदाहरण रख पाए?
गाँधीजी ने दिल जीतने और भरोसा कायम करने का फार्मूला दिया है। आज प्रबंधन विशेषज्ञ भी मानते हैं कि जब भरोसा ज्यादा होता है, तो रफ्तार और उत्पादकता बढ़ जाती है। जब भरोसा कम हो तो रफ्तार व उत्पादकता घट जाती है। समय की पाबंदी, अनुशासन, मनभेद न रखने का संकल्प और आत्म निरीक्षण की प्रक्रिया गाँधीजी की जीवनचर्या थे और उनके महात्मा बनने के कारण भी। गौर करेंगे तो आज भी यही मंत्र सफलता के फंडे कहलाते हैं। जरूरत बस गाँधी को करीब से जानने की है।
गाँधी के प्रबंधन की यह समझ मुझे अग्रज श्री विष्णु बैरागी के ब्लॉग एकोऽहम् से मिली। उन्होंने 85 वर्षीय गाँधीवादी चिंतक नारायणभाई देसाई के श्रीमुख से सुनी गाँधी कथा का अपने ब्लॉग में वर्णन किया है। (श्री देसाई की 'गाँधी कथा" विस्तार से पढ़ने के लिए देखें - (http://akoham.blogspot.com/)
समय की पाबंदी
गांधी एक-एक क्षण का उपयोग करते थे । वायसराय से वार्ता के लिए शिमला पहुंचने पर मालूम हुआ कि वे सप्ताह भर बाद आएंगे । गांधी ने तत्काल सेवाग्राम लौटने का कार्यक्रम बनाया । सेवाग्राम से शिमला यात्रा में दो दिन और सेवाग्राम से शिमला यात्रा में दो दिन लगते थे। गांधीजी शिमला में चार दिन प्रतीक्षा करने की जगह सेवाग्राम पहुंचे क्योंकि उन्हें उसदिन परचुरे शास्त्री की देख-भाल करना थी। परचुरेजी कुष्ठ रोगी थे और उस समय कुष्ठ रोग को प्राणलेवा तथा छूत की बीमारी माना जाता था । गांधीजी शिमला से लौटे उस दिन परचुरेजी को मालिश करने की बारी थी। आते ही गांधीजी इस काम में लग गए। इतना ही वे समय के इतने पाबंद थे कि लोग उनके क्रियाकलापों से घड़ी मिलाया करते थे।
मंत्र- समय को जिसने साध् लिया समय उसका हो गया।
गतिशील बनो
बापू की सत्य की परिभाषा चूंकि एक गतिशील (डायनेमिक) परिभाषा थी इसीलिए उनका जीवन भी गतिशील (डायनेमिक) बना रहा । उन्होंने जड़ता को कभी स्वीकार नहीं किया । इसीलिए वे यह कहने का साहस कर सके कि यदि उनकी दो बातों में मतभेद पाया जाए तो उनकी पहले वाली बात को भुला दिया जाए और बाद वाली बात को ही माना जाए। आज कौन इस बात से इंकार कर सकता है कि चलते रहने ही आगे बढ़ने की निशानी है। मंत्र- निराश हो कर काम बंद करने या थोड़ी सफलता से प्रसन्ना हो कर ठहर जाना विफलता है। उद्यमशीलता तरक्की का रास्ता है।
आत्म निरीक्षण
मोहन के महात्मा बनने की यात्रा में कुछ सीढ़ियां महत्वपूर्ण रहीं । पहली सीढ़ी रही - आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन । इसीके चलते यह मुमकिन हो पाया कि उन्होने गलतियां तो खूब की लेकिन कोई भी गलती दूसरी बार नहीं की।
बापू कभी भी प्रतिभावान छात्र नहीं रहे । कभी मेरिट लिस्ट में नहीं आए । शिक्षा के मामले में दिशाहीन दशा में थे। पिता को उनका डाक्टर बनना पसन्द नहीं था, इस कारण दिशाहीनता में बढोतरी ही हुई। तब उनसे पूछा गया - इंग्लैण्ड जाकर बैरीस्टरी करना पसन्द करोगे? बापू फौरन ही तैयार हो गए। शिक्षा के मामले में पूर्णत: दिशाहीन मोहनदास को इंग्लैण्ड जाने के निर्णय ने दिशावान बना दिया। इंग्लैण्ड में इंग्लैण्डवालों जैसा बनने के मोह में उन्होंने पहले डांस सीखना शुरु किया। कदमों ने ताल का साथ नहीं दिया। सो, वायलीन बजाना सीखना शुरू कर दिया। लेकिन तीन महीने बीतते-बीतते मोहनदास ने अपने आप से वही सवाल एक बार पूछा जो वे बचपन से ही अपने आप से पूछते चले आ रहे थे-'मैं कौन हूँ और यहां क्यों आया हूं ?" आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन के, बचपन के अभ्यास से मोहनदास ने जवाब हासिल किया और मोह से मुक्त हो गए।
मंत्र- गलती से सबक सीखो। उसे दोहराओ मत।
विश्वसनीयता
भारत का असफल बैरिस्टर मोहनदास दक्षिण अफ्रीका का न केवल सफल वकील बना अपितु उसने वकालात के पेशे को जो विश्वसनीयता और इज्जत दिलाई उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं मिले। उनकी सफलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी मासिक आमदनी पांच हजार पौण्ड तक होने लगी थी और गोरे वकील उनके जूनियर के रूप में काम करते थे। लेकिन उन्होंने झूठे मुकदमे कभी नहीं लिए। चलते मुकदमों के दौरान उन्हें जैसे ही मालूम हुआ कि उनके मुवक्किल ने उनसे झूठ बोला है तो उन्होंने वे न्यायाधीश से क्षमा याचना करते हुए मुकदमें बीच में ही छोड़ दिया करते थे।
मंत्र- प्रतियोगिता के युग में आपके ग्राहकों या लाभार्थियों का विश्वास ही आपकी सबसे बड़ी पूंजी है।
अनुशासन
साबरमती आश्रम की नियमावली बनी और शर्त रही कि आश्रम के निवासियों को नियमावली का पालन करना पड़ेगा । ठक्कर बापा की सिफारिश पर दुधा भाई नामक एक दलित के परिवार को भी इसी शर्त पर प्रवेश दिया गया। इससे आश्रम को प्रथम दो वर्षों तक सहयोग करने वाला श्रेष्ठि वर्ग अप्रसन्ना हो गया। सहायता बन्द हो गई। उस समय अम्बाराम साराभाई चुपचाप तेरह हजार रुपयों का चेक देकर आश्रम के बाहर से ही चले गए। इस रकम में आश्रम का एक वर्ष का खर्च चल सकता था ।
बाद में बापू ने आश्रम की नियमावली को आश्रम के संविधान में बदला । यह संविधान बापू ने खुद लिखा। जैसा कि प्रत्येक संविधान में होता है, इसका उद्देश्य भी बताया जाना था। बापू ने उद्देश्य लिखा - विश्व के हित में अविरोध की देश सेवा करना।
मंत्र-किसी अवस्था में अनुशासन न तोड़ना ही बड़ी सफलता का कारक है।
मनभेद : कभी नहीं
79 वर्ष का दीर्घ जीवन और उसमें भी अन्तिम 50 वर्ष अत्यन्त सक्रियता वाले समय में भी गाँध्ाीजी के कई लोगों से मतभेद हुए। इनमें सुभाष चन्द्र बोस, डॉ भीमराव अम्बेडकर, पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता भर थे तो हरिदास बेटा भी। लेकिन गांधी ने मतभेद को कभी भी 'मनभेद" में बदलने नहीं दिया। गांधी की मानसिकता एक प्रसंग से नारायण भाई रेखांकित करते हैं। 1931 की गोल मेज परिषद की बैठक में गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे - अम्बेडकर और गांधी। गांधी का एक ही एजेण्डा था- स्वराज । उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी। अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी। वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे। परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई। अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं। उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है । बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया। उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे। उन्होंने कहा कि गांधीजी को सम्विधान की कोई जानकारी नहीं है । इसी क्रम में उन्होंने यह कहकर कि गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और, गांधी को अप्रत्यक्ष रूप से झूठा कह दिया। यह गांधीजी के लिए सम्भवत: सबसे बड़ी गाली थी । सबको लगा कि गांधी जी यह ळसहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे। जब उनके बोलने की बारी आई तो उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया-'थैंक्यू सर।" गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए। बैठक समाप्त हो गई । इस समाचार को एक अखबार ने 'गांधी टर्न्ड अदर चिक" (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया ।
बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा -'सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते तो भी मुझे अचरज नहीं होता।"गोल मेज परिषद् की इस बैठक से बापू बम्बई लौटे तो उनके स्वागत के लिए बन्दरगाह पर दो लाख लोग एकत्रित थे । तब एक अंग्रेज ने कहा - 'किसी पराजित सेनापति का ऐसा स्वागत कहीं नहीं हुआ।"
मंत्र- काम हो जीवन में पग-पग पर मतभेद की संभावना है लेकिन इन्हें मनभेद न बना कर ही स्पर्धा जीती जा सकती है।
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गाँधीजी ने दिल जीतने और भरोसा कायम करने का फार्मूला दिया है। आज प्रबंधन विशेषज्ञ भी मानते हैं कि जब भरोसा ज्यादा होता है, तो रफ्तार और उत्पादकता बढ़ जाती है। जब भरोसा कम हो तो रफ्तार व उत्पादकता घट जाती है। समय की पाबंदी, अनुशासन, मनभेद न रखने का संकल्प और आत्म निरीक्षण की प्रक्रिया गाँधीजी की जीवनचर्या थे और उनके महात्मा बनने के कारण भी। गौर करेंगे तो आज भी यही मंत्र सफलता के फंडे कहलाते हैं। जरूरत बस गाँधी को करीब से जानने की है।
गाँधी के प्रबंधन की यह समझ मुझे अग्रज श्री विष्णु बैरागी के ब्लॉग एकोऽहम् से मिली। उन्होंने 85 वर्षीय गाँधीवादी चिंतक नारायणभाई देसाई के श्रीमुख से सुनी गाँधी कथा का अपने ब्लॉग में वर्णन किया है। (श्री देसाई की 'गाँधी कथा" विस्तार से पढ़ने के लिए देखें - (http://akoham.blogspot.com/)
समय की पाबंदी
गांधी एक-एक क्षण का उपयोग करते थे । वायसराय से वार्ता के लिए शिमला पहुंचने पर मालूम हुआ कि वे सप्ताह भर बाद आएंगे । गांधी ने तत्काल सेवाग्राम लौटने का कार्यक्रम बनाया । सेवाग्राम से शिमला यात्रा में दो दिन और सेवाग्राम से शिमला यात्रा में दो दिन लगते थे। गांधीजी शिमला में चार दिन प्रतीक्षा करने की जगह सेवाग्राम पहुंचे क्योंकि उन्हें उसदिन परचुरे शास्त्री की देख-भाल करना थी। परचुरेजी कुष्ठ रोगी थे और उस समय कुष्ठ रोग को प्राणलेवा तथा छूत की बीमारी माना जाता था । गांधीजी शिमला से लौटे उस दिन परचुरेजी को मालिश करने की बारी थी। आते ही गांधीजी इस काम में लग गए। इतना ही वे समय के इतने पाबंद थे कि लोग उनके क्रियाकलापों से घड़ी मिलाया करते थे।
मंत्र- समय को जिसने साध् लिया समय उसका हो गया।
गतिशील बनो
बापू की सत्य की परिभाषा चूंकि एक गतिशील (डायनेमिक) परिभाषा थी इसीलिए उनका जीवन भी गतिशील (डायनेमिक) बना रहा । उन्होंने जड़ता को कभी स्वीकार नहीं किया । इसीलिए वे यह कहने का साहस कर सके कि यदि उनकी दो बातों में मतभेद पाया जाए तो उनकी पहले वाली बात को भुला दिया जाए और बाद वाली बात को ही माना जाए। आज कौन इस बात से इंकार कर सकता है कि चलते रहने ही आगे बढ़ने की निशानी है। मंत्र- निराश हो कर काम बंद करने या थोड़ी सफलता से प्रसन्ना हो कर ठहर जाना विफलता है। उद्यमशीलता तरक्की का रास्ता है।
आत्म निरीक्षण
मोहन के महात्मा बनने की यात्रा में कुछ सीढ़ियां महत्वपूर्ण रहीं । पहली सीढ़ी रही - आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन । इसीके चलते यह मुमकिन हो पाया कि उन्होने गलतियां तो खूब की लेकिन कोई भी गलती दूसरी बार नहीं की।
बापू कभी भी प्रतिभावान छात्र नहीं रहे । कभी मेरिट लिस्ट में नहीं आए । शिक्षा के मामले में दिशाहीन दशा में थे। पिता को उनका डाक्टर बनना पसन्द नहीं था, इस कारण दिशाहीनता में बढोतरी ही हुई। तब उनसे पूछा गया - इंग्लैण्ड जाकर बैरीस्टरी करना पसन्द करोगे? बापू फौरन ही तैयार हो गए। शिक्षा के मामले में पूर्णत: दिशाहीन मोहनदास को इंग्लैण्ड जाने के निर्णय ने दिशावान बना दिया। इंग्लैण्ड में इंग्लैण्डवालों जैसा बनने के मोह में उन्होंने पहले डांस सीखना शुरु किया। कदमों ने ताल का साथ नहीं दिया। सो, वायलीन बजाना सीखना शुरू कर दिया। लेकिन तीन महीने बीतते-बीतते मोहनदास ने अपने आप से वही सवाल एक बार पूछा जो वे बचपन से ही अपने आप से पूछते चले आ रहे थे-'मैं कौन हूँ और यहां क्यों आया हूं ?" आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन के, बचपन के अभ्यास से मोहनदास ने जवाब हासिल किया और मोह से मुक्त हो गए।
मंत्र- गलती से सबक सीखो। उसे दोहराओ मत।
विश्वसनीयता
भारत का असफल बैरिस्टर मोहनदास दक्षिण अफ्रीका का न केवल सफल वकील बना अपितु उसने वकालात के पेशे को जो विश्वसनीयता और इज्जत दिलाई उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं मिले। उनकी सफलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी मासिक आमदनी पांच हजार पौण्ड तक होने लगी थी और गोरे वकील उनके जूनियर के रूप में काम करते थे। लेकिन उन्होंने झूठे मुकदमे कभी नहीं लिए। चलते मुकदमों के दौरान उन्हें जैसे ही मालूम हुआ कि उनके मुवक्किल ने उनसे झूठ बोला है तो उन्होंने वे न्यायाधीश से क्षमा याचना करते हुए मुकदमें बीच में ही छोड़ दिया करते थे।
मंत्र- प्रतियोगिता के युग में आपके ग्राहकों या लाभार्थियों का विश्वास ही आपकी सबसे बड़ी पूंजी है।
अनुशासन
साबरमती आश्रम की नियमावली बनी और शर्त रही कि आश्रम के निवासियों को नियमावली का पालन करना पड़ेगा । ठक्कर बापा की सिफारिश पर दुधा भाई नामक एक दलित के परिवार को भी इसी शर्त पर प्रवेश दिया गया। इससे आश्रम को प्रथम दो वर्षों तक सहयोग करने वाला श्रेष्ठि वर्ग अप्रसन्ना हो गया। सहायता बन्द हो गई। उस समय अम्बाराम साराभाई चुपचाप तेरह हजार रुपयों का चेक देकर आश्रम के बाहर से ही चले गए। इस रकम में आश्रम का एक वर्ष का खर्च चल सकता था ।
बाद में बापू ने आश्रम की नियमावली को आश्रम के संविधान में बदला । यह संविधान बापू ने खुद लिखा। जैसा कि प्रत्येक संविधान में होता है, इसका उद्देश्य भी बताया जाना था। बापू ने उद्देश्य लिखा - विश्व के हित में अविरोध की देश सेवा करना।
मंत्र-किसी अवस्था में अनुशासन न तोड़ना ही बड़ी सफलता का कारक है।
मनभेद : कभी नहीं
79 वर्ष का दीर्घ जीवन और उसमें भी अन्तिम 50 वर्ष अत्यन्त सक्रियता वाले समय में भी गाँध्ाीजी के कई लोगों से मतभेद हुए। इनमें सुभाष चन्द्र बोस, डॉ भीमराव अम्बेडकर, पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता भर थे तो हरिदास बेटा भी। लेकिन गांधी ने मतभेद को कभी भी 'मनभेद" में बदलने नहीं दिया। गांधी की मानसिकता एक प्रसंग से नारायण भाई रेखांकित करते हैं। 1931 की गोल मेज परिषद की बैठक में गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे - अम्बेडकर और गांधी। गांधी का एक ही एजेण्डा था- स्वराज । उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी। अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी। वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे। परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई। अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं। उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है । बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया। उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे। उन्होंने कहा कि गांधीजी को सम्विधान की कोई जानकारी नहीं है । इसी क्रम में उन्होंने यह कहकर कि गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और, गांधी को अप्रत्यक्ष रूप से झूठा कह दिया। यह गांधीजी के लिए सम्भवत: सबसे बड़ी गाली थी । सबको लगा कि गांधी जी यह ळसहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे। जब उनके बोलने की बारी आई तो उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया-'थैंक्यू सर।" गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए। बैठक समाप्त हो गई । इस समाचार को एक अखबार ने 'गांधी टर्न्ड अदर चिक" (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया ।
बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा -'सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते तो भी मुझे अचरज नहीं होता।"गोल मेज परिषद् की इस बैठक से बापू बम्बई लौटे तो उनके स्वागत के लिए बन्दरगाह पर दो लाख लोग एकत्रित थे । तब एक अंग्रेज ने कहा - 'किसी पराजित सेनापति का ऐसा स्वागत कहीं नहीं हुआ।"
मंत्र- काम हो जीवन में पग-पग पर मतभेद की संभावना है लेकिन इन्हें मनभेद न बना कर ही स्पर्धा जीती जा सकती है।
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Wednesday, September 22, 2010
।। घाव ।।
किसने कहा कि
विस्फोट के लिए
चाहिए बारूद,
घर जलाने के लिए
चाहिए तीलियां।
घर हो या सपने
पल में ध्वस्त होते हैं।
क्षण में छिनता है आशियाना
बिना पेट्रोल धधकता है शहर।
कविता में जो मरहम है
आपके मुंह से निकलने
पर वही शब्द दे जाते हैं घाव।
नेताजी, आग उगलते
शब्दों से लाख दर्जा अच्छे
हैं आपके झूठे आश्वासन।
विस्फोट के लिए
चाहिए बारूद,
घर जलाने के लिए
चाहिए तीलियां।
घर हो या सपने
पल में ध्वस्त होते हैं।
क्षण में छिनता है आशियाना
बिना पेट्रोल धधकता है शहर।
कविता में जो मरहम है
आपके मुंह से निकलने
पर वही शब्द दे जाते हैं घाव।
नेताजी, आग उगलते
शब्दों से लाख दर्जा अच्छे
हैं आपके झूठे आश्वासन।
Saturday, September 18, 2010
।। मसरूफियत ।।
बच्चे अब नहीं दुबकते
माँ के आँचल में।
बच्चे अब नहीं सुनते
कहानी अपनी नानी से।
बच्चे अब नहीं माँगते
गुड़ धानी दादी से।
बच्चे अब नहीं खेलते
कंचे या आँख मिचौली
बच्चे अब नहीं जानते
चौपाल पर होती थी रामलीला।
बच्चे अब होमवर्क करते हैं
बच्चे अब बच्चे कहाँ रहे ?
( ‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से अपनी कविता )
Tuesday, September 14, 2010
दीपक सा जलो तुम
---अजय श्रीवास्तव का फोटो और अपनी कविता---
सूरज अस्त हो चला है
झील की गोद में उतरा सूरज
निकल पड़ा है कही ओर फैलाने उजास
दिनकर कल फिर आएगा और
रोशनी से भर देगा दिन...
सूरज के आने तक
अंधेरे से लड़ो तुम
रोशनी के उगने तक
दीपक सा जलो तुम।
Monday, September 13, 2010
तुम बुला लेती हो झील
आकाश आनंद का चित्र और अपनी कविता
झील,
तुम बुला लेती हो रोज।
तुम्हारे किनारे जमती है
महफिल अपनी
काँटा पकड़े घंटों
तुम्हारे पहलू में बैठा मैं
कब अकेला रहता हूँ?
लहरें तुम्हारी बतियाती हैं
कितना,
जैसे घंटों कहकहे लगाता है
यार अपना।
झील, तुम्हारे होते
कब अकेला रहता हूँ मैं भला?
Wednesday, September 8, 2010
नमक
~ श्री आरके झारिया के चित्र पर अपनी कविता~
बूढ़ी हड्डियाँ पूरी ताकत लगा
ढोती है जिंदगी।
उम्र के इस पड़ाव पर भी
जवाब नहीं देती उम्मीदें।
हाड़तोड़ मेहनत के बाद
दो पल का आराम और
चाय की चुस्कियों का साथ
भर देता है आँखों में उजास।
तब चाय के नमक और
पसीने के नमक में भेद नहीं रहता।
Monday, September 6, 2010
एक शिक्षक की डायरी के अंश
5 जुलाई
स्कूल शुरू हो गए हैं। अभी मुझे चार क्लास पढ़ाना है। एक साथी शिक्षक जन शिक्षा केन्द्र में रिपोर्ट बनाने में व्यस्त हैं। उन्हें हर दूसरे दिन डाक ले कर जाना पड़ता है। कहने को तो जन शिक्षा केन्द्र में प्रभारी की व्यवस्था है, लेकिन यहाँ प्रभारी का काम भी किसी प्रभारी के भरोसे चल रहा है। एक शिक्षक पूरे महीने तमाम काम करने में जुटा रहता है।
15 जुलाई
मैं अध्यापक हूँ और कई सालों की लड़ाई के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हमारी समस्याओं को सुना और पूरा किया। लेकिन ढीले प्रशासनिक कामकाज के कारण वे आदेश अभी तक नहीं मिले हैं। मेरा प्रमोशन होना है, लेकिन सरकार के आदेश के बाद भी यह काम नहीं हो रहा है। जनपद सीईओ के पास जाता हूँ तो वे जिला शिक्षा अधिकारी के पास भेज देते हैं। डीईओ के पास जाता हूँ तो वे कहते हैं ऊपर से मार्गदर्शन माँगा गया है। जब आदेश ही ऊपर वालों ने दिया है तो उनका मार्गदर्शन कब मिलेगा।
23 जुलाई
बिटिया स्कूल जाने लगी है। जब से वह आई है, तभी से सोच रहा था कि उसे कान्वेंट में पढ़ाऊँगा। लेकिन मेरी इतनी तनख्वाह कहाँ कि मोटी फीस भर सकूँ। मैंने उसे पास के ही एक प्रायवेट स्कूल में भर्ती किया है। फीस भी कम है। घर के पास है तो लाने-ले जाने का खर्चा भी बच जाता है। कल पुराना दोस्त मनीष मिल गया था। मुझसे पढ़ने में कमजोर था। लेकिन पिता की दुकान क्या संभाली, आज ठाठ में मुझसे आगे हैं। मुझे मेरी किस्मत पर गुस्सा भी आया। क्या कहूँ, अभी मेरा वेतन 8 हजार रूपए है। बीमा, पेंशन, भत्ता आदि मिलना शुर नहीं हुआ। इतने कम पैसे और इतनी मँहगाई। कैसे घर चले? पिछले महीने माँ बीमार हो गई तो भइया से पैसे ले कर दवाई लाना पड़ी थी। शाम को घर पहुँचा तो बिटिया ड्रेस की मांग करने लगी। कहती है 15 अगस्त पर पहनना जरूरी होगी तब तक ले आना।
5 अगस्त
आज प्रधानाध्यापक महोदय ने नया आदेश दिया है। समग्र स्वच्छता अभियान में काम करने जाना है। अभी-अभी जनगणना की ड्यूटी खत्म हुई है। अब नया काम मिल गया। मुझे बहुत गुस्सा आता है। अध्यापक जैसे गरीब की गाय हो। जो चाहे वहाँ काम पर लगा देता है। जबकि न्यायालय और सरकार भी कई बार कह चुके हैं कि हमें शैक्षणिक कार्य के अलावा किसी और काम पर नहीं लगाना है। पिछली बार का किस्सा सुनाता हूँ। मेरी जनगणना में ड्यूटी थी कि भोपाल के एक साहब दौरे पर आ गए। गाँव वालों ने शिकायत कर दी कि मास्साब नहीं आते हैं। फिर क्या , मुझे सस्पेंड कर दिया। मुझे पता चला तो मैंने कलेक्टर साहब का आदेश दिखाया। तब कहीं जा कर मुझे न्याय मिला। लेकिन तब तक मुझे जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय में दर्जनों चक्कर लगाना पड़े। खर्चा हुआ और टेंशन लिया वो अलग।
11 अगस्त
मैं काम पर लौट आया। लेकिन इस बीच स्वतंत्रता दिवस आ गया। बिटिया की ड्रेस नहीं आई अब तक। बार-बार जिद कर रही थी तो मैंने एक तमाचा मार दिया। कितना रोई थी वह। मुझे भी बहुत बुरा लगा। पहली बार मारा था। क्या करूँ हालात बिगड़ जाते हैं तो कभी-कभी गुस्सा आ जाता है।
19 अगस्त
मध्याह्न भोजन कितना बड़ा सिरदर्द है। कहने को तो काम करने वाले लोग अलग है। लेकिन कोई गलती हो जाए, खाना खराब हो या कीड़ा निकल जाए तो सस्पेंड होगा मास्टर। पिछले साल पास वाले गाँव के एक सर का इंक्रीमेंट रुक चुका है। नहीं जी, कौन बला मोल ले। मैं तो बच्चों को काम दे कर मध्याह्न भोजन की व्यवस्था संभालता हूँ। पढ़ाई तो बाद में हो जाएगी। कोई लफड़ा हो गया तो क्या जवाब दूँगा। मन में अकसर खुद ही सवाल पूछता हूँ पढ़ाई का क्या होगा? गुणवत्ता ? लेकिन फिर लगता है कि व्यवस्था ही मुझे बेहतर पढ़ाने नहीं देती तो मैं क्या करूँ? वह चाहती है कि मैं मतगणना करूँ, लोगों को गिनूँ, पशु गिनूँ, बच्चों को छोड़ बड़ों को सफाई का पाठ पढ़ाऊँ, डाक लाऊँ, तमाम योजनाओं के लक्ष्य को पूरा करूँ और फिर परिवार का पेट भरने के लिए ज्यादा कमाई का जुगाड़ करूँ तो ठीक है। पढ़ाई का क्या।
28 अगस्त
जन शिक्षा केन्द्र गया था, डाक देने। वहाँ प्रमोशन आदेश का पूछा लेकिन कोई आदेश नहीं आया। इध्ार हाथ तंग है और समस्या हल नहीं हो रही है। बहुत खीज होती है। लौट कर स्कूल आया तो राकेश और केशव मस्ती कर रहे थे। उत्तर याद करने को दिए थे। दो दिन से पूछ रहा हूँ लेकिन दो उत्तर याद नहीं हुए। दोनों को जमा कर दिए दो। चुपचाप बैठ कर पढ़ाई नहीं कर सकते। समझ नहीं सकते सर परेशान है। बाद में समझाया कि कल याद करके आना।
29 अगस्त
कल शाम को घर गया तो मन खराब था। पत्नी ने पूछ लिया। क्या कहता। उस दिन भी बुरा लगा था, जब बिटिया को पीटा था, आज भी बुरा लगा जब दो बच्चों को पीट दिया। ऐसा थोड़े ही है कि मैं रोज पीटता हूँ लेकिन क्या करूँ मेरी बात कोई समझता ही नहीं है।
स्कूल शुरू हो गए हैं। अभी मुझे चार क्लास पढ़ाना है। एक साथी शिक्षक जन शिक्षा केन्द्र में रिपोर्ट बनाने में व्यस्त हैं। उन्हें हर दूसरे दिन डाक ले कर जाना पड़ता है। कहने को तो जन शिक्षा केन्द्र में प्रभारी की व्यवस्था है, लेकिन यहाँ प्रभारी का काम भी किसी प्रभारी के भरोसे चल रहा है। एक शिक्षक पूरे महीने तमाम काम करने में जुटा रहता है।
15 जुलाई
मैं अध्यापक हूँ और कई सालों की लड़ाई के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हमारी समस्याओं को सुना और पूरा किया। लेकिन ढीले प्रशासनिक कामकाज के कारण वे आदेश अभी तक नहीं मिले हैं। मेरा प्रमोशन होना है, लेकिन सरकार के आदेश के बाद भी यह काम नहीं हो रहा है। जनपद सीईओ के पास जाता हूँ तो वे जिला शिक्षा अधिकारी के पास भेज देते हैं। डीईओ के पास जाता हूँ तो वे कहते हैं ऊपर से मार्गदर्शन माँगा गया है। जब आदेश ही ऊपर वालों ने दिया है तो उनका मार्गदर्शन कब मिलेगा।
23 जुलाई
बिटिया स्कूल जाने लगी है। जब से वह आई है, तभी से सोच रहा था कि उसे कान्वेंट में पढ़ाऊँगा। लेकिन मेरी इतनी तनख्वाह कहाँ कि मोटी फीस भर सकूँ। मैंने उसे पास के ही एक प्रायवेट स्कूल में भर्ती किया है। फीस भी कम है। घर के पास है तो लाने-ले जाने का खर्चा भी बच जाता है। कल पुराना दोस्त मनीष मिल गया था। मुझसे पढ़ने में कमजोर था। लेकिन पिता की दुकान क्या संभाली, आज ठाठ में मुझसे आगे हैं। मुझे मेरी किस्मत पर गुस्सा भी आया। क्या कहूँ, अभी मेरा वेतन 8 हजार रूपए है। बीमा, पेंशन, भत्ता आदि मिलना शुर नहीं हुआ। इतने कम पैसे और इतनी मँहगाई। कैसे घर चले? पिछले महीने माँ बीमार हो गई तो भइया से पैसे ले कर दवाई लाना पड़ी थी। शाम को घर पहुँचा तो बिटिया ड्रेस की मांग करने लगी। कहती है 15 अगस्त पर पहनना जरूरी होगी तब तक ले आना।
5 अगस्त
आज प्रधानाध्यापक महोदय ने नया आदेश दिया है। समग्र स्वच्छता अभियान में काम करने जाना है। अभी-अभी जनगणना की ड्यूटी खत्म हुई है। अब नया काम मिल गया। मुझे बहुत गुस्सा आता है। अध्यापक जैसे गरीब की गाय हो। जो चाहे वहाँ काम पर लगा देता है। जबकि न्यायालय और सरकार भी कई बार कह चुके हैं कि हमें शैक्षणिक कार्य के अलावा किसी और काम पर नहीं लगाना है। पिछली बार का किस्सा सुनाता हूँ। मेरी जनगणना में ड्यूटी थी कि भोपाल के एक साहब दौरे पर आ गए। गाँव वालों ने शिकायत कर दी कि मास्साब नहीं आते हैं। फिर क्या , मुझे सस्पेंड कर दिया। मुझे पता चला तो मैंने कलेक्टर साहब का आदेश दिखाया। तब कहीं जा कर मुझे न्याय मिला। लेकिन तब तक मुझे जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय में दर्जनों चक्कर लगाना पड़े। खर्चा हुआ और टेंशन लिया वो अलग।
11 अगस्त
मैं काम पर लौट आया। लेकिन इस बीच स्वतंत्रता दिवस आ गया। बिटिया की ड्रेस नहीं आई अब तक। बार-बार जिद कर रही थी तो मैंने एक तमाचा मार दिया। कितना रोई थी वह। मुझे भी बहुत बुरा लगा। पहली बार मारा था। क्या करूँ हालात बिगड़ जाते हैं तो कभी-कभी गुस्सा आ जाता है।
19 अगस्त
मध्याह्न भोजन कितना बड़ा सिरदर्द है। कहने को तो काम करने वाले लोग अलग है। लेकिन कोई गलती हो जाए, खाना खराब हो या कीड़ा निकल जाए तो सस्पेंड होगा मास्टर। पिछले साल पास वाले गाँव के एक सर का इंक्रीमेंट रुक चुका है। नहीं जी, कौन बला मोल ले। मैं तो बच्चों को काम दे कर मध्याह्न भोजन की व्यवस्था संभालता हूँ। पढ़ाई तो बाद में हो जाएगी। कोई लफड़ा हो गया तो क्या जवाब दूँगा। मन में अकसर खुद ही सवाल पूछता हूँ पढ़ाई का क्या होगा? गुणवत्ता ? लेकिन फिर लगता है कि व्यवस्था ही मुझे बेहतर पढ़ाने नहीं देती तो मैं क्या करूँ? वह चाहती है कि मैं मतगणना करूँ, लोगों को गिनूँ, पशु गिनूँ, बच्चों को छोड़ बड़ों को सफाई का पाठ पढ़ाऊँ, डाक लाऊँ, तमाम योजनाओं के लक्ष्य को पूरा करूँ और फिर परिवार का पेट भरने के लिए ज्यादा कमाई का जुगाड़ करूँ तो ठीक है। पढ़ाई का क्या।
28 अगस्त
जन शिक्षा केन्द्र गया था, डाक देने। वहाँ प्रमोशन आदेश का पूछा लेकिन कोई आदेश नहीं आया। इध्ार हाथ तंग है और समस्या हल नहीं हो रही है। बहुत खीज होती है। लौट कर स्कूल आया तो राकेश और केशव मस्ती कर रहे थे। उत्तर याद करने को दिए थे। दो दिन से पूछ रहा हूँ लेकिन दो उत्तर याद नहीं हुए। दोनों को जमा कर दिए दो। चुपचाप बैठ कर पढ़ाई नहीं कर सकते। समझ नहीं सकते सर परेशान है। बाद में समझाया कि कल याद करके आना।
29 अगस्त
कल शाम को घर गया तो मन खराब था। पत्नी ने पूछ लिया। क्या कहता। उस दिन भी बुरा लगा था, जब बिटिया को पीटा था, आज भी बुरा लगा जब दो बच्चों को पीट दिया। ऐसा थोड़े ही है कि मैं रोज पीटता हूँ लेकिन क्या करूँ मेरी बात कोई समझता ही नहीं है।
Thursday, September 2, 2010
वे हाथ सूत कात रहे हैं...
~ श्री शोमित शर्मा के खींचे फोटो पर अपनी कविता ~
वे हाथ सूत कात रहे हैं...
सूत कातने वाले हाथ
घर सँवारते हैं
आँगन बुहारते हैं
रोटियाँ बेलते हैं ...
इन हाथों पर रचती है मेंहदी
इन हाथों पर चूडियाँ फबती है...
ये हैं तो दुनिया हसीं है
ये हैं तो खुशियाँ बची हैं
दुनिया बचाने वाले हाथ
सूत कात रहे हैं।
Wednesday, September 1, 2010
घोर (अ) सामाजिक हम!
आशी मनोहर नहीं रहे।
यह खबर भोपाल की सांस्कृतिक थाती को समझने वाले हर व्यक्ति को प्रभावित कर गई। लेकिन एक शख्स के दुनिया से चले जाने से ज्यादा दुख इसलिए हुआ कि एकमात्र अखबार नवदुनिया को छोड़ शहर के किसी भी अखबार ने इस संस्कृतिकर्मी के निधन पर चार लाइन का समाचार तक प्रकाशित नहीं किया! (ऐसे में श्रृद्धांजलि लेख की उम्मीद तो फिजूल है।)
...और रंज तब हुआ जब हमारे एक वरिष्ठ साथी से पता चला कि सभी अखबारों के कला संवाददाताओं ने आशी की मृत्यु की जानकारी पर उनसे जुड़े तमाम संदर्भ खंगाले थे लेकिन किसी ने भी एक लाइन नहीं लिखी!
हो सकता है पत्रकार मित्रों ने लिखी हो और डेस्क ने हर बार की तरह अपनी कैंची चला दी हो लेकिन कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि शहर के एक रचनात्मक व्यक्ति के निधन पर उसे सार समाचार में भी एक सूचना की तरह स्थान नहीं मिला।
यहाँ मुझे माँ पर लिखी एक कविता याद आ रही है जिसमें माँ की मृत्यु तो चार दिन पहले हो जाती है लेकिन बेटे की स्मृतियों में या यूँ कह लें बेटे के लिए वह तब तक जीवित रहती हैं जब तक उसे मौत का समाचार नहीं मिल जाता। यानि आशी अपने कई प्रशंसकों के लिए तब तक जीवित हैं जब तक की किसी माध्यम से उन तक निधन की सूचना नहीं पहुँच जाती। (क्योंकि सूचना पहुँचाने के आम माध्यम अखबारों ने अपनी यह भूमिका भी नहीं निभाई।)
यह सब सोचते वक्त एक बात बार-बार अखर रही है कि हमारी संवेदना और चयन का स्तर किस कदर गिरा है कि हम सामाजिक हो कर भी घोर असामाजिक प्राणी है। ठीक उस प्रतिक्रिया की तरह जब दुर्घटना की खबर बता रहे पत्रकार से सीनियर पूछ लेता है कि कोई मरा या नहीं? जितनी जाने गई होंगी, उतनी 'बड़ी" खबर होगी।
वैसे यहाँ यह बताना मौजूँ होगा कि अपनी संस्था के माध्यम से बच्चों के लिए पहला बाल समारोह प्रारम्भ करने आशी उम्र मे अंतिम चरण में भी नई पौध को संस्कारवान बनाने के प्रयत्न में जुटे रहे। उन्होंने विवाह की बाहरी नहीं आंतरिक तैयारियों के लिए कोचिंग संस्थान प्रारम्भ किया। यह अनूठा संस्थान परिवार जैसी संस्था को टूटने से बचाने का प्रयत्न था।
मूल रूप से उदयपुर के निवासी आशी का परिवार 1954 में भोपाल आया था। उन्होंने 'प्रेक्षक" रंग समूह बनाया था जिसने सत्तर-अस्सी के दशक में काफी रंग-गतिविधियां की थीं। किसी निजी संस्था की ओर से प्रदेश का ही नहीं बल्कि पूरे देश का पहला बाल समारोह 'बखत राम उत्सव" का कई सालों तक सफल आयोजन किया। वे 'रंग संधान" नामक पत्रिका निकालते थे। विरासत को सहेजने के लिए वे इसमें बड़ी दुर्लभ कालजयी कृतियों का नए कलेवर में प्रस्तुत करते थे। श्री आशी ने इस पत्रिका के नाम पर 'रंग संधान फाउंडेशन" की भी स्थापना की थी। उन्होंने 'दिगन्त" नामक अखबार भी निकाला।
वे अभिनय रंगनिर्देशन, रंग शिविर का आयोजन, रंग संस्था का संचालन आदि बहुआयामी कार्यों में सक्रिय थे। उनकी बनाई फिल्मों में 'सूरज का अंश" शामिल है। पण्डवानी तीजन बाई पर बनने वाली इकलौती फिल्म का निर्माण उन्होंने किया।
पिछले साल उन्होंने कोचिंग की बेहद नई परिभाषा गढ़ी थी और 'सर्वोत्तम संस्थान" प्रारंभ किया इसमें विवाह पूर्व तैयारियां, पर्सनालिटी डेवलपमेंट, अंग्रेजी बोलने का प्रशिक्षण आदि दिया जाता है। उनका सबसे आखिरी प्रोजेक्ट था लैण्ड मार्क जिसमें प्रापर्टी डीलिंग के लिए काउंसलिगि, प्रोमोशन आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है। आशी ने अपने जीवन के कैनवास पर इतने रंग बिखराएँ कि जीवन का कोई मोड़ हो, मित्रों और प्रशंसकों को वे बहुत याद आएँगे।
यह खबर भोपाल की सांस्कृतिक थाती को समझने वाले हर व्यक्ति को प्रभावित कर गई। लेकिन एक शख्स के दुनिया से चले जाने से ज्यादा दुख इसलिए हुआ कि एकमात्र अखबार नवदुनिया को छोड़ शहर के किसी भी अखबार ने इस संस्कृतिकर्मी के निधन पर चार लाइन का समाचार तक प्रकाशित नहीं किया! (ऐसे में श्रृद्धांजलि लेख की उम्मीद तो फिजूल है।)
...और रंज तब हुआ जब हमारे एक वरिष्ठ साथी से पता चला कि सभी अखबारों के कला संवाददाताओं ने आशी की मृत्यु की जानकारी पर उनसे जुड़े तमाम संदर्भ खंगाले थे लेकिन किसी ने भी एक लाइन नहीं लिखी!
हो सकता है पत्रकार मित्रों ने लिखी हो और डेस्क ने हर बार की तरह अपनी कैंची चला दी हो लेकिन कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि शहर के एक रचनात्मक व्यक्ति के निधन पर उसे सार समाचार में भी एक सूचना की तरह स्थान नहीं मिला।
यहाँ मुझे माँ पर लिखी एक कविता याद आ रही है जिसमें माँ की मृत्यु तो चार दिन पहले हो जाती है लेकिन बेटे की स्मृतियों में या यूँ कह लें बेटे के लिए वह तब तक जीवित रहती हैं जब तक उसे मौत का समाचार नहीं मिल जाता। यानि आशी अपने कई प्रशंसकों के लिए तब तक जीवित हैं जब तक की किसी माध्यम से उन तक निधन की सूचना नहीं पहुँच जाती। (क्योंकि सूचना पहुँचाने के आम माध्यम अखबारों ने अपनी यह भूमिका भी नहीं निभाई।)
यह सब सोचते वक्त एक बात बार-बार अखर रही है कि हमारी संवेदना और चयन का स्तर किस कदर गिरा है कि हम सामाजिक हो कर भी घोर असामाजिक प्राणी है। ठीक उस प्रतिक्रिया की तरह जब दुर्घटना की खबर बता रहे पत्रकार से सीनियर पूछ लेता है कि कोई मरा या नहीं? जितनी जाने गई होंगी, उतनी 'बड़ी" खबर होगी।
वैसे यहाँ यह बताना मौजूँ होगा कि अपनी संस्था के माध्यम से बच्चों के लिए पहला बाल समारोह प्रारम्भ करने आशी उम्र मे अंतिम चरण में भी नई पौध को संस्कारवान बनाने के प्रयत्न में जुटे रहे। उन्होंने विवाह की बाहरी नहीं आंतरिक तैयारियों के लिए कोचिंग संस्थान प्रारम्भ किया। यह अनूठा संस्थान परिवार जैसी संस्था को टूटने से बचाने का प्रयत्न था।
मूल रूप से उदयपुर के निवासी आशी का परिवार 1954 में भोपाल आया था। उन्होंने 'प्रेक्षक" रंग समूह बनाया था जिसने सत्तर-अस्सी के दशक में काफी रंग-गतिविधियां की थीं। किसी निजी संस्था की ओर से प्रदेश का ही नहीं बल्कि पूरे देश का पहला बाल समारोह 'बखत राम उत्सव" का कई सालों तक सफल आयोजन किया। वे 'रंग संधान" नामक पत्रिका निकालते थे। विरासत को सहेजने के लिए वे इसमें बड़ी दुर्लभ कालजयी कृतियों का नए कलेवर में प्रस्तुत करते थे। श्री आशी ने इस पत्रिका के नाम पर 'रंग संधान फाउंडेशन" की भी स्थापना की थी। उन्होंने 'दिगन्त" नामक अखबार भी निकाला।
वे अभिनय रंगनिर्देशन, रंग शिविर का आयोजन, रंग संस्था का संचालन आदि बहुआयामी कार्यों में सक्रिय थे। उनकी बनाई फिल्मों में 'सूरज का अंश" शामिल है। पण्डवानी तीजन बाई पर बनने वाली इकलौती फिल्म का निर्माण उन्होंने किया।
पिछले साल उन्होंने कोचिंग की बेहद नई परिभाषा गढ़ी थी और 'सर्वोत्तम संस्थान" प्रारंभ किया इसमें विवाह पूर्व तैयारियां, पर्सनालिटी डेवलपमेंट, अंग्रेजी बोलने का प्रशिक्षण आदि दिया जाता है। उनका सबसे आखिरी प्रोजेक्ट था लैण्ड मार्क जिसमें प्रापर्टी डीलिंग के लिए काउंसलिगि, प्रोमोशन आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है। आशी ने अपने जीवन के कैनवास पर इतने रंग बिखराएँ कि जीवन का कोई मोड़ हो, मित्रों और प्रशंसकों को वे बहुत याद आएँगे।
Monday, August 30, 2010
माण्डू
~ श्री राजू कुमार के फोटो पर अपनी कविता ~
माण्डू,
तुम रूपमती के रूप से सुंदर कहलाते हो।
तुम्हारे महल उतने ही ऊँचे हैं
जितना ऊँचा बाज बहादुर का प्यार था।
'रूपमती यहाँ से आती थी हाथी पर सवार हो।
जनाब, ये देखिए, यहीं से करती थी पूजा
देवी नर्मदा की।" जब कहता है गाइड
तो लगता है,
माण्डू के आँगन में धड़क रही है प्रेम गाथा।
बावरी हवा
इस कदर सुहानी लगती है
जैसे अभी-अभी रूपमती को छू कर आई हो।
इतिहास की धुंध तुम्हारा क्या बिगाड़ेगी माण्डू
दिन-महीने-साल गुजरते और जवान हो रही है
तुम्हारी आँगन की प्रेम कहानी।
माण्डू,
तुम रूपमती के रूप से सुंदर कहलाते हो।
तुम्हारे महल उतने ही ऊँचे हैं
जितना ऊँचा बाज बहादुर का प्यार था।
'रूपमती यहाँ से आती थी हाथी पर सवार हो।
जनाब, ये देखिए, यहीं से करती थी पूजा
देवी नर्मदा की।" जब कहता है गाइड
तो लगता है,
माण्डू के आँगन में धड़क रही है प्रेम गाथा।
बावरी हवा
इस कदर सुहानी लगती है
जैसे अभी-अभी रूपमती को छू कर आई हो।
इतिहास की धुंध तुम्हारा क्या बिगाड़ेगी माण्डू
दिन-महीने-साल गुजरते और जवान हो रही है
तुम्हारी आँगन की प्रेम कहानी।
Friday, August 27, 2010
वह लिखेगी
~ श्री अनिल गुलाटी के खींचे फोटो पर अपनी कविता ~
वह लिख रही है
'अ" अनार का।
कल वह लिखेगी
'उ" से उजास और
'व" से विकास।
आज उसकी आँखों में सपने हैं
कल हाथों में ताकत होगी
तब वह बदलेगी सूरत
तब दिन भी बहुरेंगे।
वह लिख रही है
'अ" अनार का।
कल वह लिखेगी
'उ" से उजास और
'व" से विकास।
आज उसकी आँखों में सपने हैं
कल हाथों में ताकत होगी
तब वह बदलेगी सूरत
तब दिन भी बहुरेंगे।
Tuesday, August 24, 2010
कथक के आसमान का चाँद
उनका नाम ही मकबूल है। कहने को आसमान में हजारों सितारे हैं लेकिन कथक के संसार की वह इकलौती चाँद हैं!
हो सकता है कि उन्हें देखे बगैर इन पंक्तियों में अतिश्योक्ति नजर आ जाए लेकिन सच तो यह है कि जो भी शख्स सितारा देवी से मिल लेता है, वह बिना झिझक इस बात को स्वीकार कर लेता है कि उनके जैसा कोई नहीं है। वे 90 वर्ष की हैं लेकिन कथक के प्रति उनका जोश किसी युवा से कम नहीं है। 77 वर्ष की उम्र जब अधिकांश लोग मौत की राह तकते हैं, पलंग पर गुजर-बसर करते हैं, वे भोपाल में 4 घंटे तक कथक से दर्शकों को हतप्रभ करती हैं और जब अगली बार 13 साल बाद 21 अगस्त 2010 को भोपाल आती हैं तो भले नृत्य नहीं करती है लेकिन मंच पर गायन के साथ ऐसी भावमुद्रा बनाती हैं कि सभागार में बैठा कला समाज भौंचक देखता रहता है।
यह जिक्र उस कलाकार का है जिसका नाम धनलक्ष्मी रखा गया था। 1920 की दीपावली की पूर्व संध्या पर जन्म लेने के कारण भी संभव है कि यह नाम रखा गया हो। बाद में जब मंच पर इस नन्हीं कलाकार ने अपने हुनर का मुजाहिरा किया तो 'सितारा" नाम मुफीद समझा गया। यही सितारा देवी 21 अगस्त को भोपाल में थी। मुझे कुछ पल उनके संग रहने और उनके आभा मंडल को जानने का मौका मिला। मैंने पाया कि 90 वर्ष की उम्र में उनकी देह थकी है लेकिन नृत्य के प्रति आग्रह और उत्साह जरा कम नहीं हुआ और न ही उनके स्वाभिमान की ठसक कम हुई है। मकबूल नृत्यांगना सितारा देवी से बात करते समय मानो एक स्वर्णिम दौर जीवंत हो उठता है। वे हर व्यक्ति से आत्मीय से बात करती हैं। उनकी इस भोपाल यात्रा मैं भी उन्हें गुनगुनाते, नृत्य की भाव मुद्रा बनाते देख लोगों को 16 साल पहले की वह शाम याद आ गई जब भारत भवन में उन्हें कालिदास सम्मान प्रदान किया गया था। तब 77 वर्षीय सितारा देवी ने तुलसीदासजी की विनय पत्रिका की ख्यात पंक्तियों 'ठुमकत चलत रामचन्द्र बाजत पैजनियाँ" पर चमत्कृत कर देने वाली प्रस्तुति दी थी। उन्हें 1975 में पद्मश्री दिया गया लेकिन बाद में पद्मभूषण लेने से इंकार कर दिया। जब सम्मान की बात चली तो उन्होंने कहा कि भारत रत्न से कम कोई सम्मान मंजूर नहीं है। उन्होंने कहा कि सरकार मेरेे योगदान को नहीं जानती। ऐसे सम्मान का क्या मतलब। भोपाल में मधुवन द्वारा दिए गए सम्मान पर उन्होंने कहा कि यह सुरेश तांतेड़ जैसे साधक के श्रम की संस्था है। ऐसी संस्थाओं से मिला सम्मान स्वीकार हैं क्योंकि यह प्रशंसकों के ोह का प्रतीक है। उन्होंने कहा कि नए नर्तकों में लगन और साधना की कमी दिखलाई देती है। वो दौर और था जब बरसों ने अभ्यास के बाद भी मंच नहीं मिलता था। अब तो गुरू फटकार दे तो शिष्य अगले दिन आना बंद कर देते हैं। कला के लिए यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है।
उम्र का इजहार आम तौर पर महिलाओं की कमजोरी मानी जाती है। इसलिए भरसक प्रयास किया जाता है कि इसे छुपाया जा सके लेकिन 90 वर्षींय महिला मंच से घोषित उम्र की सत्यता जाँचने का प्रयास करें तो इसे क्या कहेंगे? जी हाँ, रवीन्द्र भवन में जब उनके परिचय के साथ उम्र को उल्लेख किया गया तो उन्होंने उद्घोषक को पास बुला कर स्पष्ट जाना कि क्या उम्र बताई गई है। यह उनके परफेक्शन का एक नमूना है। सोचिए जब वे मंच पर होती होंगी तब नृत्य के साथ कितनी सम्पूर्णता रखती होंगी।
इसीलिए वे सितारा हैं।
हो सकता है कि उन्हें देखे बगैर इन पंक्तियों में अतिश्योक्ति नजर आ जाए लेकिन सच तो यह है कि जो भी शख्स सितारा देवी से मिल लेता है, वह बिना झिझक इस बात को स्वीकार कर लेता है कि उनके जैसा कोई नहीं है। वे 90 वर्ष की हैं लेकिन कथक के प्रति उनका जोश किसी युवा से कम नहीं है। 77 वर्ष की उम्र जब अधिकांश लोग मौत की राह तकते हैं, पलंग पर गुजर-बसर करते हैं, वे भोपाल में 4 घंटे तक कथक से दर्शकों को हतप्रभ करती हैं और जब अगली बार 13 साल बाद 21 अगस्त 2010 को भोपाल आती हैं तो भले नृत्य नहीं करती है लेकिन मंच पर गायन के साथ ऐसी भावमुद्रा बनाती हैं कि सभागार में बैठा कला समाज भौंचक देखता रहता है।
यह जिक्र उस कलाकार का है जिसका नाम धनलक्ष्मी रखा गया था। 1920 की दीपावली की पूर्व संध्या पर जन्म लेने के कारण भी संभव है कि यह नाम रखा गया हो। बाद में जब मंच पर इस नन्हीं कलाकार ने अपने हुनर का मुजाहिरा किया तो 'सितारा" नाम मुफीद समझा गया। यही सितारा देवी 21 अगस्त को भोपाल में थी। मुझे कुछ पल उनके संग रहने और उनके आभा मंडल को जानने का मौका मिला। मैंने पाया कि 90 वर्ष की उम्र में उनकी देह थकी है लेकिन नृत्य के प्रति आग्रह और उत्साह जरा कम नहीं हुआ और न ही उनके स्वाभिमान की ठसक कम हुई है। मकबूल नृत्यांगना सितारा देवी से बात करते समय मानो एक स्वर्णिम दौर जीवंत हो उठता है। वे हर व्यक्ति से आत्मीय से बात करती हैं। उनकी इस भोपाल यात्रा मैं भी उन्हें गुनगुनाते, नृत्य की भाव मुद्रा बनाते देख लोगों को 16 साल पहले की वह शाम याद आ गई जब भारत भवन में उन्हें कालिदास सम्मान प्रदान किया गया था। तब 77 वर्षीय सितारा देवी ने तुलसीदासजी की विनय पत्रिका की ख्यात पंक्तियों 'ठुमकत चलत रामचन्द्र बाजत पैजनियाँ" पर चमत्कृत कर देने वाली प्रस्तुति दी थी। उन्हें 1975 में पद्मश्री दिया गया लेकिन बाद में पद्मभूषण लेने से इंकार कर दिया। जब सम्मान की बात चली तो उन्होंने कहा कि भारत रत्न से कम कोई सम्मान मंजूर नहीं है। उन्होंने कहा कि सरकार मेरेे योगदान को नहीं जानती। ऐसे सम्मान का क्या मतलब। भोपाल में मधुवन द्वारा दिए गए सम्मान पर उन्होंने कहा कि यह सुरेश तांतेड़ जैसे साधक के श्रम की संस्था है। ऐसी संस्थाओं से मिला सम्मान स्वीकार हैं क्योंकि यह प्रशंसकों के ोह का प्रतीक है। उन्होंने कहा कि नए नर्तकों में लगन और साधना की कमी दिखलाई देती है। वो दौर और था जब बरसों ने अभ्यास के बाद भी मंच नहीं मिलता था। अब तो गुरू फटकार दे तो शिष्य अगले दिन आना बंद कर देते हैं। कला के लिए यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है।
उम्र का इजहार आम तौर पर महिलाओं की कमजोरी मानी जाती है। इसलिए भरसक प्रयास किया जाता है कि इसे छुपाया जा सके लेकिन 90 वर्षींय महिला मंच से घोषित उम्र की सत्यता जाँचने का प्रयास करें तो इसे क्या कहेंगे? जी हाँ, रवीन्द्र भवन में जब उनके परिचय के साथ उम्र को उल्लेख किया गया तो उन्होंने उद्घोषक को पास बुला कर स्पष्ट जाना कि क्या उम्र बताई गई है। यह उनके परफेक्शन का एक नमूना है। सोचिए जब वे मंच पर होती होंगी तब नृत्य के साथ कितनी सम्पूर्णता रखती होंगी।
इसीलिए वे सितारा हैं।
Friday, August 13, 2010
इन पर कर सकते हैं भरोसा
पिछले साल गुना जिले के 20 गाँवों में एक दस्तक हुई थी। इसने ग्रामीणों को स्वच्छता का पाठ पढ़ाया था। इस साल से प्रदेश के 200 गाँवों में स्काउट और गाइड जाकर कहेंगे-'साफ हाथों में दम है।" सफाई का महत्व बताने और प्रेरित करने के लिए ये नाटक, गीत, सभा और हठ तक का सहारा लेंगे। ये गाँव का नक्शा बनाकर बताएँगे कि गंदगी फैलने के क्या नुकसान हैं और इस समस्या से कैसे निपटा जा सकता है।
गुना के रेडक्रास भवन में जारी स्काउट-गाइड शिविर में स्कूली विद्यार्थी सेवा का पाठ नहीं पढ़ रहे बल्कि बदलाव की भूमिका तैयार कर रहे हैं। इन्हीं की तरह प्रशिक्षण लेकर निकले विद्यार्थियों ने साबित कर दिया है कि बदलाव की चाबी युवाओं के हाथों में हैं। यहाँ लगाए गए शिविरों में स्काउट-गाइड ने जीवन शिक्षा से जीवन रक्षा के सूत्र सीखे हैं और गाँवों में जाकर लोगों को सिखाया है कि भोजन से पहले और शौच के बाद साबुन से हाथ धोएँगे। खुले में शौच की प्रवृत्ति छोड़ेंगे। इन बच्चों के पास सफलता की कहानियाँ भी है और चुनौतियों से निपटने की तैयारी भी। आरोन गाँव के नरेश सेन और आयुष जैन ने अपने पूरे कस्बे का नक्शा बना लिया है। वे आरोन में घर-घर जाकर दस्तक देंगे और लोगों को बताएँगे कि डायरिया से बच्चों की मौत और बार-बार बीमार होने की बड़ी वजह गंदगी है। वे इस तैयारी में हैं कि सीएमओ को विकल्प बताएँ और समाधान न होने पर दबाव बनाएँ।
स्कूल में पानी और साबुन जुटाया:
शिविर संचालक रोवर सुखदेव सिंह चौहान बताते हैं कि स्काउट-गाइड शिविर से स्वच्छता, व्यक्तिगत सफाई के पाठ सीख कर जाता है और पहले अपने स्कूल के साथियों को तैयार करता है ताकि उनकी बात घर-घर तक पहुँचे। इसका परिणाम यह हुआ कि बच्चों की जिद के आगे बुजुर्गों को अपनी आदतें बदलना पड़ीं। जीवन शिक्षा से 'जीवन रक्षा अभियान" के 'जीवन मित्र" बने विद्यार्थिंयों ने हर समस्या का समाधान खोजा है। मसलन, मध्याह्न भोजन के पहले हाथ धोना जरूरी है लेकिन स्कूल साबुन नहीं जुटा सकता तो विद्यार्थी खुद घर से साबुन लेकर आए। जिन स्कूलों में पानी की व्यवस्था नहीं थी, वहाँ बच्चे अपने साथ पानी की बोतल भी लाए।
छात्रवृत्ति से बनाएगा शौचालय:
इन जीवन मित्रों के साथ बैठो तो सफलता की कई कहानियाँ सुनाई पड़ती है। मसलन, पिछले शिविर में शामिल हुआ कक्षा सातवीं का छात्र सुनील कुमार इस कदर प्रभावित हुआ कि उसने अपने घर में अपनी छात्रवृत्ति के पैसे से शौचालय बनवाने का संकल्प ले लिया। वरिष्ठ शिक्षिका प्रभा भावे बताती हैं कि बच्चे बड़ा बदलाव लाने में समर्थ हुए हैं। वे केवल बड़ों को कोरा पाठ नहीं पढ़ाते बल्कि पहले समाधान देते हैं, इसलिए इनकी सुनी जाती है।
10 जिलों में होगा विस्तार :
गुना में मिली इस सफलता को देखते हुए इस सत्र से प्रदेश के 10 जिलों के 20 स्कूलों के स्काउट-गाइड को जीवन मित्र बनाया जाएगा। ये गाँवों में घर-घर जाकर बदलाव की दस्तक देंगे।
Friday, August 6, 2010
हिन्दी के मास्साब नहीं जानते अंबर का मतलब
* बच्चों के साथ शिक्षक भी फेल * ऐसा कैसा 'स्कूल चले हम अभियान"
मध्यप्रदेश सरकार कह रही है कि सभी बच्चे स्कूल आए लेकिन जो बच्चे स्कूल आ रहे है उनकी हालत अनपढ़ बच्चों जैसी ही है। विभिन्न संगठन और रिपोर्ट जिस बात को बार-बार उठाते हैं, पढ़ाई की वही पोल भोपाल में जिला शिक्षा अधिकारी के निरीक्षण के दौरान फिर खुल गई। अधिकारी ने जब छठी कक्षा के बच्चे अंबर का अर्थ पूछा तो वे नहीं बता पाए। हद तो तब हो गई जब हिन्दी के शिक्षक को भी इसका अर्थ नहीं बता सके।
सरकारी स्कूलों की यह सच्चाई देख जिला शिक्षा अधिकारी सीएम उपाध्याय भी हैरत में पड़ गए। श्री उपाध्याय ने हाल ही में बैरागढ़ क्षेत्र के शासकीय स्कूलों का निरीक्षण किया। वे जब ग्राम बैरागढ़ कलां के स्कूल में पहुंचे तो वहां शिक्षक किताबें लेकर बच्चों को पढ़ा रहे थे। एक यूडीटी शिक्षक करन सिंह मेहरा 6वीं की कक्षा में हिन्दी पढ़ा रहे थे। डीईओ ने जब कक्षा में जाकर बच्चों से हिन्दी के कुछ शब्दों जैसे अंबर, देवेन्द्र आदि अर्थ पूछा तो कोई भी बच्चा नहीं बता पाया। इसके बाद डीईओ ने शिक्षक से इन शब्दों का अर्थ पूछा तो वे भी बगलें झांकते नजर आए।
इसके बाद डीईओ छठी कक्षा के दूसरे वर्ग में पहुंचे वहां शिक्षक अर्जुन सिंह बघेल बच्चों को इतिहास पढ़ा रहे थे। जब डीईओ ने बच्चों से पूछा कि चंद्रगुप्त मौर्य कौन थे तो कोई भी बच्चा जवाब नहीं दे पाया। बाद में शिक्षक ने यह तो बता दिया कि चंद्रगुप्त मौर्य कौन थे लेकिन वे उनका कालक्रम नहीं बता पाए।
पांचवीं के बच्चे नहीं पढ़ पाए हिन्दी
जिला शिक्षा अधिकारी ने जसलोक प्राथमिक स्कूल का भी निरीक्षण किया। वहां वे पांचवीं की कक्षा में पहुंचे। उस समय स्कूल शिक्षिका कृष्णा देवी किताब लेकर बच्चों को हिन्दी पढ़ाती मिली। श्री उपाध्याय ने उनसे किताब लेकर बच्चों को पढ़ने को दी। जिला शिक्षा अधिकारी श्री उपाध्याय उस समय चौंक गए जब कोई भी बच्चा किताब में लिखा एक पैरा भी ठीक से नहीं पढ़ पाया।
हमारी शिक्षा प्रणाली की असलीयत दिखाने के लिए इतना ही काफी है।
मध्यप्रदेश सरकार कह रही है कि सभी बच्चे स्कूल आए लेकिन जो बच्चे स्कूल आ रहे है उनकी हालत अनपढ़ बच्चों जैसी ही है। विभिन्न संगठन और रिपोर्ट जिस बात को बार-बार उठाते हैं, पढ़ाई की वही पोल भोपाल में जिला शिक्षा अधिकारी के निरीक्षण के दौरान फिर खुल गई। अधिकारी ने जब छठी कक्षा के बच्चे अंबर का अर्थ पूछा तो वे नहीं बता पाए। हद तो तब हो गई जब हिन्दी के शिक्षक को भी इसका अर्थ नहीं बता सके।
सरकारी स्कूलों की यह सच्चाई देख जिला शिक्षा अधिकारी सीएम उपाध्याय भी हैरत में पड़ गए। श्री उपाध्याय ने हाल ही में बैरागढ़ क्षेत्र के शासकीय स्कूलों का निरीक्षण किया। वे जब ग्राम बैरागढ़ कलां के स्कूल में पहुंचे तो वहां शिक्षक किताबें लेकर बच्चों को पढ़ा रहे थे। एक यूडीटी शिक्षक करन सिंह मेहरा 6वीं की कक्षा में हिन्दी पढ़ा रहे थे। डीईओ ने जब कक्षा में जाकर बच्चों से हिन्दी के कुछ शब्दों जैसे अंबर, देवेन्द्र आदि अर्थ पूछा तो कोई भी बच्चा नहीं बता पाया। इसके बाद डीईओ ने शिक्षक से इन शब्दों का अर्थ पूछा तो वे भी बगलें झांकते नजर आए।
इसके बाद डीईओ छठी कक्षा के दूसरे वर्ग में पहुंचे वहां शिक्षक अर्जुन सिंह बघेल बच्चों को इतिहास पढ़ा रहे थे। जब डीईओ ने बच्चों से पूछा कि चंद्रगुप्त मौर्य कौन थे तो कोई भी बच्चा जवाब नहीं दे पाया। बाद में शिक्षक ने यह तो बता दिया कि चंद्रगुप्त मौर्य कौन थे लेकिन वे उनका कालक्रम नहीं बता पाए।
पांचवीं के बच्चे नहीं पढ़ पाए हिन्दी
जिला शिक्षा अधिकारी ने जसलोक प्राथमिक स्कूल का भी निरीक्षण किया। वहां वे पांचवीं की कक्षा में पहुंचे। उस समय स्कूल शिक्षिका कृष्णा देवी किताब लेकर बच्चों को हिन्दी पढ़ाती मिली। श्री उपाध्याय ने उनसे किताब लेकर बच्चों को पढ़ने को दी। जिला शिक्षा अधिकारी श्री उपाध्याय उस समय चौंक गए जब कोई भी बच्चा किताब में लिखा एक पैरा भी ठीक से नहीं पढ़ पाया।
हमारी शिक्षा प्रणाली की असलीयत दिखाने के लिए इतना ही काफी है।
Friday, July 30, 2010
सड़ा देंगे, पर खाने नहीं देंगे
2.50 रूपए बचाने 14.50 रु. का घाटा मंजूर
गोदामों में सड़ रहा गेहूँ, पर सरकारें गरीबों को देने तैयार नहीं
केन्द्र और राज्य सरकार बचाना चाहती है सबसिडी का खर्च
यह वाकई शर्मनाक स्थिति है। सरकारी गोदामों में गेहूँ सड़ रहा है, लेकिन गरीब भूखों मर रहे हैं। लोगों की मौत से ज्यादा केन्द्र व राज्य सरकारों के लिए सबसिडी बचाना महत्वपूर्ण है। मप्र सरकार बीपीएल गेहूँ एपीएल के भाव इसलिए नहीं खरीदना नही चाहती क्योंकि इसे गरीबों को बाँटने में उसे ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ेंगे। केन्द्र सरकार खराब होता सस्ता गेहूँ एपीएल के भाव इसलिए नहीं बेचना चाहती, क्योंकि इसके लिए उसे ज्यादा सबसिडी देनी पड़ेगी। यानी कि एपीएल गेहूँ भंडारण का ढाई रुपया बचाने के लिए उसे 14.50 रु. का गेहूँ बर्बाद होना मंजूर है।
उल्लेखनीय है कि ग्लोबल हंगरी इंडेक्स (वैश्विक भूख सूचकांक) में भारत का दुनिया के 88 देशों में 66 वाँ स्थान है। केवल मप्र में ही 67 लाख बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) परिवार हैं, लेकिन केन्द्र केवल 41 लाख 15 हजार परिवारों के हिसाब से ही गेहूँ का आवंटन करता है। इस कारण बीपीएल परिवारों को प्रतिमाह 35 की जगह 25 किलो गेहूँ ही मिलता है। बाकी गरीब सस्ते अनाज के लिए तरस जाते हैं। यह स्थिति तब है, जब भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की गेहूँ खरीदी 60 मिलियन मीट्रिक टन को पार कर चुकी है। नियमानुसार बफर जोन की मात्रा करीब 21 मिलियन टन है, लेकिन भारतीय खाद्य निगम ने इससे दो गुना बफर स्टॉक कर रखा है।
3 लाख टन गेहूँ खुले में
अकेले मप्र में ही इस साल 83 लाख टन गेहूँ की रिकॉर्ड पैदावार और 35 लाख टन की खरीद हुई है। जबकि राज्य में भंडारण की व्यवस्था केवल 30 लाख मीट्रिक टन की ही है। तमाम इंतजाम के बाद भी 3 लाख मीट्रिक टन गेहूँ अभी भी खुले आसमान के तले पॉलिथिन में पड़ा है। विदिशा में 45 हजार टन, सीहोर में 20 हजार टन, हरदा और होशंगाबाद में 10 हजार टन गेहूँ खराब होने की स्थिति में है। अगर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार प्रति परिवार 35 किलो गेहूँ भी बाँट दिया जाए तो खुले में पड़ा 3 लाख टन गेहूँ 7.15 लाख परिवारों का एक साल का राशन है। राज्य सरकार बीपीएल परिवारों को 25 किलोग्राम गेहूँ या चावल प्रदान कर रही है।
मुनाफाखोरी कर रही सरकार
मप्र सरकार ने तय दर 11 रूपए के अलावा किसानों को एक रुपया बोनस भी दिया है। इस हिसाब से गेहूँ खरीदी दर 12 रु. प्रति किलो हुई। इसके भंडारण पर 2.50 रूपए खर्च किए गए। इस तरह एक किलो गेहूँ 14.50 रुपया का पड़ा। केन्द्र सरकार राज्यों को बीपीएल गेहूँ 5 रूपए किलो की दर पर देती है। यदि वह खराब हो रहे गेहूँ को 7.50 रु. प्रति किलो के भाव से दे तो भी राज्य सरकारें उसे नहीं खरीदती क्योंकि इसके लिए उन्हें 5 के बजाए 7.50 रुपए प्रति किलो खर्च करने पड़ेंगे। मप्र सरकार तो अन्नापूर्णा योजना के तहत बीपीएल परिवारों को 3 रूपए किलो के भाव से गेहूँ देती है। यानी प्रति दो रु. प्रति किलो सबसिडी देती है। मप्र सरकार को तो एक किलो गेहूँ पर 4.50 (2+ 2.50) रूपए ज्यादा खर्च करना पड़ेंगे। इसलिए उसकी भी एपीएल गेहूँ खरीदने में रुचि नहीं है। दूसरी तरफ केन्द्र सरकार को एपीएल की दर पर गेहूँ देने पर भी घाटा उठाना पड़ता, इसलिए वह भी खामोशी से 14.50 रूपए प्रति किलो कीमत वाला गेहूँ खराब होते देख रही है।
सड़ना मंजूर पर पेट भरना नहीं
केन्द्र सरकार को पता था कि गेहूँ सड़ने वाला है लेकिन खाद्य मंत्रालय की सलाह के बाद भी मंत्रियों के समूह ने सब्सिडी बचाने के लिए प्रस्ताव को नकार दिया। प्राप्त जानकारी के अनुसार केन्द्रीय खाद्य विभाग और एफसीआई ने गेहूँ खराब होने के आशंका को देखते हुए मार्च 2010 में प्रस्ताव दिया था कि 50 लाख टन गेहूँ एपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर) के दाम पर राज्यों को दे देना चाहिए। लेकिन मंत्रियों के समूह ने इस प्रस्ताव को यह कहते हुए नकार दिया कि ऐसा करने पर 5000 करोड़ की अतिरिक्त सबसिडी देना होगी।
केन्द्र से अनाज आवंटन- 41 लाख 15 हजार परिवारों के लिए
बीपीएल गेहूँ की कीमत- 5 रु.किलो (प्रदेश सरकार 3 रूपए किलो में दे रही हैं)
एपीएल की दर - 7.50 रूपए
खराब हो रहे गेहूँ की कीमत- 14.50 रू.(12 रूपए में खरीदी + 2.50 रू. में भंडारण)
गोदामों में सड़ रहा गेहूँ, पर सरकारें गरीबों को देने तैयार नहीं
केन्द्र और राज्य सरकार बचाना चाहती है सबसिडी का खर्च
यह वाकई शर्मनाक स्थिति है। सरकारी गोदामों में गेहूँ सड़ रहा है, लेकिन गरीब भूखों मर रहे हैं। लोगों की मौत से ज्यादा केन्द्र व राज्य सरकारों के लिए सबसिडी बचाना महत्वपूर्ण है। मप्र सरकार बीपीएल गेहूँ एपीएल के भाव इसलिए नहीं खरीदना नही चाहती क्योंकि इसे गरीबों को बाँटने में उसे ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ेंगे। केन्द्र सरकार खराब होता सस्ता गेहूँ एपीएल के भाव इसलिए नहीं बेचना चाहती, क्योंकि इसके लिए उसे ज्यादा सबसिडी देनी पड़ेगी। यानी कि एपीएल गेहूँ भंडारण का ढाई रुपया बचाने के लिए उसे 14.50 रु. का गेहूँ बर्बाद होना मंजूर है।
उल्लेखनीय है कि ग्लोबल हंगरी इंडेक्स (वैश्विक भूख सूचकांक) में भारत का दुनिया के 88 देशों में 66 वाँ स्थान है। केवल मप्र में ही 67 लाख बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) परिवार हैं, लेकिन केन्द्र केवल 41 लाख 15 हजार परिवारों के हिसाब से ही गेहूँ का आवंटन करता है। इस कारण बीपीएल परिवारों को प्रतिमाह 35 की जगह 25 किलो गेहूँ ही मिलता है। बाकी गरीब सस्ते अनाज के लिए तरस जाते हैं। यह स्थिति तब है, जब भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की गेहूँ खरीदी 60 मिलियन मीट्रिक टन को पार कर चुकी है। नियमानुसार बफर जोन की मात्रा करीब 21 मिलियन टन है, लेकिन भारतीय खाद्य निगम ने इससे दो गुना बफर स्टॉक कर रखा है।
3 लाख टन गेहूँ खुले में
अकेले मप्र में ही इस साल 83 लाख टन गेहूँ की रिकॉर्ड पैदावार और 35 लाख टन की खरीद हुई है। जबकि राज्य में भंडारण की व्यवस्था केवल 30 लाख मीट्रिक टन की ही है। तमाम इंतजाम के बाद भी 3 लाख मीट्रिक टन गेहूँ अभी भी खुले आसमान के तले पॉलिथिन में पड़ा है। विदिशा में 45 हजार टन, सीहोर में 20 हजार टन, हरदा और होशंगाबाद में 10 हजार टन गेहूँ खराब होने की स्थिति में है। अगर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार प्रति परिवार 35 किलो गेहूँ भी बाँट दिया जाए तो खुले में पड़ा 3 लाख टन गेहूँ 7.15 लाख परिवारों का एक साल का राशन है। राज्य सरकार बीपीएल परिवारों को 25 किलोग्राम गेहूँ या चावल प्रदान कर रही है।
मुनाफाखोरी कर रही सरकार
मप्र सरकार ने तय दर 11 रूपए के अलावा किसानों को एक रुपया बोनस भी दिया है। इस हिसाब से गेहूँ खरीदी दर 12 रु. प्रति किलो हुई। इसके भंडारण पर 2.50 रूपए खर्च किए गए। इस तरह एक किलो गेहूँ 14.50 रुपया का पड़ा। केन्द्र सरकार राज्यों को बीपीएल गेहूँ 5 रूपए किलो की दर पर देती है। यदि वह खराब हो रहे गेहूँ को 7.50 रु. प्रति किलो के भाव से दे तो भी राज्य सरकारें उसे नहीं खरीदती क्योंकि इसके लिए उन्हें 5 के बजाए 7.50 रुपए प्रति किलो खर्च करने पड़ेंगे। मप्र सरकार तो अन्नापूर्णा योजना के तहत बीपीएल परिवारों को 3 रूपए किलो के भाव से गेहूँ देती है। यानी प्रति दो रु. प्रति किलो सबसिडी देती है। मप्र सरकार को तो एक किलो गेहूँ पर 4.50 (2+ 2.50) रूपए ज्यादा खर्च करना पड़ेंगे। इसलिए उसकी भी एपीएल गेहूँ खरीदने में रुचि नहीं है। दूसरी तरफ केन्द्र सरकार को एपीएल की दर पर गेहूँ देने पर भी घाटा उठाना पड़ता, इसलिए वह भी खामोशी से 14.50 रूपए प्रति किलो कीमत वाला गेहूँ खराब होते देख रही है।
सड़ना मंजूर पर पेट भरना नहीं
केन्द्र सरकार को पता था कि गेहूँ सड़ने वाला है लेकिन खाद्य मंत्रालय की सलाह के बाद भी मंत्रियों के समूह ने सब्सिडी बचाने के लिए प्रस्ताव को नकार दिया। प्राप्त जानकारी के अनुसार केन्द्रीय खाद्य विभाग और एफसीआई ने गेहूँ खराब होने के आशंका को देखते हुए मार्च 2010 में प्रस्ताव दिया था कि 50 लाख टन गेहूँ एपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर) के दाम पर राज्यों को दे देना चाहिए। लेकिन मंत्रियों के समूह ने इस प्रस्ताव को यह कहते हुए नकार दिया कि ऐसा करने पर 5000 करोड़ की अतिरिक्त सबसिडी देना होगी।
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' मौजूदा मँहगाई और भूख की स्थिति सूखे या खाद्यान्ना संकट के कारण नहीं, सरकार की नीतियों और राजनीतिक व्यवस्था के कारण है। हम न्यायालय के आदेश के बाद भी गरीबों को प्रतिमाह 35 किलो अनाज नहीं दे पा रहे है। यह कोर्ट की अवमानना के साथ गरीबों को भूखा रखने का षड़यंत्र भी है। आखिर सरकार गोदामों में रखा गेहूँ लोगों में क्यों नहीं बाँट देती।"
सचिन जैन, सर्वोच्च न्यायालय के राज्य सलाहकार
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यह है हकीकत
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प्रदेश में बीपीएल परिवार - 67 लाख ' मौजूदा मँहगाई और भूख की स्थिति सूखे या खाद्यान्ना संकट के कारण नहीं, सरकार की नीतियों और राजनीतिक व्यवस्था के कारण है। हम न्यायालय के आदेश के बाद भी गरीबों को प्रतिमाह 35 किलो अनाज नहीं दे पा रहे है। यह कोर्ट की अवमानना के साथ गरीबों को भूखा रखने का षड़यंत्र भी है। आखिर सरकार गोदामों में रखा गेहूँ लोगों में क्यों नहीं बाँट देती।"
सचिन जैन, सर्वोच्च न्यायालय के राज्य सलाहकार
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यह है हकीकत
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केन्द्र से अनाज आवंटन- 41 लाख 15 हजार परिवारों के लिए
बीपीएल गेहूँ की कीमत- 5 रु.किलो (प्रदेश सरकार 3 रूपए किलो में दे रही हैं)
एपीएल की दर - 7.50 रूपए
खराब हो रहे गेहूँ की कीमत- 14.50 रू.(12 रूपए में खरीदी + 2.50 रू. में भंडारण)
Friday, July 23, 2010
बलि ले रहा है सूचना का अधिकार
सात माह में छह कार्यकर्ताओं की हत्या, छह पर हमले
महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 3 की ली जान
सूचना का अधिकार (आरटीआई) भले ही भ्रष्टाचार के खिलाफ ब्रह्मास्त्र कहा जाता हो, लेकिन यह आरटीआई कार्यकर्ताओं की बलि लेने लगा है। ये कार्यकर्ता भ्रष्टाचारियों और माफिया के निशाने पर हैं। यही वजह है कि पिछले सात माह में देश में 6 आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई और इतने ही स्थानों पर जानलेवा हमले हुए। मारे गए कार्यकर्ताओं में 3 महाराष्ट्र, 2 गुजरात और 1 बिहार से हैं।
देश में 2005 में लागू हुआ सूचना का अधिकार से भ्रष्टाचारी बौखला गए हैं। लिहाजा वे पोल खुलने की डर से अब सामाजिक कार्यकर्ताओं की जान लेने से भी नहीं चूक रहे हैं। पिछले मंगलवार को अहमदाबाद उच्च न्यायालय के बाहर हुई सामाजिक कार्यकर्ता अमित जेठवा की हत्या इस बात का ताजा सबूत है। इस अधिकार का इस्तेमाल करने के कारण इस साल श्री जेठवा सहित छह कार्यकर्ता जान गँवा बैठे हैं। ये सभी कार्यकर्ता भू माफिया के साथ शासन-प्रशासन के भ्रष्टाचारियों की पोल खोलने में लगे हुए थे। गौरतलब है कि श्री जेठवा ने जूनागढ़ के गिर के जंगल में अवैध खनन के खिलाफ आवाज उठाई थी। सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारियों के आधार पर ही उन्होंने वन विभाग के खिलाफ गुजरात उच्च न्यायालय में अनेक याचिकाएँ लगाई थी। इससे पहले 13 जनवरी को महाराष्ट्र में जमीन घोटाले उजागर करने पर 39 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता सतीश शेट्टी की हत्या कर दी गई थी। वे तेलगाँव, लोनावला और पिम्परी-चीन्चवाड़ में जमीन घोटालों को सामने लाए थे। 13 जनवरी को सुबह जब वे सैर पर गए थे तो घर से करीब 7 किमी दूर उनपर तलवार सहित धारदार हथियारों से हमला हुआ। कई जमीन घोटालों को उजागर करने वाले शेट्टी ने अपने लिए सुरक्षा की माँग भी की थी लेकिन इसके पहले ही उनकी जान ले ली गई।
अहमदाबाद के विश्राम लक्ष्मण डोडिया ने टोरेंट पॉवर से दिए गए अवैध कनेक्शन की जानकारी देने के लिए आवेदन किया था। उन्हें कोई सूचना नहीं मिली लेकिन 11 फरवरी को कम्पनी अधिकारियों से मुलाकात के कुछ देर बाद वे मृत पाए गए। 14 फरवरी को बिहार के प्रसिद्ध कार्यकर्ता शशिधर मिश्रा की घर के बाहर अज्ञात बदमाशों ने गोली मार कर हत्या कर दी। वह स्थानीय लोक कल्याणकारी योजनाओं में गड़बड़ियों को उजागर कर रहे थे। अप्रैल में महाराष्ट्र के ग्रामीण स्कूलों की गड़बड़ियों की पोल खोलने वाले कार्यकर्ता विट्ठल गीते और उनके साथी ब्रजमोहन मिश्रा पर एक स्कूल संचालक के समर्थकों ने हमला कर दिया। इस हमले में विट्ठल की मौत हो गई। पुलिस के अनुसार स्कूल की अनियमितताओं की खबर अखबार में छपने के बाद दोनों के बीच विवाद बढ़ गया था। 22 मई को कोल्हापुर जिले के सामाजिक कार्यकर्ता दत्ता पाटिल का शव मिला। उनकी हत्या का एकमात्र कारण भ्रष्टाचार का खुलासा बताया गया।
महाराष्ट्र में खास आदेश
महाराष्ट्र सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करने वाले कार्यकर्ताओं पर ज्यादा हमले हुए हैं। यहाँ कार्यकर्ताओं की शिकायतें थी कि पुलिस सुनवाई नहीं करती है। इन शिकायतों और बढ़ते हमलों को देखते हुए पुलिस महानिदेशक ने विशेष आदेश जारी कर निर्देश दिए थे कि ऐसे हमलों की सुनवाई हो और शिकायत दर्ज की जाए।
मप्र में चिंता
सामाजिक कार्यकर्ताओं पर बढ़ते हमलों के कारण प्रदेश के कार्यकतों भी चिंता में है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के सदस्य अजय दुबे ने मप्र डीजीपी एसके राउत को ज्ञापन देकर आग्रह किया है कि प्रदेश में भी सूचना का अधिकार इस्तेमाल करने वाले कार्यकर्ताओं की सुरक्षा की योजना तैयार की जाए। अन्य कार्यकर्ता प्रशांत दुबे और रोली शिवहरे कहते हैं कि कार्यकर्ता इन हमलों से डरने वाले नहीं है। वे यूँ ही अपना काम जारी रखेंगे।
इन पर हुए हमले
-1 अप्रैल 2010 को महाराष्ट्र के जलगाँव जिले की पचोरा तालुका एडवोकेट अभय पाटिल पर जानलेवा हमला।
-लोक निर्माण विभाग के भ्रष्टाचार की जानकारी सूचना के अधिकार के तहत माँगने पर 14 जुलाई को पीडब्ल्यूडी कार्यालय के बाहर ही आरटीआई कार्यकर्ता अशोक कुमार शिंदे की पिटाई।
-16 मार्च को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में सुमेरा अब्दुलानी, नसीर जलाल व पत्रकारों के दल पर हमला, गाड़ी में तोड़फोड़।
- जम्मू कश्मीर सूचना का अधिकार आंदोलन के प्रमुख डॉ मुजफ्फर बट पर 27 फरवरी को बरनवार में सूचना का अधिकार कानून पर जागरूकता कार्यशाला के दौरान हमला।
- 12 जनवरी को दिल्ली में कार्यकर्ता अजय कुमार और साथियों पर राड, लाठी से हमला कर दिया।
- 8 जनवरी को मुबंई के चर्चगेट पर ओवल मैदान के सामने स्वस्तिक बिल्डिंग निवासी 65 वर्षीय बुजुर्ग कार्यकर्ता नयना कथपालिया को डराने के लिए सुबह 6.45 बजे घर के बाहर फायरिंग
महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 3 की ली जान
सूचना का अधिकार (आरटीआई) भले ही भ्रष्टाचार के खिलाफ ब्रह्मास्त्र कहा जाता हो, लेकिन यह आरटीआई कार्यकर्ताओं की बलि लेने लगा है। ये कार्यकर्ता भ्रष्टाचारियों और माफिया के निशाने पर हैं। यही वजह है कि पिछले सात माह में देश में 6 आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई और इतने ही स्थानों पर जानलेवा हमले हुए। मारे गए कार्यकर्ताओं में 3 महाराष्ट्र, 2 गुजरात और 1 बिहार से हैं।
देश में 2005 में लागू हुआ सूचना का अधिकार से भ्रष्टाचारी बौखला गए हैं। लिहाजा वे पोल खुलने की डर से अब सामाजिक कार्यकर्ताओं की जान लेने से भी नहीं चूक रहे हैं। पिछले मंगलवार को अहमदाबाद उच्च न्यायालय के बाहर हुई सामाजिक कार्यकर्ता अमित जेठवा की हत्या इस बात का ताजा सबूत है। इस अधिकार का इस्तेमाल करने के कारण इस साल श्री जेठवा सहित छह कार्यकर्ता जान गँवा बैठे हैं। ये सभी कार्यकर्ता भू माफिया के साथ शासन-प्रशासन के भ्रष्टाचारियों की पोल खोलने में लगे हुए थे। गौरतलब है कि श्री जेठवा ने जूनागढ़ के गिर के जंगल में अवैध खनन के खिलाफ आवाज उठाई थी। सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारियों के आधार पर ही उन्होंने वन विभाग के खिलाफ गुजरात उच्च न्यायालय में अनेक याचिकाएँ लगाई थी। इससे पहले 13 जनवरी को महाराष्ट्र में जमीन घोटाले उजागर करने पर 39 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता सतीश शेट्टी की हत्या कर दी गई थी। वे तेलगाँव, लोनावला और पिम्परी-चीन्चवाड़ में जमीन घोटालों को सामने लाए थे। 13 जनवरी को सुबह जब वे सैर पर गए थे तो घर से करीब 7 किमी दूर उनपर तलवार सहित धारदार हथियारों से हमला हुआ। कई जमीन घोटालों को उजागर करने वाले शेट्टी ने अपने लिए सुरक्षा की माँग भी की थी लेकिन इसके पहले ही उनकी जान ले ली गई।
अहमदाबाद के विश्राम लक्ष्मण डोडिया ने टोरेंट पॉवर से दिए गए अवैध कनेक्शन की जानकारी देने के लिए आवेदन किया था। उन्हें कोई सूचना नहीं मिली लेकिन 11 फरवरी को कम्पनी अधिकारियों से मुलाकात के कुछ देर बाद वे मृत पाए गए। 14 फरवरी को बिहार के प्रसिद्ध कार्यकर्ता शशिधर मिश्रा की घर के बाहर अज्ञात बदमाशों ने गोली मार कर हत्या कर दी। वह स्थानीय लोक कल्याणकारी योजनाओं में गड़बड़ियों को उजागर कर रहे थे। अप्रैल में महाराष्ट्र के ग्रामीण स्कूलों की गड़बड़ियों की पोल खोलने वाले कार्यकर्ता विट्ठल गीते और उनके साथी ब्रजमोहन मिश्रा पर एक स्कूल संचालक के समर्थकों ने हमला कर दिया। इस हमले में विट्ठल की मौत हो गई। पुलिस के अनुसार स्कूल की अनियमितताओं की खबर अखबार में छपने के बाद दोनों के बीच विवाद बढ़ गया था। 22 मई को कोल्हापुर जिले के सामाजिक कार्यकर्ता दत्ता पाटिल का शव मिला। उनकी हत्या का एकमात्र कारण भ्रष्टाचार का खुलासा बताया गया।
महाराष्ट्र में खास आदेश
महाराष्ट्र सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करने वाले कार्यकर्ताओं पर ज्यादा हमले हुए हैं। यहाँ कार्यकर्ताओं की शिकायतें थी कि पुलिस सुनवाई नहीं करती है। इन शिकायतों और बढ़ते हमलों को देखते हुए पुलिस महानिदेशक ने विशेष आदेश जारी कर निर्देश दिए थे कि ऐसे हमलों की सुनवाई हो और शिकायत दर्ज की जाए।
मप्र में चिंता
सामाजिक कार्यकर्ताओं पर बढ़ते हमलों के कारण प्रदेश के कार्यकतों भी चिंता में है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के सदस्य अजय दुबे ने मप्र डीजीपी एसके राउत को ज्ञापन देकर आग्रह किया है कि प्रदेश में भी सूचना का अधिकार इस्तेमाल करने वाले कार्यकर्ताओं की सुरक्षा की योजना तैयार की जाए। अन्य कार्यकर्ता प्रशांत दुबे और रोली शिवहरे कहते हैं कि कार्यकर्ता इन हमलों से डरने वाले नहीं है। वे यूँ ही अपना काम जारी रखेंगे।
इन पर हुए हमले
-1 अप्रैल 2010 को महाराष्ट्र के जलगाँव जिले की पचोरा तालुका एडवोकेट अभय पाटिल पर जानलेवा हमला।
-लोक निर्माण विभाग के भ्रष्टाचार की जानकारी सूचना के अधिकार के तहत माँगने पर 14 जुलाई को पीडब्ल्यूडी कार्यालय के बाहर ही आरटीआई कार्यकर्ता अशोक कुमार शिंदे की पिटाई।
-16 मार्च को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में सुमेरा अब्दुलानी, नसीर जलाल व पत्रकारों के दल पर हमला, गाड़ी में तोड़फोड़।
- जम्मू कश्मीर सूचना का अधिकार आंदोलन के प्रमुख डॉ मुजफ्फर बट पर 27 फरवरी को बरनवार में सूचना का अधिकार कानून पर जागरूकता कार्यशाला के दौरान हमला।
- 12 जनवरी को दिल्ली में कार्यकर्ता अजय कुमार और साथियों पर राड, लाठी से हमला कर दिया।
- 8 जनवरी को मुबंई के चर्चगेट पर ओवल मैदान के सामने स्वस्तिक बिल्डिंग निवासी 65 वर्षीय बुजुर्ग कार्यकर्ता नयना कथपालिया को डराने के लिए सुबह 6.45 बजे घर के बाहर फायरिंग
Tuesday, July 20, 2010
भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल में होगा ट्रस्टियों का मुफ्त इलाज
जाते-जाते खुद का भला कर गया ट्रस्ट
सीएस और पीएस के विरोध को किया दरकिनार
भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट जाते-जाते भी खुद का भला कर गया। अस्पताल में ट्रस्ट के सदस्यों का उपचार बिल्कुल निशुल्क होगा। इलाज का सारा खर्च गैस पीड़ितों के उपचार के मिली राशि से किया जाएगा। ट्रस्ट ने यह स्वात: सुखाय फैसला पिछले दिनों हुई बैठक में ले लिया। जबकि प्रदेश के मुख्य सचिव और प्रमुख सचिव ने इस प्रस्ताव को कड़ा विरोध करते हुए इसे फिजूलखर्ची करार दिया था।
'द भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल ट्रस्ट" ने यह फैसला मार्च में उस वक्त लिया था, जब गैस त्रासदी के दोषियों के मामले की सुनवाई अंतिम चरण में थी। भोपाल गैसकांड के आरोपियों पर से धारा 304 'ए" हटाने के लिए गैस पीड़ितों की नाराजगी झेल रहे सुप्रीम कोर्ट के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एएम अहमदी की अध्यक्षता में यह निर्णय लिया गया। हाँलाकि इस पद से इस्तीफे की उनकी पेशकश को लगभग नौ माह बीत चुके थे। ट्रस्ट की अंतिम बैठक नई दिल्ली में हुई थी। इस बैठक में यह प्रस्ताव रखा गया कि ट्रस्टियों को भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल में मुफ्त इलाज की सुविधा प्रदान की जाए। इस इलाज का सारा खर्च गैस पीड़ितों के इलाज के लिए मिली राशि से दिया जाएगा। बैठक में मुख्य सचिव अवनि वैश्य और प्रमुख सचिव स्वास्थ्य एसआर मोहंती शामिल नहीं हुए थे। जब बैठक का पत्र उनके पास अनुमोदन के लिए पहुँचा तो दोनों ने यह कहते हुए प्रस्ताव का विरोध किया कि यह गैस पीड़ितों के पैसों की बर्बादी है। ट्रस्ट सदस्य अपने इलाज का खर्च खुद उठाने में सक्षम हैं। इन आला अफसरों के विरोध के बावजूद यह प्रस्ताव बहुमत के आध्ाार पर पारित कर दिया गया। इस बारे में जब ट्रस्टी सुश्री के. अरोन्देकर से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वे इस बैठक में शामिल ही नहीं हुई थी, जबकि वर्किंग ट्रस्टी अधिवक्ता अजीज अहमद सिद्दीकी के नईदिल्ली में होने से उनसे सम्पर्क नहीं हो सका।
ट्रस्ट के फैसलों की समीक्षा हो
ट्रस्ट के इस फैसले से भी गैस पीड़ित संगठनों में नाराजी है। भोपाल ग्रुप फॉर इंफर्मेशन एंड एक्शन की रचना ढींगरा और गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति की साधना कर्णिक ने माँग की है कि नए निजाम में ट्रस्ट द्वारा लिए गए निर्णयों की पुर्नसमीक्षा होना चाहिए। उनका आरोप है कि पिछले कई दिनों से भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल में गैस पीड़ितों के इलाज में लापरवाही हो रही है। बाहरी मरीजों को तवज्जो दी जा रही है, क्योंकि उससे ट्रस्ट को पैसा मिलता है। जबकि इस अस्पताल का निर्माण केवल गैस पीडितों के इलाज के लिए ही कराया गया था।
दस साल पहले शुरु हुआ था अस्पताल
गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन ने लंदन में 20 मार्च 1992 को 'द भोपाल हॉस्पिटल ट्रस्ट" की स्थापना की। इस चैरिटेबल ट्रस्ट के एकमात्र ट्रस्टी सर इयान पर्सीवल थे। मप्र सरकार ने अस्पताल निर्माण के लिए ट्रस्ट को लगभग 80 एकड़ जमीन मुफ्त प्रदान की। सर पर्सीवल की मृत्यु के बाद 1998 में 'द भोपाल मेमोरियरल हॉस्पिटल ट्रस्ट" की स्थापना की गई। ट्रस्ट ने छह अस्पताल सहित कम से कम 32 स्वास्थ्य केंद्र स्थापित किए थे। इस अस्पताल का संचालन जुलाई 2000 से शुरू हो गया था।
कौन हैं ट्रस्टी
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एएम अहमदी ट्रस्ट के अध्यक्ष बनाए गए। पूर्व राज्यपाल मोहम्मद शफी कुरैशी को उपाध्यक्ष बनाया गया। ट्रस्ट में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा की पत्नी श्रीमती विमला शर्मा, लंदन के बैरिस्टर राबर्ट पर्सीवल, केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव, डीजी इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च, निदेशक पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च चंडीगढ़ प्रो. केके तलवार, मुख्य सचिव मप्र, आईडीबीआई के पूर्व अध्यक्ष एसएच खान शामिल किए गए। भोपाल के अधिवक्ता अजीज अहमद सिद्दीकी को वर्किंग ट्रस्टी बनाया गया। वर्किंग कमेटी में प्रमुख सचिव स्वास्थ्य मप्र , केन्द्रीय रसायन और पेट्रोकेमिकल्स विभाग के संयुक्त सचिव, डॉ संतोख सिंह पूर्व डीएमई मप्र, जीबी पंत अस्पताल नईदिल्ली के पूर्व निदेशक डॉ. एम खलीलुल्ला, भोपाल के चार्टर्ड अकाउंटेंट एसएल छाजेड़ और महिला चेतना मंच की उपाध्यक्ष सुश्री के. अरोन्देकर को शामिल किया गया।
सीएस और पीएस के विरोध को किया दरकिनार
भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट जाते-जाते भी खुद का भला कर गया। अस्पताल में ट्रस्ट के सदस्यों का उपचार बिल्कुल निशुल्क होगा। इलाज का सारा खर्च गैस पीड़ितों के उपचार के मिली राशि से किया जाएगा। ट्रस्ट ने यह स्वात: सुखाय फैसला पिछले दिनों हुई बैठक में ले लिया। जबकि प्रदेश के मुख्य सचिव और प्रमुख सचिव ने इस प्रस्ताव को कड़ा विरोध करते हुए इसे फिजूलखर्ची करार दिया था।
'द भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल ट्रस्ट" ने यह फैसला मार्च में उस वक्त लिया था, जब गैस त्रासदी के दोषियों के मामले की सुनवाई अंतिम चरण में थी। भोपाल गैसकांड के आरोपियों पर से धारा 304 'ए" हटाने के लिए गैस पीड़ितों की नाराजगी झेल रहे सुप्रीम कोर्ट के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एएम अहमदी की अध्यक्षता में यह निर्णय लिया गया। हाँलाकि इस पद से इस्तीफे की उनकी पेशकश को लगभग नौ माह बीत चुके थे। ट्रस्ट की अंतिम बैठक नई दिल्ली में हुई थी। इस बैठक में यह प्रस्ताव रखा गया कि ट्रस्टियों को भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल में मुफ्त इलाज की सुविधा प्रदान की जाए। इस इलाज का सारा खर्च गैस पीड़ितों के इलाज के लिए मिली राशि से दिया जाएगा। बैठक में मुख्य सचिव अवनि वैश्य और प्रमुख सचिव स्वास्थ्य एसआर मोहंती शामिल नहीं हुए थे। जब बैठक का पत्र उनके पास अनुमोदन के लिए पहुँचा तो दोनों ने यह कहते हुए प्रस्ताव का विरोध किया कि यह गैस पीड़ितों के पैसों की बर्बादी है। ट्रस्ट सदस्य अपने इलाज का खर्च खुद उठाने में सक्षम हैं। इन आला अफसरों के विरोध के बावजूद यह प्रस्ताव बहुमत के आध्ाार पर पारित कर दिया गया। इस बारे में जब ट्रस्टी सुश्री के. अरोन्देकर से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वे इस बैठक में शामिल ही नहीं हुई थी, जबकि वर्किंग ट्रस्टी अधिवक्ता अजीज अहमद सिद्दीकी के नईदिल्ली में होने से उनसे सम्पर्क नहीं हो सका।
ट्रस्ट के फैसलों की समीक्षा हो
ट्रस्ट के इस फैसले से भी गैस पीड़ित संगठनों में नाराजी है। भोपाल ग्रुप फॉर इंफर्मेशन एंड एक्शन की रचना ढींगरा और गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति की साधना कर्णिक ने माँग की है कि नए निजाम में ट्रस्ट द्वारा लिए गए निर्णयों की पुर्नसमीक्षा होना चाहिए। उनका आरोप है कि पिछले कई दिनों से भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल में गैस पीड़ितों के इलाज में लापरवाही हो रही है। बाहरी मरीजों को तवज्जो दी जा रही है, क्योंकि उससे ट्रस्ट को पैसा मिलता है। जबकि इस अस्पताल का निर्माण केवल गैस पीडितों के इलाज के लिए ही कराया गया था।
दस साल पहले शुरु हुआ था अस्पताल
गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन ने लंदन में 20 मार्च 1992 को 'द भोपाल हॉस्पिटल ट्रस्ट" की स्थापना की। इस चैरिटेबल ट्रस्ट के एकमात्र ट्रस्टी सर इयान पर्सीवल थे। मप्र सरकार ने अस्पताल निर्माण के लिए ट्रस्ट को लगभग 80 एकड़ जमीन मुफ्त प्रदान की। सर पर्सीवल की मृत्यु के बाद 1998 में 'द भोपाल मेमोरियरल हॉस्पिटल ट्रस्ट" की स्थापना की गई। ट्रस्ट ने छह अस्पताल सहित कम से कम 32 स्वास्थ्य केंद्र स्थापित किए थे। इस अस्पताल का संचालन जुलाई 2000 से शुरू हो गया था।
कौन हैं ट्रस्टी
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एएम अहमदी ट्रस्ट के अध्यक्ष बनाए गए। पूर्व राज्यपाल मोहम्मद शफी कुरैशी को उपाध्यक्ष बनाया गया। ट्रस्ट में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा की पत्नी श्रीमती विमला शर्मा, लंदन के बैरिस्टर राबर्ट पर्सीवल, केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव, डीजी इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च, निदेशक पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च चंडीगढ़ प्रो. केके तलवार, मुख्य सचिव मप्र, आईडीबीआई के पूर्व अध्यक्ष एसएच खान शामिल किए गए। भोपाल के अधिवक्ता अजीज अहमद सिद्दीकी को वर्किंग ट्रस्टी बनाया गया। वर्किंग कमेटी में प्रमुख सचिव स्वास्थ्य मप्र , केन्द्रीय रसायन और पेट्रोकेमिकल्स विभाग के संयुक्त सचिव, डॉ संतोख सिंह पूर्व डीएमई मप्र, जीबी पंत अस्पताल नईदिल्ली के पूर्व निदेशक डॉ. एम खलीलुल्ला, भोपाल के चार्टर्ड अकाउंटेंट एसएल छाजेड़ और महिला चेतना मंच की उपाध्यक्ष सुश्री के. अरोन्देकर को शामिल किया गया।
Sunday, July 11, 2010
मप्र व केन्द्र में टकराव के बीज
बीज के दाम भी तय करेगा बाजार
पेट्रोलियम पदार्थों के दाम नियंत्रण का अधिकार बाजार को दे चुकी केन्द्र सरकार की योजना है कि वह शकर के दाम बढ़ाने की ताकत भी बाजार को दे दे। इसकी मार आम आदमी पर पड़ेगी, लेकिन इससे एक कदम और आगे जाते हुए केन्द्र सरकार चाहती है कि बीजों के दामों पर भी बाजार का नियंत्रंण हो। वह बीज-2010 विधेयक पास करवाकर बीजों को पेट्रोलियम पदार्थों की तरह नियंत्रण से मुक्त करना चाहती है। दूसरी तरफ राज्य सरकारों का मानना है कि बीजों के दामों को बाजार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। इसका सीधा सम्बन्ध किसानों के हितों से जुड़ा है। इन राज्य सरकारों में मप्र सरकार भी है। वह खुद बीज कीमतों को काबू करने वाला विधेयक लाने जा रही है। आंध्र प्रदेश सरकार इस तरह का बिल पहले ही पास कर चुकी है।
उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार द्वारा बीज एक्ट 1966 में संशोधन के लिए बीज विधेयक -2004 लाया गया था। यह तीन बार संसद में पेश किया जा चुका है, लेकिन तीनों बार इसे पारित नहीं कराया जा सका। इस बार भी केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने विधेयक को स्वीकृति दे दी है और सरकार कोशिश है कि मानसून सत्र में ही बीज विधेयक 2010 पारित हो जाए। लेकिन सचाई यह है कि तमाम सामाजिक संगठन, प्रबुद्ध नागरिक और किसान संगठन इस विधेयक को किसान विरोधी और बीज कंपनियों के हित में बता रहे हैं। किसान संगठन बीजों के दामों पर नियंत्रण की पैरवी कर रहे हैं, लेकिन केन्द्र सरकार विधेयक में संशोधन पर राजी नहीं है।
मप्र सरकार ने भी इस विधेयक की एक खामी गिनाते हुए इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। हाल में मप्र कैबिनेट ने सामाजिक और किसान संगठनों की बात से सहमति जताते हुए राज्य में कपास के बीजों के मूल्य पर नियंत्रण के लिए विधेयक लाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। विशेषज्ञों के अनुसार यह 7 वीं अनुसूची का मसला है। इस विषय पर दोनों सरकारें बिल ला सकती हैं, लेकिन जब किसी बिंदु केन्द्र और राज्य सरकार के नियमों में टकराव हो तो केन्द्र सरकार की बात मानी जाएगी। हाँलाकि ऐसा हुआ तो बीजों के दाम नियंत्रण के मामले में केन्द्र के बिल को महत्व मिलेगा।
मुआवजे के उपबंध भी जोड़ें
राज्य सरकार और सामाजिक संगठनों का कहना है कि केन्द्र सरकार बीज अध्ािनियम 2010 में बीज कंपनियों की जवाबदेही भी तय करें। वह मूल्य नियंत्रण और घटिया बीज से हानि पर किसानों को पर्याप्त मुआवजे का उपबंध भी जोड़े। गौरतलब है कि केन्द्र सरकार ने 10 जून को बिनौले के उत्पादन और वितरण का नियमन और छह महीने करने का फैसला किया है । संसद में बीज विधेयक पारित होने के बाद बिनौले का नियंत्रण विधेयक के प्रावधानों के तहत होगा और उसके बाद आवश्यक वस्तु कानून के तहत बिनौले को लेकर जारी अधिसूचना वापस ले ली जाएगी ।
बीज कमेटी ने की सिफारिशें
28 नवंबर 2006 को प्रोफेसर राम गोपाल यादव की अध्यक्षता में गठित कृषि पर स्टैंडिंग कमेटी ने अपने सुझाव में बीज विधेयक में अनेक संशोधन किए जाने की सिफारिश की है। कमेटी ने कहा कि किसानों द्वारा उपयोग किए जाने व बेचे जाने वाले बीजों का पंजीकृत बीज संबंधी न्यूनतम मानकों के अनुरूप होना किसानों के अधिकार में बाधा है। इसलिए कमेटी इस प्रावधान को रद्द करने की सिफारिश करती है। किसान की परिभाषा को और व्यापक करते हुए इसमें उन्हें भी शामिल किया जाए जो पारंपरिक बीजों का संरक्षण कर रहे हैं। बीज विधेयक में किसानों को बीज उगाने और उनके लेन-देन की अनुमति होनी चाहिए। विधेयक में मूल्य नियामक का प्रावधान होना चाहिए, जिससे कि किसानों से बीज उत्पादक/सप्लायर मनमाफिक दाम नहीं वसूल सकें।
' बीज विधेयक 2010 किसान विरोधी है। मप्र सरकार बीजों के मूल्य पर सरकारी नियंत्रण के पक्ष में है। हम केन्द्र सरकार से माँग कर रहे हैं कि वह विधेयक में बदलाव करे।"
डॉ.रामकृष्ण कुसमरिया, कृषिमंत्री, मप्र शासन
' बीजों के दाम के नियंत्रण का मामला 7 वीं अनुसूची से जुड़ा है। इसके तहत केन्द्र और राज्य सरकार अपने नियम बना सकती है लेकिन विवाद के बिंदु पर केन्द्र के विधेयक की बात ही मानी जाएगी।"
विश्वेन्द्र मेहता, संविधान विशेषज्ञ और पूर्व सचिव मप्र विस
' जब प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटी एंड फार्मर्स राइट एक्ट (पीपीवीएफआर) मौजूद है, तो बीज अधिनियम लाने की जरूरत ही नहीं है। दरअसल 90 फीसदी किसान अपने बीज ही उपयोग में लाते हैं। किसान अधिक बीज खरीदें और कंपनियों को फायदा हो, इसलिए सरकार बीज विधेयक पारित करने की कोशिश में है। बीज विधेयक 2010 में दो महत्वपूर्ण बदलाव की जरूरत है। पहला तो यह कि बीज मूल्यों का नियमन जरूर हो। साथ ही नियमों के उल्लघंन पर कड़े दंड का प्रावधान हो।"
डॉ. देवेंद्र शर्मा, कृषि विशेषज्ञ
पेट्रोलियम पदार्थों के दाम नियंत्रण का अधिकार बाजार को दे चुकी केन्द्र सरकार की योजना है कि वह शकर के दाम बढ़ाने की ताकत भी बाजार को दे दे। इसकी मार आम आदमी पर पड़ेगी, लेकिन इससे एक कदम और आगे जाते हुए केन्द्र सरकार चाहती है कि बीजों के दामों पर भी बाजार का नियंत्रंण हो। वह बीज-2010 विधेयक पास करवाकर बीजों को पेट्रोलियम पदार्थों की तरह नियंत्रण से मुक्त करना चाहती है। दूसरी तरफ राज्य सरकारों का मानना है कि बीजों के दामों को बाजार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। इसका सीधा सम्बन्ध किसानों के हितों से जुड़ा है। इन राज्य सरकारों में मप्र सरकार भी है। वह खुद बीज कीमतों को काबू करने वाला विधेयक लाने जा रही है। आंध्र प्रदेश सरकार इस तरह का बिल पहले ही पास कर चुकी है।
उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार द्वारा बीज एक्ट 1966 में संशोधन के लिए बीज विधेयक -2004 लाया गया था। यह तीन बार संसद में पेश किया जा चुका है, लेकिन तीनों बार इसे पारित नहीं कराया जा सका। इस बार भी केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने विधेयक को स्वीकृति दे दी है और सरकार कोशिश है कि मानसून सत्र में ही बीज विधेयक 2010 पारित हो जाए। लेकिन सचाई यह है कि तमाम सामाजिक संगठन, प्रबुद्ध नागरिक और किसान संगठन इस विधेयक को किसान विरोधी और बीज कंपनियों के हित में बता रहे हैं। किसान संगठन बीजों के दामों पर नियंत्रण की पैरवी कर रहे हैं, लेकिन केन्द्र सरकार विधेयक में संशोधन पर राजी नहीं है।
मप्र सरकार ने भी इस विधेयक की एक खामी गिनाते हुए इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। हाल में मप्र कैबिनेट ने सामाजिक और किसान संगठनों की बात से सहमति जताते हुए राज्य में कपास के बीजों के मूल्य पर नियंत्रण के लिए विधेयक लाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। विशेषज्ञों के अनुसार यह 7 वीं अनुसूची का मसला है। इस विषय पर दोनों सरकारें बिल ला सकती हैं, लेकिन जब किसी बिंदु केन्द्र और राज्य सरकार के नियमों में टकराव हो तो केन्द्र सरकार की बात मानी जाएगी। हाँलाकि ऐसा हुआ तो बीजों के दाम नियंत्रण के मामले में केन्द्र के बिल को महत्व मिलेगा।
मुआवजे के उपबंध भी जोड़ें
राज्य सरकार और सामाजिक संगठनों का कहना है कि केन्द्र सरकार बीज अध्ािनियम 2010 में बीज कंपनियों की जवाबदेही भी तय करें। वह मूल्य नियंत्रण और घटिया बीज से हानि पर किसानों को पर्याप्त मुआवजे का उपबंध भी जोड़े। गौरतलब है कि केन्द्र सरकार ने 10 जून को बिनौले के उत्पादन और वितरण का नियमन और छह महीने करने का फैसला किया है । संसद में बीज विधेयक पारित होने के बाद बिनौले का नियंत्रण विधेयक के प्रावधानों के तहत होगा और उसके बाद आवश्यक वस्तु कानून के तहत बिनौले को लेकर जारी अधिसूचना वापस ले ली जाएगी ।
बीज कमेटी ने की सिफारिशें
28 नवंबर 2006 को प्रोफेसर राम गोपाल यादव की अध्यक्षता में गठित कृषि पर स्टैंडिंग कमेटी ने अपने सुझाव में बीज विधेयक में अनेक संशोधन किए जाने की सिफारिश की है। कमेटी ने कहा कि किसानों द्वारा उपयोग किए जाने व बेचे जाने वाले बीजों का पंजीकृत बीज संबंधी न्यूनतम मानकों के अनुरूप होना किसानों के अधिकार में बाधा है। इसलिए कमेटी इस प्रावधान को रद्द करने की सिफारिश करती है। किसान की परिभाषा को और व्यापक करते हुए इसमें उन्हें भी शामिल किया जाए जो पारंपरिक बीजों का संरक्षण कर रहे हैं। बीज विधेयक में किसानों को बीज उगाने और उनके लेन-देन की अनुमति होनी चाहिए। विधेयक में मूल्य नियामक का प्रावधान होना चाहिए, जिससे कि किसानों से बीज उत्पादक/सप्लायर मनमाफिक दाम नहीं वसूल सकें।
' बीज विधेयक 2010 किसान विरोधी है। मप्र सरकार बीजों के मूल्य पर सरकारी नियंत्रण के पक्ष में है। हम केन्द्र सरकार से माँग कर रहे हैं कि वह विधेयक में बदलाव करे।"
डॉ.रामकृष्ण कुसमरिया, कृषिमंत्री, मप्र शासन
' बीजों के दाम के नियंत्रण का मामला 7 वीं अनुसूची से जुड़ा है। इसके तहत केन्द्र और राज्य सरकार अपने नियम बना सकती है लेकिन विवाद के बिंदु पर केन्द्र के विधेयक की बात ही मानी जाएगी।"
विश्वेन्द्र मेहता, संविधान विशेषज्ञ और पूर्व सचिव मप्र विस
' जब प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटी एंड फार्मर्स राइट एक्ट (पीपीवीएफआर) मौजूद है, तो बीज अधिनियम लाने की जरूरत ही नहीं है। दरअसल 90 फीसदी किसान अपने बीज ही उपयोग में लाते हैं। किसान अधिक बीज खरीदें और कंपनियों को फायदा हो, इसलिए सरकार बीज विधेयक पारित करने की कोशिश में है। बीज विधेयक 2010 में दो महत्वपूर्ण बदलाव की जरूरत है। पहला तो यह कि बीज मूल्यों का नियमन जरूर हो। साथ ही नियमों के उल्लघंन पर कड़े दंड का प्रावधान हो।"
डॉ. देवेंद्र शर्मा, कृषि विशेषज्ञ
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